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बेसिन की संधि, 1802 का भारतीय इतिहास में महत्त्व

अठारहवीं सदी के आते-आते मराठा साम्राज्य की आंतरिक एकता छिन्न-भिन्न हो गयी और विकेंद्रीकरण की शक्ति प्रबल हो गयी थी. जब मराठा संघ ऐसी बुरी स्थिति से गुजर रहा था तो वेलेजली जिया साम्राज्यवादी ईस्ट इंडिया कंपनी का गवर्नर जनरल बनकर आया. उसने आते ही मराठों के ऊपर भी अपना साम्राज्यवादी चक्र चलाना शुरू किया . जब तक नाना फड़नवीस जिन्दा रहा तब तक वह मराठों के पारस्परिक कलह और प्रतिस्पर्द्धा को रोकने में सफल रहा परन्तु उसकी मृत्यु के बाद मराठा सरदारों के बीच आपसी युद्ध शुरू हुआ. होल्कर ने सिंधिया और पेशवा की संयुक्त सेना को पूना के निकट पराजित किया. पेशवा बाजीराव द्वितीय ने बेसिन में शरण ली और 31 दिसम्बर, 1802 में सहायक संधि स्वीकार कर ली. यह समझौता बेसिन की संधि (Treaty of Bassein) के नाम से जाना जाता है.

बाजीराव II और अंग्रेजों के बीच समझौता

बेसिन की संधि (Treaty of Bassein) के अनुसार दोनों पक्षों ने संकट के समय एक-दूसरे का साथ देने का वचन दिया. पेशवा बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों ने 6000 सैनिक तथा तोपखाना दिए और बदले में पेशवा ने 26 लाख रु. दिए. पेशवा ने यह भी वचन दिया की बिना अंग्रेजों की स्वीकृति के वह किसी यूरोपियन को अपने यहाँ नौकरी नहीं देगा और किसी दूसरे राज्य के साथ भी युद्ध संधि या पत्र-व्यवहार नहीं करेगा. इस प्रकार बेसिन की संधि का भारतीय इतहास में एक  विशिष्ट महत्त्व है क्योंकि इसके द्वारा मराठों ने अपने सम्मान और स्वतंत्रता के अंग्रेजों के हाथों बेच दिया जिससे महाराष्ट्र की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा. दूसरी ओर अंग्रेजों को पश्चिम भारत में पैर जमाने का एक अच्छा मौका मिल गया.


अकबर का जीवनकाल और साम्राज्य – Akbar’s Life Story in Hindi

अकबर का उत्तर भारत पर विजय

अकबर मुग़लवंश का तीसरा बादशाह था. वह अपने पिता हुमायूं की मृत्यु के बाद 1556 ई. में सिंहासन पर बैठा. उस समय उसके अधीन कोई ख़ास इलाका नहीं था. उसी वर्ष पानीपत की दूसरी लड़ाई में उसने हेमू पर विजय पाई जो अफगनों के सूर राजवंश का समर्थक था. अब वह पंजाब, दिल्ली, आगरा और पास-पड़ोस के क्षेत्र का स्वामी बन गया. अगले पाँच वर्षों में अकबर ने इस क्षेत्र में अपने राज्य को मजबूत बनाया और पूर्व में गंगा-यमुना के संगम इलाहाबाद तक और मध्य भारत में ग्वालियर और राजस्थान में अजमेर तक अपना राज्य फैलाया. अगले 20 वर्षों में अकबर ने कश्मीर, सिंध और उड़ीसा को छोड़कर पूरे उत्तर भारत को जीत लिया. 1592 ई. तक उसने इन तीनों राज्यों को भी अपने राज्य में मिला लिया. इसके पहले 1581 ई. में उसने अपने छोटे भाई हकीम की बगावत का दमन किया जिसने अपने को काबुल का स्वतंत्र सुल्तान घोषित कर दिया था. दस वर्ष बाद अकबर ने कंधार जीत लिया और बलूचिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया.

दक्षिण भारत पर विजय और अकबर की मृत्यु

उत्तर भारत को जीतने के बाद उसने दक्षिण भारत को जीतने की कोशिश की. 1600 ई. में उसने अहमदनगर पर हमला किया और 1601 ई. में खान देश के असीरगढ़ को जीत लिया. यह उसके जीवन की अंतिम विजय थी. चार साल बाद उसकी मृत्यु हुई. उस समय उसका साम्राज्य पश्चिम में काबुल से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय की तराई से दक्षिण में नर्मदा नदी के किनारे तक फैला था.

अकबर का साम्राज्य

अकबर का साम्राज्य 15 सूबों में बँटा था –

  1. काबुल
  2. लाहौर (पंजाब) जिसमें कश्मीर भी शामिल था
  3. मुल्तान-सिंध
  4. दिल्ली
  5. आगरा
  6. अवध
  7. इलाहाबाद
  8. अजमेर
  9. अहमदाबाद
  10. मालवा
  11. बिहार
  12. बंगाल-उड़ीसा
  13. खानदेश
  14. बरार और
  15. अहमदनगर

कुशल प्रशासक

अकबर केवल एक विजेता ही नहीं था वरन् कुशल प्रशासक और साम्राज्य का संस्थापक भी था. उसने ऐसी प्रशासन व्यवस्था की जो उसके पहले के राज्यों की व्यवस्था से उच्चकोटि की थी. उसका राजतंत्र उसके व्यक्तिगत स्वेच्छाचारी शासन और नौकरशाही पर आश्रित था. उसका उद्देश्य बादशाह के व्यक्तिगत अधिकार और राजकोष को बढ़ाना था. बादशाह के हुक्म को उसके मनसबदार पूरा करते थे. मनसबदारों की 3-3 श्रेणियाँ थी, जिनके मंसब 10 से लेकर पाँच हजार तक के होते थे. इन मनसबदारों को वेतन नकद दिया जाता था. उनके ऊपर अंकुश रखने के लिए अनेक नियम बनाये गए थे, विशेष रूप से सवारों की फर्जी सूची रखने पर. हर एक सूबे में एक सूबेदार रहता था जिसको नवाब नाजिम भी कहा जाता है. वह भी अपना छोटा दरबार करता था जैसे कि तुर्क व अफगान सुलतानों के राज में होता था. लेकिन अकबर ने सूबेदारों पर अंकुश लगाया और सूबे के वित्तीय मामलों की देखभाल करने के लिए “दीवान” नामक नया अधिकारी नियुक्त किया.

राजस्व बढ़ाने के लिए राजा टोडरमल की सहायता से अकबर ने भूमि की नाप जोख और पैमाइश कराकर मालगुजारी की नयी व्यवस्था की. रैयत और काश्तकारों से लगान की वसूली की सीधी व्यवस्था चलाई गई. उपज का तिहाई हिस्सा लगान के रूप में नकद अथवा अनाज के रूप में लिया जाता था और उसकी वसूली सरकारी अफसर करते थे.

हिन्दू के प्रति उसका व्यवहार

 

भारत के मुसलमान शासकों में अकबर का स्थान सबसे ऊपर रखा जाता है. उसके पहले के शासकों ने यहाँ की हिन्दू प्रजा का ख्याल नहीं रखा और उनमें और बहुसंख्यक हिन्दू प्रजा में लगातार संघर्ष और शत्रुता का व्यवहार चलता रहता था. अकबर ने अपने शासक के आरंभिक वर्षों में यह अनुभव किया कि हिन्दुस्तान का बादशाह केवल मुसलामानों का ही शासक नहीं होना चाहिए. यहाँ के सम्राट को यदि अपने राज्य को मजबूत बनाना है तो उसे हिन्दुओं की राजभक्ति भी प्राप्त करना चाहिए. उसे हिन्दू-मुसलमान, यह भेदभाव नहीं करना चाहिए. इसलिए उसने उदार नीति अपनाई. उसने तीर्थ-यात्राओं के ऊपर लगनेवाले जजिया कर को समाप्त कर दिया जो केवल हिन्दुओं पर लगाया जाता था. उसने हिन्दुओं को भी उनकी प्रतिभा के अनुशासित पदों पर नियुक्त किया. अकबर को राजपूतों का समर्थन मिला और उनकी वीरता के आधार पर अकबर ने अपना साम्राज्य काबुल से बंगाल तक फैलाया.

एक राजपूत सरदार जिसका नाम बीरबल था, वह अपनी इच्छा से बादशाह अकबर की सेवा में आ गया और उसका मुँह-लगा स्नेहपात्र बन गया. अकबर ने उसे “राजा” की पदवी दी. बीरबल बहादुर सेनापति होने के साथ-साथ एक प्रतिभाशाली कवि भी था. अकबर ने उसे “कविराय” की उपाधि से सम्मानित किया था. बीरबल 1586 ई. में पश्चिमोत्तर सीमा के युसूफजाई कबीले पर चढ़ाई करने के लिए मुग़ल सेना का नायक बनाकर भेजा गया और वहाँ युद्ध में मारा गया.

दीन इलाही

अकबर ने हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों की अच्छी बातों को लेकर नया मत चलाने का प्रयत्न किया. इसी उद्देश्य से उसने 1582 ई. में “दीन इलाही” का प्रचलन किया. उसमें कुरान, हिन्दू धर्मशास्त्रों और बाइबिल के सिद्धांतों का समन्वय किया गया था. अकबर सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता के सिद्धांत को मानता था. उसने अपने नए धर्म को दूसरों पर लादने का प्रयास नहीं किया. दीन इलाही एकेश्वरवाद पर आधारित था किन्तु उसमें थोड़ा बहुदेववाद का भी पुट था. इसका उद्देश्य सार्वभौम धार्मिक सहिष्णुता की स्थापना करना था. भारत में, जो धार्मिक भेदभाव से बहुत पीड़ित था, इस प्रकार की सहिष्णुता एक राष्ट्रीय आवश्यकता थी. यह धर्म तर्क पर आधारित था. बहुत कम लोगों ने ही “दीन इलाही” को कबूल किया. अकबर की मृत्यु के बाद यह धर्म लुप्त हो गया.


तीनों पानीपत युद्धों का संक्षिप्त विवरण – War of Panipat in Hindi

पानीपत की प्रथम लड़ाई – First Panipat War

पानीपत में तीन भाग्यनिर्णायक लडाईयाँ यहाँ हुई, जिन्होंने भारतीय इतिहास की धारा ही मोड़ दी. पानीपत की पहली लड़ाई -Panipat War 1 21 अप्रैल, 1526 ई. को दिल्ली के सुलतान इब्राहीम लोदी और मुग़ल आक्रमणकारी बाबर के बीच हुई. इब्राहीम के पास एक लाख संख्या तक की फ़ौज थी. उधर बाबर के पास मात्र 12,000 फ़ौज तथा बड़ी संख्या में तोपें थीं. रणविद्या, सैन्य-सञ्चालन की श्रेष्ठता और विशेषकर तोपों के नए और प्रभावशाली प्रयोग के कारण बाबर ने इब्राहीम लोदी के ऊपर निर्णयात्मक विजय प्राप्त की. लोदी ने रणभूमि में ही प्राण त्याग दिया. पानीपत की पहली लड़ाई के फलस्वरूप दिल्ली और आगरा पर बाबर का दखल हो गया और उससे भारत में मुग़ल राजवंश का प्रचालन हुआ.

पानीपत की दूसरी लड़ाई – Second Panipat War

पानीपत की दूसरी लड़ाई -Panipat War 2 ( 5 नवम्बर, 1556 ई. को अफगान बादशाह आदिलशाह सूर के योग्य हिन्दू सेनापति और मंत्री हेमू और अकबर के बीच हुई, जिसने अपने पिता हुमायूँ से दिल्ली का तख़्त पाया था. हेमू के पास अकबर से कहीं अधिक बड़ी सेना थी. उसके पास 1500 हाथी भी थे. प्रारम्भ में मुग़ल सेना के मुकाबले में हेमू को सफलता प्राप्त हुई परन्तु संयोगवश एक तीर हेमू के आँख में घुस गया और यह घटना युद्ध में जीत रहे हेमू के हार का कारण बन गई. तीर लगने से हेमू अचेत होकर गिर पड़ा और उसकी सेना भाग खड़ी हुई. हेमू को गिरफ्तार कर लिया गया और उसे किशोर अकबर के सामने ले जाया गया. अकबर ने उसका सर धड़ से अलग कर दिया. पानीपत की दूसरी लड़ाई के फलस्वरूप दिल्ली और आगरा अकबर के कब्जे में आ गए. इस लड़ाई के फलस्वरूप दिल्ली के तख़्त के लिए मुगलों और अफगानों के बीच चलनेवाला संघर्ष अंतिम रूप से मुगलों के पक्ष में निर्णीत हो गया और अगले तीन सौ वर्षों तक दिल्ली का तख़्त मुगलों के पास रहा.

पानीपत की तीसरी लड़ाई – Third Panipat War

पानीपत की तीसरी लड़ाई -Panipat War 3 ने भारत का भाग्य निर्णय कर दिया जो उस समय अधर में लटक रहा था. पानीपत का तीसरा युद्ध 1761 ई. में हुआ. अफगान का रहने वाला अहमद अब्दाली वहाँ का नया-नया बादशाह बना था. अफगानिस्तान पर अधिकार जमाने के बाद उसने हिन्दुस्तान पर भी कई बार चढ़ाई की और दिल्ली के दरबार की निर्बलता और अमीरों के पारस्परिक वैमनस्य के कारण अहमद अब्दाली को किसी प्रकार की रुकावट का सामना नहीं करना पड़ा. पंजाब के सूबेदार की पराजय के बाद भयभीत दिल्ली-सम्राट ने पंजाब को अफगान के हवाले कर दिया. जीते हुए देश पर अपना सूबेदार नियुक्त कर अब्दाली अपने देश को लौट गया. उसकी अनुपस्थिति में मराठों ने पंजाब पर धावा बोलकर, अब्दाली के सूबेदार को बाहर कर दिया और लाहौर पर अधिकार जमा लिया. इस समाचार को सुनकर अब्दाली क्रोधित हो गया और बड़ी सेना ले कर मराठों को पराजित करने के लिए अफगानिस्तान से रवाना हुआ. मराठों ने भी एक बड़ी सेना एकत्र की, जिसका अध्यक्ष सदाशिवराव और सहायक अध्यक्ष पेशवा का बेटा विश्वासराव था. दोनों वीर अनेक मराठा सेनापतियों तथा पैदल-सेना, घोड़े, हाथी के साथ  पूना से रवाना हुए. होल्कर, सिंधिया, गायकवाड़ और अन्य मराठा-सरदारों ने भी उनकी सहायता की. राजपूतों ने भी मदद भेजी और 30 हजार सिपाही लेकर भरतपुर (राजस्थान) का जाट-सरदार सूरजमल भी उनसे आ मिला. मराठा-दल में सरदारों की एक राय न होने के कारण, अब्दाली की सेना पर फ़ौरन आक्रमण न हो सका. पहले हमले में तो मराठों को विजय मिला पर विश्वासराव मारा गया. इसके बाद जो भयंकर युद्ध हुआ उसमें सदाशिवराव मारा गया. मराठों का साहस भंग हो गया. पानीपत की पराजय तथा पेशवा की मृत्यु से सारा महाराष्ट्र निराशा के अन्धकार में डूब गया और उत्तरी भारत से मराठों का प्रभुत्व उठ गया


सिख धर्म का संक्षिप्त इतिहास और व्यापक जानकारी – History of Sikhism in Hindi

सिख धर्म के लोग गुरुनानक देव के अनुयायी हैं. गुरुनानक देव का कालखंड 1469-1539 ई. है. सिख धर्म के लोग मुख्यतया पंजाब में रहते हैं. वे सभी धर्मों में निहित आधारभूत सत्य में विश्वास रखते हैं और उनका दृष्टिकोण धार्मिक अथवा साम्प्रदायिक पक्षपात से रहित और उदार है. 1538 ई. में गुरु नानक की मृत्यु के बाद सिखों का मुखिया गुरु कहलाने लगा. सिख धर्म का इतिहास बलिदानों का इतिहास है. आज हम इस आर्टिकल में सिख धर्म के दस गुरुओं और सिख धर्म के गौरवपूर्ण इतिहास (History) को आपके सामने रखेंगे. सिख धर्म के इतिहास (Brief History of Sikh Dharma) में गुरुओं की लिस्ट (Sikh Guru List) कुछ इस तरह है –

  1. गुरुनानक देव (1469-1539)
  2. अंगद (1539-1552)
  3. अमरदास (1552-1574)
  4. रामदास (1574-1581)
  5. अर्जुन (1581-1606)
  6. हरगोविन्द (1606-1645)
  7. हरराय (1645-1661)
  8. हरकिशन (1661-1664)
  9. तेग बहादुर (1664-1675)
  10. गुरु गोविन्द सिंह (1675-1708)

गुरु नानक

गुरु नानक (Guru Nanak) के सिख धर्म के प्रवर्तक थे. 1469 ई. में लाहौर के निकट तलवंडी अथवा आधुनिक ननकाना साहिब में खत्री परिवार में वे उत्पन्न हुए. वे साधु स्वभाव के धर्म-प्रचारक थे. उन्होंने अपना पूरा जीवन हिन्दू और इस्लाम धर्म की उन अच्छी बातों के प्रचार में लगाया जो समस्त मानव समाज के लिए कल्याणकारी है. गुरुनानक ने अत्यधिक तपस्या और अत्यधिक सांसारिक भोगविलास, अहंभाव और आडम्बर, स्वार्थपरता और असत्य बोलने से दूर रहने की शिक्षा दी. उन्होंने सभी को अपने धर्म का उपदेश दिया, फलतः हिन्दू और  मुसलामान, दोनों ही उनके अनुयायी हो गए. उनके स्वचरित पवित्र पद तथा शिक्षाएँ (बानियाँ) सिखों के धर्मग्रन्थ “ग्रन्थ साहिब” में संकलित हैं. नानक देव की मृत्यु 1539 में  हुई.

गुरु अंगद

गुरु अंगद (Guru Angada) सिखों के दूसरे गुरु हुए. इनको गुरु नानक देव ने ही इस पद  के लिए मनोनीत किया था. नानक इनको अपने शिष्यों में सबसे अधिक मानते थे और अपने दोनों पुत्रों को छोड़कर उन्होंने अंगद को ही अपना उत्तराधिकारी चुना. गुरु अंगद श्रेष्ठ चरित्रवान व्यक्ति और सिखों के उच्चकोटि के नेता थे जिन्होंने अनुयायियों का 14 वर्ष तक नेतृत्व किया.

गुरु अमरदास

गुरु अमरदास (Guru Amardas) सिखों के तीसरे गुरु थे. वे चरित्रवान और सदाचारी थे. उन्होंने सिख धर्म का व्यापक ढंग से प्रचार किया.

गुरु रामदास

चौथे गुरु रामदास (Guru Ramdas) अत्यंत साधु प्रकृति के व्यक्ति थे. उन्होंने अमृतसर में एक जलाशय से युक्त भू-भाग दान दिया, जिसपर आगे चलकर स्वर्ण मंदिर (golden temple) का निर्माण हुआ.

गुरु अर्जुन

सिख धर्म के इतिहास (Sikh Dharma History) में गुरु अर्जुन का महत्त्वपूर्ण स्थान है. पाँचवें गुरु अर्जुन (Guru Arjuna)ने  सिखों के “आदि ग्रन्थ” नामक धर्म ग्रन्थ का संकलन किया, जिसमें उनके पूर्व के चारों गुरुओं और कुछ हिन्दू और मुसलमान संतों की वाणी संकलित है. उन्होंने खालसा पंथ की आर्थिक स्थिति को दृढ़ता प्रदान करने के लिए प्रत्येक सिख से धार्मिक चंदा वसूल (धार्मिक कर) करने की प्रथा चलाई. जहाँगीर के आदेश पर गुरु अर्जुन का इस कारण वध कर दिया गया कि गुरु अर्जुन ने जहाँगीर के विद्रोही बेटे शहजादा खुसरो को दयापूर्वक शरण दिया था.

गुरु हरगोविंद

गुरु अर्जुन के पुत्र गुरु हरगोविंद (Guru Hargobind Sahib Ji)ने  सिखों का सैनिक संगठन किया. उन्होंने एक छोटी-सी सिखों की सेना एकत्र की. गुरु अर्जुन ने शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह करके एक युद्ध में शाही सेना को हरा भी दिया. किन्तु बाद में उनको कश्मीर के पर्वतीय प्रदेश में शरण लेनी पड़ी.

गुरु हरराय और गुरु किशन

गुरु हरराय (Guru Har Rai) और गुरु किशन (Guru Kishan) के काल में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं घटी. उन्होंने गुरु अर्जुन द्वारा प्रचलित धार्मिक चंदे की प्रथा और उनके पुत्र हर गोविन्द की की सैनिक-संगठन की नीति का अनुसरण करके खालसा पंथ को और भी शक्तिशाली बनाया.

तेग बहादुर

नवें गुरु तेग बहादुर (Guru Teg Bahadur) को औरंगजेब की दुष्ट प्रकृति का सामना करना पड़ा.  उसने गुरु तेग बहादुर को बंदी बनाकर उनके सामने प्रस्ताव रखा कि या तो इस्लाम धर्म स्वीकार करो अथवा प्राण देने को तैयार हो जाओ. बाद में उनका सिर दुष्ट औरंगजेब ने काट डाला. उनकी शहादत का समस्त सिख सम्प्रदाय, उनके पुत्र और अगले गुरु गोविन्द सिंह पर गंभीर प्रभाव पड़ा.

गुरु गोविन्द सिंह

 

गुरु गोविन्द सिंह (Guru Gobind Singh)  ने भली-भांति विचार करके शांतिप्रिय सिख सम्प्रदाय को सैनिक संगठन का रूप दिया जो दृढ़तापूर्वक मुसलामानों के अतिक्रमण और अत्याचारों का सामना कर सके. साथ ही उन्होंने सिखों में ऐसी अनुशासन की भावना भरी कि वे लड़ाकू शक्ति बन गए. उन्होंने अपने पंथ का नाम खालसा (पवित्र) रखा. साथ ही समस्त सिख समुदाय को एकता-सूत्र में बाँध कर के विचार से सिखों के केश, कच्छ, कड़ा, कृपाण और कंघा – पाँच वस्तुओं को आवश्यक रूप में धारण करने का आदेश दिया. उन्होंने पाहुल प्रथा का शुभारम्भ किया जिसके अनुसार सभी सिख समूह में जात-बंधन तोड़ने के उद्देश्य से एक ही कटोरे में प्रसाद ग्रहण करते थे.

गुरु गोविन्द सिंह ने स्थानीय मुग़ल हाकिमों से कई युद्ध किये, जिनमें उनके दो बालक पुत्र मारे भी गए. पर इससे वे हतोत्साहित नहीं हुए. अपनी मृत्यु तक सिखों का संगठन करते रहे. 1708 ई. में एक अफगान ने उनकी हत्या कर दी.

आगे चलकर गुरु गोविन्द सिंह की रचनाएँ भी संकलित हुईं और यह संकलन “गुरु ग्रन्थ साहब” का परिशिष्ट (appendix) बना.  समस्त सिख समुदाय उनका इतना आदर करता था कि उनकी मृत्यु के बाद गुरु पद ही समाप्त कर दिया गया. वैसे उनके मृत्यु के बाद ही बंदा वीर ने सिखों का नेतृत्व भार संभाल लिया. वीर वंदा के नेतृत्व में 1708 ई. से लेकर 1716 ई. तक सिख निरंतर मुगलों से लोहा लेते रहे, पर 1716 ई. में बंदा वीर बंदी बना लिया गया और बादशाह फर्रुखशियर (1713-1719ई.) की आज्ञा से हाथियों से रौंदवादकर उसकी निर्मम हत्या कर दी गई.

सिख धर्म पर प्रहार – काला इतिहास (Black History)

सैकड़ों सिखों को घोर यातनाएँ दी गयीं फिर भी इन अत्याचारों से खासला पंथ की सैनिक शक्ति को दबाया नहीं जा सका. गुरु के अभाव में, व्यक्तिगत नेतृत्व के स्थान पर, संगठन का भार कई व्यक्तियों के एक समूह पर आ पड़ा, जिन्होंने अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार अपने सहधर्मियों का संगठन किया.


दीन-ए-ईलाही – Din-i-Illahi Information in Hindi

दीन-ए-ईलाही (Din-i-Illahi) अथवा तौहीद-ए-ईलाही की स्थापना धार्मिक क्षेत्र में अकबर का सबसे महत्त्वपूर्ण और विवादास्पद कार्य था. इबादतखाना बंद करवाने और महजर की घोषणा के बाद भी अकबर धार्मिक मामलों में अत्यधिक रूचि लेता था. अपने अनुभव, विद्वानों के विचारों से अकबर इस निर्णय पर पहुँचा कि सभी धर्मों का मूल तत्त्व एक ही है. भले ही लोगों के पास अलग-अलग भगवान् के नाम हैं पर सभी धर्म अदृश्य शक्ति की सार्वभौमिकता को ही स्वीकार करते हैं और उसकी कृपा से सांसारिक कष्टों से निवारण चाहते हैं.

धार्मिक विभिन्नताओं और मतभेदों को दूर करने के लिए, सम्पूर्ण देश में एकता और सामंजस्य की स्थापना करने के उद्देश्य से अकबर ने एक ऐसी धर्म की कल्पना की जिसमें सभी धर्मों की अच्छी बातें सम्मिलित हों और जिसे हर कोई सहज स्वीकार कर ले.

अकबर की मंशा

दीन-ए-ईलाही (Din-i-Illahi) को एक धर्म के रूप में पेश करने के पीछे अकबर की दो मंशाएँ थीं. पहला कि सभी जातियों और धार्मिक सम्प्रदाय के लोग एक सूत्र में बंध जाएँ जिससे उसके साम्राज्य में स्थिरता आये और सभी राजा और धर्म के प्रति एक ही दृष्टिकोण रखें. दूसरी मंशा यह थी कि अकबर खुद को राष्ट्रीय सम्राट के रूप में प्रतिष्ठित करवाना चाहता था. उसकी इच्छा थी कि प्रजा उसे भगवान् का प्रतिनिधि मान ले और विद्रोहात्मक रवैया त्याग दे. नए धर्म का उद्देश्य सभी धर्मों में समन्वय और एकता स्थापित करना भी था.

दीन-ए-ईलाही का निर्माण

1582 ई. में अकबर ने धार्मिक नेताओं, महत्त्वपूर्ण सरदारों और अन्य गण्यमान्य व्यक्तियों की सभा बुलाई और उनसे अनुरोध किया कि वे कोई ऐसा मार्ग निकालें जिससे साम्प्रदायिक भेदभाव को भूलकर सभी व्यक्ति शास्वत धर्म के सार्वभौम, सर्वमान्य आचरणयुक्त सिद्धांतों के अनुयायी बन सकें. फलतः अकबर ने 1582 ई. में तौहीद-ए-इलाही (दैवी एकेश्वरवाद) की घोषणा की जो बाद में दीन-ए-ईलाही (ईश्वर का धर्म) के नाम से विख्यात हुआ. सच तो यह है कि दीन-ए-ईलाही (Din-i-Illahi) किसी प्रकार का धर्म नहीं था. यह एक ऐसा विचार था जिससे कुछ व्यक्तियों का समूह अकबर के विचारों से सहमत था और उसे अपना धर्म गुरु मानता था.

दीन-ए-ईलाही का स्वरूप

  1. अकबर के धर्म का पालन करने वालों को निश्चित नियमों का पालन करना पड़ता था |
  2. गुरु सर्वोच्च माना जाता था |
  3. दबिस्तान मजाहिब में इस धर्म के पालन करने वालों के लिए दिशा-निर्देश दिए गए थे |
  4. दीन-ए-ईलाही (Din-i-Illahi) के अनुयायियों को यह स्वीकार करना पड़ता था कि ईश्वर एक है और उसका प्रतिनिधि अकबर है और वे उसके शिष्य हैं |
  5. हर रविवार को अकबर अपने शिष्यों को दीक्षा देकर इस धर्म में प्रवेश करवाता था |
  6. नए शिष्य को अकबर के सामने ही धर्म स्वीकार करना पड़ता था. इसके बदले अकबर उसे पगड़ी पहनाता था जिसपर “अल्लाह हो अकबर” लिखा होता था |
  7. इस धर्म को स्वीकार करने वालों को अपने मूल धर्म को छोड़ने की अनिवार्यता नहीं थी |
  8. नए धर्म के अवलम्बियों के लिए निरामिष होना जरूरी था |
  9. दान आदि कर्मों पर विशेष बल दिया गया था |
  10. सम्राट के प्रति श्रद्धा और भक्ति तथा अग्नि की पूजा अनिवार्य थी |
  11. रजस्वला और गर्भवती स्त्रियों के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने पर भी पाबंदी थी |
  12. दीन-ए-ईलाही (Din-i-Illahi) में चार श्रेणी के अनुयायी थे. पहली श्रेणी में जो अनुयायी आते थे वे अकबर के लिए अपनी सम्पत्ति समर्पित करने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे. दूसरी श्रेणी में जो आते थे वे सम्पत्ति एवं अपना जीवन अर्पण करने को भी तैयार रहते थे. तीसरी श्रेणी के अनुयायी धन और जीवन के साथ-साथ सम्राट के लिए अपनी संतान को भी निछावर करने को तैयार थे. अंतिम या चौथी श्रेणी में जो सदस्य थे वे अपना सब कुछ सम्राट के लिए अर्पण करने को तैयार रहते थे |

Din-i-Illahi का प्रसार

अब प्रश्न उठता है कि दीन-ए-ईलाही को कितने लोगों ने स्वीकारा? दरअसल अकबर का यह धर्म अधिक व्यापक नहीं हो पाया. अकबर के जीवनकाल में ही इस धर्म को मानने वालों की संख्या कम थी. न हिन्दू ने और न मुसलमान ने इस धर्म को स्वीकारा. राज्य के 22 महत्त्वपूर्ण लोगों ने ही दीन-ए-ईलाही (Din-i-Illahi) धर्म को स्वीकारा. इन 22 महत्त्वपूर्ण लोगों में बीरबल ही एकमात्र हिन्दू था जिसने दीन-ए-ईलाही को स्वीकारा. कट्टर मुसलामानों ने अकबर के द्वारा इस्लाम धर्म और प्रथाओं पर किये गए किए गए आघातों के कारण उसके इस नए धर्म को ठुकरा दिया. सूफी संत शेख़ अहमद सरहिंदी (Shaykh Ahmad Sirhindi) ने अकबर के इस धर्म का प्रबल विरोध किया. उसका मानना था कि अकबर का यह धर्म इस्लाम की अवमानना करने के बराबर है. नए धर्म के लोकप्रिय नहीं होने के पीछे अनेक कारण थे. एक कारण यह भी हो सकता है कि अकबर ने दीन-ए-ईलाही धर्म को स्वीकारने के लिए जनता को बाध्य नहीं किया. यह धर्म अकबर के इर्द-गिर्द सम्मानित लोगों में ही सिमटकर रह गया. अकबर की मृत्यु के बाद दीन-ए-ईलाही भी समाप्त हो गया.


Important Information about Akbar

  1. हुमायूँ के मरने के बाद राजपाठ की जिम्मेदारी बैरम खां ने संभाली क्योंकि अकबर उस समय उम्र में छोटा था. हाँ भले ही बाद में अकबर ने उसे मरवा दिया. इसलिए परीक्षा में आपसे पूछा जा सकता है कि अकबर ने किसे अपने रास्ते से हटा कर सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली?
  2. बैरम को रास्ते से हटाने में अतका खैल ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जिससे वह अकबर को अपने प्रभाव में ले ले और वही हुआ भी.
  3. यदि हत्या की बात की तो जाए, तो अकबर के हाथ भी खून से रंगे थे, चलिए जानते हैं कि उसने किसको किसको खुद टपकाया या कहिये टपकवाया — पहला तो हुआ बैरम खां, फिर अधम खां, अपने मामा ख्वाजा मुअज्जम और कई अन्य कई सगे-सम्बन्धी. (ऐसे में अकबर को आज के जमाने में बाल सुधार गृह में डाल दिया जाता)
  4. इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि जिन परिस्थितियों में अकबर का राज्यारोहण हुआ था, उस समय मुगलों के भारत में अनेक दुश्मन थे, अकबर अगर सभी प्रभावशाली राज्यों पर अपना अंकुश नहीं रखता तो उसके खुद की सत्ता खतरे में पड़ जाती. इसलिए अकबर ने शुरूआती दौर में साम्राज्यवादी नीति को अपनाया |
  5. उसने मालवा, जौनपुर, चुनार, जयपुर, मेड़ता, गोंडवाना, मेवाड़, रणथम्भौर, कालिंजर, मारवाड़ (जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर), गुजरात (अहमदाबाद, खम्बात)आदि कई जगहों पर अपने जीत का परचम लहराया |
  6. मालवा में बाजबहादुर को, जौनपुर में अफगानी शेर खां, चुनार में अफगानी शासक आसफ खां, जयपुर में कछवाहा राजपूत, मेड़ता में जयमल, गोंडवाना (मध्य प्रदेश) में रानी दुर्गावती का अल्पव्यस्क पुत्र वीर नारायण को, मेवाड़ में सिसोदिया राजपूत राणा उदय सिंह, रणथम्भौर में हाड़ा राजपूत राजा राय सुरजन, कालिंजर में राजा रामचंद्र, गुजरात में अहमदाबाद में मुजफ्फर खां और अन्य अनेक सरदारों को और खम्बात में मिर्जाओं (मिर्जा के नेता इब्राहीम हुसैन मिर्जा) और पुर्तगालियों को, बंगाल में दाउद को हराया |
  7. लगातार मिल रही जीतों के बीच अकबर को एक बार हार का भी सामना पड़ा. बंगाल, बिहार और उड़ीसा के शासक सुलेमानी कारारानी ने अकबर को हराया था. अकबर इसलिए हारा क्योंकि वह उस समय गुजरात में अपनी जड़ें जमा रहा था |
  8. अकबर का अंतिम युद्ध खानदेश के साथ हुआ. अली खां जो खुद अकबर का वफादार था, उसका बेटा अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था. इसलिए अकबर ने खानदेश पर आक्रमण करने का निर्णय लिया |
  9. 1572-82 का समय अकबर की धार्मिक नीति को समर्पित है. इसी समय इबादतखाना (प्रार्थना भवन) की स्थापना हुई, मजहर की घोषणा हुई और दीन-ए-इलाही अथवा तौहीद-ए-इलाही की स्थापना हुई |
  10. जून, 1579 में अकबर ने फैजी के सुझाव पर इमाम का पद ग्रहण किया जिससे प्रधान सदर और उलेमा के अधिकार अब अकबर के हाथों में आ गए |
  11. अकबर ने खलीफा के सामान स्वयं ही खुतबा पढ़ा और जमींबोस (राजगद्दी के सामने जमीन चूमने की प्रथा) और सिजदा (सम्राट के सामने झुककर अभिवादन करने की प्रथा) की प्रथा आरम्भ की |
  12. अकबर के दरबार में आने-जाने की घोषणा नगाड़ा बजाकर की जाती थी. यह प्रथा चौकी अथवा तस्लीम-ए-चौकी कहलाती थी |
  13. धार्मिक क्षेत्र में अकबर का सबसे महत्त्वपूर्ण और विवादास्पद कार्य था तौहीद-ए-ईलाही अथवा दीन-ए-ईलाही की स्थापना की |
  14. अकबर के अधीन पाँच प्रमुख मंत्रियों अथवा अधिकारियों का उल्लेख मिलता है – वकील, वजीर अथवा दीवान, सद्र-उस-सद्र, मीर बख्शी और खानसामा (मीर सामाँ) |
  15. वजीर प्रशासनिक मामलों के अतिरिक्त वित्त विभाग भी देखता था. वजीर की स्थिति प्रधानमंत्री जैसी थी |
  16. वजीर अथवा दीवानए-आला की सहायता के लिए अनेक पदाधिकारी नियुक्त किये गए थे, जैसे – दीवान-ए-खालसा (राज्य की भूमि की देखभाल करने वाला), दीवान-ए-तन (सरकारी कर्चारियों के वेतन और जागीर की देखभाल करनेवाला), मुस्तौफी (आय-व्यय का निरीक्षक), वाकया-ए-नवीस (राजकीय फरमानों और दस्तावेजों को सुरक्षित रखनेवाला पदाधिकारी) और मुशरिफ (दफ्तर की देखभाल करने वाला) |
  17. काजी-उल-कजात प्रधान न्यायाधीश था जो पधान मुफ़्ती की सहयोग से न्याय का कार्य देखता था |
  18. मुहतसिब का मुख्य कार्य यह देखना था कि राज्य की जनता नैतिक नियमों का पालन ठीक ढंग से करे |
  19. मीर-ए-आतिश अथवा दारोगा-ए-तोपखाना शाही तोपखाना का प्रधान होता था |
  20. दारोगा-ए-डाकचौकी सूचना और गुप्तचर विभाग का प्रधान था |
  21. मीर मुंशी का काम बादशाह की आज्ञा और फरमानों को लिखना और उसका उचित प्रसारण करना था |
  22. अकबर ने सेना का संगठन मनसबदारी व्यवस्था के आधार पर किया था. इस व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक सरदार और सैनिक पदाधिकारी का मनसब (पद) निश्चित किया गया |
  23. उसने मनसबदारों की दो श्रेणियाँ बनाई थी – जात और सवार |
  24. अकबर की सेना में मनसबदारों की सेना के अतिरिक्त अहदी और दाखिली सैनिकों की टुकड़ियाँ भी थीं |
  25. अकबर ने भूमि और राजस्व-व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण सुधार किए थे. अकबर के समय में राज्य की समस्त भूमि खालसा, जागीर, जमींदारी और सुयूरघल अथवा इनाम में विभाजित थीं |
  26. राज्य की ओर से धार्मिक व्यक्तियों, विद्वानों इत्यादि को वजीफा, इनाम, सुयूरघल अथवा मदादीमशाह के रूप में जमीन दान दी जाती थी |
  27. अकबर के समय जमीन की चार श्रेणियाँ बनायीं गईं – पोलज, परती, छच्छर और बंजर |
  28. लगान वसूली का काम करोड़ी को सौंपा गया. यह व्यवस्था संतोषप्रद नहीं थी इसलिए 1580 ई. में दहशाळा प्रबंध अथवा जाब्ती-व्यवस्था लागू की गई जिसके अनुसार राज्य किसानों से उपज का 1/3 नकद लगान के रूप में लेता था. 
  29. कई क्षेत्रों में कंकूत व्यवस्था (किसानों द्वारा पिछले वर्षों में दी गई लगान के आधार पर अनुमानित लगान) प्रचलित थी |
  30. किसानों के लिए तकावी ऋण की व्यवस्था की गई |
  31. सूबे का प्रशासन केंद्र से मिलता-जुलता था. सूबे का प्रधान सूबेदार अथवा सिपहसालार होता था. सूबे के अन्य अधिकारी थे बख्शी, सद्र, काजी, मीरअदल और मुफ़्ती |
  32. कोतवाल, मीरबहार (चुंगी वसूल करने वाला) तथा वाकिया नवीस भी प्रशासन में सहायता पहुँचाते थे |
  33. सूबा क्रमशः सरकार और परगना में विभाजित था |
  34. सरकार का सर्वोच्च पदाधिकारी फौजदार कहलाता था |
  35. आमिल भूमि-व्यवस्था और लगान-सम्बन्धी कार्य देखता था |
  36. 1563 ई. में अकबर ने तीर्थयात्रा कर और 1564 ई. में जजिया कर हटा दिया |
  37. अकबर ने एक ऐसा सामजिक वातावरण तैयार करने का प्रयास किया जिसमें राज्य की समस्त जनता मिल-जुलकर सुख-शांति से रह सके. ऐसा मुग़ल साम्राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व के लिए आवश्यक था. अकबर की यह नीति सुलहकुल के नाम से विख्यात है |
  38. अकबर के दरबार में 9 प्रमुख व्यक्ति (नवरत्न) स्थाई रूप से रहते थे जिनमें बीरबल अकबर से अत्यधिक निकट था. |
  39. अबुलफजल अकबर के दरबार के एक प्रसिद्ध विद्वान् थे जिन्होंने अकबरनामा और आइने-अकबरी की रचना की |
  40. परगना के शासन की जिम्मेवारी शिकदार, आमिल (मुंसिफ), और क़ानूनगो की थी. इनकी सहायता के लिए फोतेदार (कोषाध्यक्ष) और लेखक भी रहते थे |
  41. गीता, महाभारत, रामायण, पंचतंत्र, सिहासन बत्तीसी, बाइबल, कुरान इत्यादि का अनुवाद फारसी में हुआ |
  42. अकबर के कार्यों को ध्यान में रहते हुए इतिहासकारों ने उसे एक “राष्ट्रीय सम्राट” (National Monarch) का दर्जा दिया

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