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महाभारत कंस वध कहानी | Mahabharat Kans vadh story in hindi

प्राचीन  धर्म  ग्रंथों  और  वेद – पुरानों  के  अनुसार  भगवान  श्री  कृष्ण  की  अनेक  लीलाएं  प्रसिद्ध  हैं,  जिनमे  सबसे  महत्वपूर्ण  और  प्रसिद्ध  कथा  हैं – कंस  के  वध  की.  एक  व्यंगकार  के  अनुसार  मामा  दो  ही  प्रकार  के  होते  हैं -: एक  शकुनि  मामा,  जो  महाभारत  काल  में  कौरवो  और  पांडवों  के  मामा  थे  और  दूसरे  कंस  मामा,  जो  भगवान  कृष्ण  और   बलरामजी  के  मामा  थे.  कंस  के  वध  के  बारे   में  तो  जानकारी  व्यापक  रूप  से  फैली  हुई  हैं,  परन्तु  उसका  जन्म   कहाँ  और  किन  परिस्थितियों  में  हुआ,  इसका  ज़िक्र  कम  ही  होता  हैं.  अतः  कंस  के  जन्म,  जीवनकाल  और  उसके  वध  की  सम्पूर्ण  कथा  निम्नानुसार  हैं-:

नाम                          कंस / भोजपति
पिता                         मथुरा  के  महाराज  उग्रसेन
माता                         पवन  रेखा [ पद्मावती ]
जन्मस्थली               मथुरा
वंश                           यदुवंशी
घराना                       भोज
बहन                        देवकी
पत्नी                        महाराज  जरासंध  की  दोनों  पुत्रियाँ – अस्ति  और  प्राप्ति
मृत्यु                        भगवान  श्रीकृष्ण  द्वारा
 

महाभारत कंस  का  जन्म  (Mahabharat Kans janam):

माथुर  क्षेत्र  में  एक  मथुरा  नगरी  थी  और  वहाँ   के  राजा  थे – महाराज  उग्रसेन,  जो  कि  यदु  वंशी  राजा  थे  और  उसी  समय  विदर्भ  देश  के  राजा  थे – महाराज  सत्यकेतु.  उनकी  एक  पुत्री  थी,   जिसका  नाम  था – पद्मावती.  कहा  जाता  हैं  कि  पद्मावती  एक  सर्व  गुण  संपन्न  कन्या  थी.  महाराज  सत्यकेतु  ने  अपनी  पुत्री  पद्मावती  का  विवाह  मथुरा  नरेश  उग्रसेन  से  करा  दिया  और  महाराज  उग्रसेन  भी  पद्मावती  से  बहुत  प्रेम  करने  लगे,  यहाँ  तक  कि  वे  पद्मावती  के  बिना  भोजन  तक  ग्रहण  नहीं  करते  थे.

कुछ  समय  पश्चात्  महाराज  सत्यकेतु  को  अपनी  बेटी  पद्मावती  की  याद  आने  लगी  और  उन्होंने  अपनी  पुत्री  को  कुछ  दिनों  के  लिए  मायके  बुलाने  हेतु  एक  दूत  को  महाराज  उग्रसेन  के  पास  भेजा.  उस  दूत  ने  महाराज  उग्रसेन  की  कुशल – क्षेम  पूछी  और  फिर  अपने  महाराज  सत्यकेतु  की  मनः स्थिति  के  बारे  में  महाराज  उग्रसेन  को  बताया  और  तब  महाराज  उग्रसेन  ने  उनकी  इस  प्रार्थना  को  स्वीकार  करते  हुए,  अपनी  प्रिय  पत्नी  को  अपने   पिता  के  पास  जाने  हेतु  सहमति  प्रदान  की  और  पद्मावती  अपने  पिता  के  घर  चली  आई.

एक  दिन  पद्मावती  अपने  मनोरंजन  हेतु  पर्वत  पर  घूमने  के  लिए  चली  गयी.  वहाँ  तलहटी  में  सुन्दर  सा  वन  था  और  तालाब  भी.  उस  तालाब  का  नाम  था – सर्वतोभद्रा.  पद्मावती  उस  वन  और  तालाब  की  सुन्दरता  को  देखकर   बहुत  प्रसन्न  हुई  और  तालाब  में  उतरकर  पानी  के  साथ  अठखेलियाँ  करने  लगी.  उसी  समय  आकाश  मार्ग  से  एक  गोभिल  नामक  दैत्य  निकला  और  उसकी  नज़र  अठखेलियाँ  करती  हुई  पद्मावती  पर  पड़ी  और  वो  उस  पर  मुग्ध  हो  गया.  गोभिल  दैत्य  के   पास  चमत्कारी  शक्तियां  थी,  इनकी  सहायता  से  उसने  पद्मावती  के   बारे  में  पूरी  जानकारी  प्राप्त  कर  ली  और  यह  भी  जान  लिया  कि  वह  एक  पतिव्रता  स्त्री  हैं,  इसीलिए  उसने  अपना  रूप  बदलकर  महाराज  उग्रसेन  का  वेश  धारण  कर  लिया.   अब  वह  पर्वत  पर  बैठ  कर  गीत  गाने  लगा  और  उस  मधुर  गीत  को  सुनकर  रानी   पद्मावती  मुग्ध  होकर  उसकी  दिशा  में  गयी  और  महाराज  उग्रसेन  को  देखकर  अचंभित  हो  गयी  और  उसने  पूछा  कि  आप  यहाँ  कब  आये ? तब  उस  दैत्य  गोभिल  ने  जवाब  दिया  कि  वह  अपनी  पत्नी  के  बिना  नहीं  रह  सकते.  तब  पद्मावती  उस  दैत्य   के  करीब  पहुंची  और  प्रेम  करते  समय  उसकी  नज़र  उस  दैत्य  के  शरीर  पर  बने  एक  निशान  के  ऊपर  पड़ी,  जो  महाराज  उग्रसेन  के  शरीर  पर  नहीं  था  और  तब  उसने  जब  उससे   पूछा  तो  पता  चला  कि  वह  एक  दैत्य  हैं.  तब  उस  गोभिल  दौत्य  ने  कहा  कि  उन  दोनों  के  इस  प्रकार  मिलन   से  जो  पुत्र  जन्म  लेगा,  वो  तीनों  लोकों  में  त्राहि  मचा  देगा  और  लोग  उसके  अत्याचारों  से  बहुत  दुखी  होंगे.  इस  घटना  के  बाद  जब  पद्मावती  अपने  पिता  के  घर  लौटी  तो  उन्होंने  पूरी  बात  बताई.  इसके   बाद  वे  अपने  पति  महाराज  उग्रसेन  के  पास  लौट  गयी.  धीरे – धीरे  पद्मावती  का  गर्भ  बढ़ा  और   10  वर्षों  के  लम्बे  गर्भधारण  काल  के  पश्चात्  एक  बालक   का  जन्म  हुआ  और  ये  बालक  कंस  था.

महाभारत कंस  का  वध ( Mahabharat Kans vadh story)

कंस  अपनी  बहन  देवकी  से  बहुत  प्रेम  करता  था  और  उसने  देवकी  का  विवाह  महाराज  वासुदेव  से  कराया  और  वो  स्वयं  अपनी  बहन  को  विदा  करके  ससुराल  छोड़ने  जा  रहा  था.  तभी  आकाशवाणी  हुई  कि “ देवकी  और  वासुदेव  का  आठवां  पुत्र  ही  कंस  की  मौत   का  कारण  बनेगा. ”  तब  इस  आकाशवाणी   पर  भरोसा  करके  कंस  देवकी  को  ही  मार  डालना  चाहता  था,  तब  वासुदेवजी  ने  कंस  को  वचन  दिया  कि “ वे  अपनी  हर  संतान  के  जन्म  लेते  ही  उसे  कंस  को  सौंप  देंगे,  परन्तु  वे  देवकी  की  हत्या  न  करें. ”  इस  पर  विश्वास  करके  कंस  ने  देवकी  और  वासुदेव  को  कारागार  में  डाल  दिया  और  एक – एक  करके  उनकी  6  संतानों  को  मार  डाला.

सातवी  संतान  के  जन्म  लेने  से  कुछ  समय   पूर्व  भगवान  श्री  हरि  विष्णु  ने  देवी  योगमाया  की  मदद  से  देवकी  के  गर्भ  को  वासुदेवजी  की  पहली  पत्नी  रोहिणी  के  गर्भ  में  स्थापित  कर  दिया  और  यह  पुत्र  ‘बलराम’  कहलाये  और  इसके  बाद  आठवी  संतान  के  रूप  में  भगवन  विष्णु  ने  अपने  कृष्ण  अवतार   में  जन्म  लिया.  उस  रात  अचानक  सभी  सैनिक  गहरी  नींद  में  सो  गये  और  कारागार  के  द्वार  भी  अपने – आप  खुल  गये  और  वासुदेवजी  गोकुल  में  अपने  मित्र  नन्द  के  यहाँ  अपने  पुत्र  को  छोड़  आये.

इस  प्रकार  नन्द   बाबा  और  उनकी  पत्नी   यशोदा  ने  ही  भगवान  श्रीकृष्ण  का  पालन – पोषण  किया.  इस  दौरान  कंस  ने  उन्हें  मारने  के  अनेक  प्रयास  किये,  परन्तु  सब  विफल  हो  गये.  तब  कंस  ने  अपने  मंत्री  और  रिश्तेदार  अक्रूर  को  कृष्ण  और  बलराम  को  लेने  के  लिए  भेजा.  वह  अपने  राज्य  में  उत्सव  का  आयोजन  करके  इसमें  दोनों   भाइयों  को  बुलाकर  मार  डालने  की  योजना  बनाकर  बैठा  था.  जब  अक्रूरजी  कृष्ण  और  बलराम  को  लेने  गोकुल  पहुंचे  तो  कोई  भी  गोकुलवासी  नहीं  चाहता  था  कि  वे  गोकुल  छोड़  कर  जाएँ,  तब  भगवान  श्रीकृष्ण  ने  उन्हें   समझाया  कि  यह  उनके  जीवन  का  एक  महत्वपूर्ण  चरण  हैं  और   इसी  उद्देश्य  हेतु  उन्होंने  जन्म  लिया  हैं.  इस  प्रकार  समझाने  के  बाद  अक्रूर  के  साथ  वो  दोनों  भाई  कंस  के  राज्य  में  आ  गये.

श्रीकृष्ण  और  बलरामजी  के  मथुरा  पहुँचने  पर  कंस  ने  योजनानुसार  एक  मद – मस्त  और  पागल  हाथी  को  दोनों  भाइयों  पर  छोड़  दिया.  हाथी  कृष्ण  और  बलराम  की  ओर  दौड़  पड़ा  और  मार्ग  में  आने  वाली  हर  वस्तु  को  नष्ट  कर  दिया.  तब  श्री  कृष्ण  अपने  रथ  से  उतरे  और  अपनी  तलवार  से  उस  हाथी  की  सून्ड  काट   दी  और  हाथी  की  मृत्यु   हो  गयी.  इसके  बाद  वह  उस  स्थल  पर  गया,  जहाँ  उसने  अपने  कूटनीति – पूर्ण   मल्ल – युद्ध  का  आयोजन  किया  था.   यहाँ  उसने   दोनों  भाइयों  को  मल्ल – युद्ध  हेतु  ललकारा.  इस  युद्ध  में  हार  का  अर्थ  था – मृत्यु  और  इसमें  कंस  की  ओर  से  राक्षसों  के  कुशल  योध्दा  ‘ मुश्तिक  और  चाणूर ’  मल्ल  में  हिस्सा  ले  रहे  थे.  इनमे  से   मुश्तिक  पर  बलरामजी  ने  मल्ल  प्रहार  करना  प्रारंभ  किये  और  चाणूर  पर  भगवान  श्रीकृष्ण  ने  और  कुछ  ही  समय  पश्चात्  मुश्तिक  और  चाणूर  की  मृत्यु  हो  गयी.  कंस   ये  घटना  देखकर  हैरान  था,  तभी  श्रीकृष्ण  ने  कंस  को  ललकारा  कि  “ हे  कंस  मामा,  अब  आपके  पापों  घड़ा  भर  चुका  हैं  और  आपकी  मृत्यु  का  समय  आ  गया  हैं. ”  ये  सुनते  ही  वहाँ  उपस्थित  सभी  लोगों  ने  चिल्लाना  शुरू  किया  कि  कंस  को  मार  डालो,  मार  डालो  क्योंकि  वे  सब  भी  कंस  के  अत्याचारों  से  दुखी  थे.  कंस  वहाँ  से  अपनी  जान  बचाकर  भागना  चाहता  था,  परन्तु  वो  ऐसा  नही  कर  पाया.  तब  श्रीकृष्ण  ने  उस  पर  प्रहार  किये  और  उसे  अपने  अत्याचारों  की  याद  दिलाने  लगे  कि  कैसे  उसने  मासूम  बच्चों  की  हत्याएं  की,  कृष्ण  की  माता  देवकी  और  पिता  वासुदेवजी  को  बंदी  बनाकर  रखा,  उनकी  संतानों  की  हत्या  की,  अपने  स्वयं  के  पिता  महाराज  उग्रसेन  को  बंदी  बनाया  और  स्वयं  राजा  बन  बैठ,  जनता  पर  कैसे  ज़ुल्म  किये  और  उनके  साथ  अन्याय  किये.  इसके  बाद  भगवान  श्रीकृष्ण  ने  अपने  सुदर्शन  चक्र  से  कंस  के  सर  को  धड़  से  अलग  कर  दिया  और  उसका  वध  कर  दिया.

इस  प्रकार  भगवान  श्रीकृष्ण  ने  कंस  के  अन्यायों  का  दमन  करते  हुए  उसका  वध  कर  दिया.


महाभारत युद्ध के रहस्य

Mahabharat Ke Rahasya (secrets) In Hindi महाभारत हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों और पुराणों में से एक हैं. यदि महाभारत निहित विषय – वस्तु [Content] की बात करें, तो यह ईसाई धर्म ग्रंथ ‘बाइबिल’ से तीन गुना बड़ा हैं. इसमें 1 लाख से भी ज्यादा श्लोक [Verses] हैं. इन श्लोकों में कौरवों और पांडवों के बीच घटित हुई घटनाओं के साथ – साथ भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का भी वर्णन हैं. इसके अलावा इसमें नीति पूर्ण कर्तव्यों और कार्यों का वर्णन भी हैं. महाभारत के अंतर्गत भक्तिपूर्ण और दार्शनिक [Devotional & Phylosophical] बातों का भी संपूर्ण समन्वय देखने को मिलता हैं. यदि हम सीखना चाहे तो हमारे जीवन के कई महत्वपूर्ण अध्याय हम इस महाभारत नामक धर्म ग्रंथ से सीख सकते हैं. यह पुराण हमें धर्म, कर्म और ईश्वर का साक्षात्कार कराता हैं.

इस धर्म ग्रंथ के बारे में और इसमें निहित परिणाम के बारे में तो हम सभी जानते हैं, परन्तु ऐसी कई बातें हैं, जो रहस्यमयी हैं. हम ऐसा भी कह सकते हैं कि अगर ये रहस्यपूर्ण बातें घटित न हुई होती तो शायद महाभारत युद्ध का परिणाम आज कुछ और ही होता. आज कुछ ऐसी ही बातें हम आपके साथ साझा करेंगे, जो आपकी जानकारी महाभारत के प्रति बढ़ाएगी, साथ ही साथ इस महाभारत युद्ध के पात्रों का व्यक्तित्व और भी अधिक उजागर करेगी और शायद इनके प्रति आपका दृष्टिकोण भी बदल देगी.

महाभारत के महत्वपूर्ण रहस्यों में से कुछ रहस्य निम्नानुसार हैं -

  • पांच स्वर्ण तीर [Five Golden Arrows] 

महाभारत युद्ध लड़ा जा रहा था, कौरवों के पास, पांडवों की तुलना में सैन्य बल और सुविधाएँ अधिक थी, साथ ही साथ एक से बढ़ कर एक महारथी भी थे, परन्तु फिर भी युद्ध में पांडव विजय की ओर बढ़ रहे थे और कौरव सेना का नाश करते जा रहे थे. इन परिस्थितियों को देखकर जब दुर्योधन बहुत अधिक विचलित हो जाता हैं, तो अपनी सेना को मार्गदर्शन देने वाले अपने पितामह भीष्म के पास जाता हैं और उन पर ये दोषारोपण करता हैं कि वे पांडवों से अधिक प्रेम करते हैं और इसी कारण पांडवों के विरुद्ध लड़े जा रहे. इस महाभारत के युद्ध का ठीक प्रकार से संचालन नहीं कर रहे, जिससे कौरव सेना को हार का सामना करना पड़ रहा हैं. दुर्योधन की इस प्रकार की बातों और मिथ्या आरोपों को सुनकर पितामह भीष्म क्रोधित हो जाते हैं और वे अपने तुणीर [जिसमें बाणों को रखा जाता हैं] में से पांच स्वर्ण तीर निकालकर कुछ मंत्रों का उच्चारण करके उन्हें अभिमंत्रित कर देते हैं और दुर्योधन से कहते हैं कि कल वे इन्हीं 5 तीरों से पाँचों पांडवों का वध कर देंगे. इस बात से दुर्योधन कुछ आश्वस्त तो होता हैं, परन्तु पितामह भीष्म पर पूरी तरह से भरोसा नहीं कर पाता और उनसे कहता हैं कि आप ये 5 स्वर्ण तीर मुझे दे दीजिये, आज संपूर्ण रात्रि ये मेरी सुरक्षा में रहेंगे और कल प्रातःकाल जब आप युद्ध के लिए प्रस्थान करेंगे तो उस समय मैं ये 5 तीर आपको पांडवों का वध करने के लिए दे दूंगा.

शिक्षा –: ये घटना पितामह भीष्म की कर्तव्य निष्ठा का बोध कराती हैं और हमें यह सीख देती हैं कि हमें अपने प्रेम और मोह, आदि की भावना से ऊपर उठकर सर्वप्रथम अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए.

  • दुर्योधन द्वारा अर्जुन को वरदान देना [Duryodhana told Arjuna to ask for a Boon] 

महाभारत युद्ध प्रारंभ होने के पूर्व सभी पांडव वन में निवास कर रहे थे. पांडवों के निवास स्थान पर एक सरोवर [Pond] था, इसके सामने ही दुर्योधन भी अपने निवास के लिए शिविर [Camp] लगाता हैं. जब दुर्योधन सरोवर से स्नान करके निवृत होता हैं, तो वहाँ अचानक ही स्वर्ग से गंधर्व प्रकट हो जाते हैं और किसी कारणवश उन गंधर्व राजकुमार और दुर्योधन के बीच युद्ध होता हैं और दुर्योधन इस युद्ध में परास्त हो जाता हैं. गंधर्व राजकुमार द्वारा दुर्योधन को बंदी बना लिया जाता हैं. तब पांडु पुत्र अर्जुन गंधर्व राजकुमार से युद्ध करता हैं और उन्हें परास्त करके दुर्योधन को मुक्त कराता हैं. इस पर दुर्योधन बहुत लज्जित होते हैं और अर्जुन के प्रति अपनी कृतज्ञता भी व्यक्त करते हैं और इसी के साथ दुर्योधन अर्जुन को वरदान माँगने को कहते हैं. इस पर अर्जुन कहते हैं कि वे समय आने पर अवश्य ही कोई वरदान माँग लेंगे.

  • अर्जुन द्वारा दुर्योधन से वरदान की माँग [Arjuna asked for his Boon] 

यह घटना उस समय की हैं, जिस रात्रि में पितामह भीष्म ने 5 स्वर्ण तीरों को कुछ मंत्रों का उच्चारण करके अभिमंत्रित किया था और दुर्योधन ने सुरक्षा के दृष्टिकोण से उन तीरों को अपने पास रख लिया था.

भगवान श्रीकृष्ण को अपने गुप्तचरों द्वारा इस बात का पता चल जाता हैं और तब वे पांडवों की सुरक्षा के लिए अर्जुन को उस वरदान की याद दिलाते हैं, जो दुर्योधन के प्राण बचाने पर उसने माँगने के लिए कहा था और अर्जुन ने ये कहा था कि वे उचित समय आने पर अपना वरदान दुर्योधन से माँग लेंगे.

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा इस बात को याद दिलाने पर अर्जुन उसी समय दुर्योधन के पास जाते हैं और अपने उस वरदान का स्मरण कराते हैं और वरदान स्वरुप उन 5 अभिमंत्रित स्वर्ण तीरों को मांगते हैं. अर्जुन की ये बात सुनकर दुर्योधन हतप्रभ रह जाते हैं, परन्तु अपने वचन के कारण और क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए वे ये अभिमन्त्रित 5 स्वर्ण तीर अर्जुन को वरदान स्वरुप दे देते हैं. इस प्रकार पांडवों के प्राणों की रक्षा होती हैं.

इस प्रकार उन तीरों को अर्जुन को देने के पश्चात् दुर्योधन पितामह भीष्म के पास जाते हैं और फिर से तीरों को अभिमंत्रित करने का आग्रह करते हैं, परन्तु पितामह भीष्म इसमें अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं और तीरों को दोबारा अभिमंत्रित नहीं कर पाते.

  • सहदेव द्वारा अपने पिता पांडु का मस्तिष्क खाना [Sahdeva ate his father’s brain]

ऐसा कहा जाता हैं कि जब पांडवों के पिता महाराज पांडु की मृत्यु होने वाली थी, तो उन्होंने अपने पुत्रों से उनका मस्तिष्क खाने को कहा ताकि उनके पास जो भी ज्ञान हैं, वो किसी एक पुत्र को तो प्राप्त हो. परन्तु इस बात पर सहदेव के अलावा किसी भी पांडु पुत्र का ध्यान नहीं जाता हैं और फिर पांडु पुत्र सहदेव अपने पिता पांडु का मस्तिष्क खाते हैं. जैसे ही वे मस्तिष्क का पहला निवाला [Bite] ग्रहण करते हैं, उन्हें इस बात का पता चलता हैं कि ब्रह्मांड में क्या – क्या घटनाएँ घटित हो रही हैं, दूसरे निवाले को ग्रहण करने पर वे वर्तमान का ज्ञान प्राप्त होता हैं और तीसरे निवाले के साथ वे भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के बारे में जान लेते हैं.

  • दुर्योधन द्वारा सहदेव से सहायता माँगना [Duryodhan approached Sahdeva for help]

पांडु पुत्र सहदेव, जिसने अपने पिता का मस्तिष्क खाया था, उसे न केवल भविष्य देखने की शक्ति प्राप्त थी, बल्कि ज्योतिष विज्ञान [Astrology] में भी बहुत महारत प्राप्त थी. इस कारण शकुनि, दुर्योधन को सहदेव के पास जाकर युद्ध प्रारंभ करने का शुभ मुहूर्त जानने को कहते हैं, ताकि इस युद्ध में कौरवों की विजय सुनिश्चित हो जाये. हालाँकि ये बात पांडवों के लिए अच्छी नहीं थी, फिर भी सहदेव दुर्योधन को मुहूर्त के बारे में संपूर्ण जानकारी देते हैं.

  • भगवान बलराम अभिमन्यु के ससुर थे [Balram was Abhimanyu’s Father in law]

अभिमन्यु की पत्नि वत्सला भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई भगवान बलराम की पुत्री थी. भगवान बलराम अपनी पुत्री का विवाह उनके शिष्य कौरव राजकुमार दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण से कराना चाहते थे. परन्तु अभिमन्यु और वत्सला एक – दूसरे से प्रेम करते थे और विवाह करना चाहते थे. इसलिए वे पांडु पुत्र भीम के पुत्र घटोत्कच की सहायता से लक्ष्मण को भयभीत कर देते हैं और परस्पर विवाह कर लेते हैं. इस प्रकार भगवान बलराम अभिमन्यु के ससुर बनते हैं

  • अर्जुन पुत्र इरावन का बलिदान और उसकी अंतिम इच्छा [Arjun’s Son Iravan sacrificed himselfand his last wish]

ये प्रसंग बहुत ही अद्भुत हैं और यदि इसे अकल्पनीय भी कहा जाये, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. इस प्रसंग से हमें यह पता चलता हैं कि अगर इरादे नेक हो तो भगवान अपने भक्त के लिए असंभव को भी संभव कर देते हैं, भक्त की हर इच्छा पूरी करते हैं और उसे तृप्त कर देते हैं.

प्रसंग कुछ इस प्रकार हैं 

महाभारत का युद्ध पांडव ही जीते, इसके लिए अर्जुन के पुत्र इरावन ने माँ काली को अपने प्राणों की बलि दी थी. परन्तु उसकी अंतिम इच्छा थी कि मृत्यु से पूर्व उसका विवाह हो जाये. तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मोहिनी रूप धारण किया और इरावन से विवाह करके उसकी अंतिम इच्छा पूर्ण की थी और जब इरावन ने अपने प्राणों की बलि दी तो उसकी मृत्यु पर भगवान श्रीकृष्ण अपने मोहिनी स्वरुप में एक विधवा की भांति रोये थे.

  • धृतराष्ट्र और दासी का पुत्र [Dhrutrashtra had a son from a Maid]

धृतराष्ट्र की पत्नि गांधारी को जब गर्भ धारण किये हुए 10 माह से भी अधिक हो जाते हैं, परन्तु संतान का जन्म नहीं होता तो इस बात से धृतराष्ट्र, गांधारी पर बहुत क्रोधित होता हैं कि वह उसे संतान का सुख नहीं दे पा रही हैं और तब गांधारी को पीड़ा एवं दुःख पहुँचाने के लिए गांधारी की दासी सौवली को बुलाता हैं और उससे संतान प्राप्त करता हैं और इस प्रकार धृतराष्ट्र और दासी सौवली का पुत्र ‘युयुत्सु’ का जन्म होता हैं. 

  • महाराज उडुपी द्वारा कुरुक्षेत्र के योद्धाओं को भोजन कराना [King Udupi fed the Kurukshetra warriors]

महाभारत युद्ध जब लड़ा जाने वाला था, तो सभी धर्म और अधर्म की बातें करने में व्यस्त थे. चारों ओर नैतिक और अनैतिक की बहस छिड़ी हुई थी. सभी की बातों और विचारों से तो प्रजा की भलाई की बात सामने आती थी. परन्तु कोई भी इस हेतु कार्यरत नहीं था. बस यही कहा जा रहा था कि धर्म की अधर्म पर विजय होगी तो मानवता अपने – आप ही अस्तित्व में आ जाएगी. परन्तु ऐसे समय में भी एक मनुष्य ऐसा था, जो न धर्म की ओर से लड़ा और न ही अधर्म की ओर से, उस व्यक्ति ने केवल अपना मानव धर्म निभाया और इस युद्ध के दौरान मानवता पूर्ण कार्यभार संभाला, वे व्यक्ति थे -: महाराज उडुपी

प्रसंग कुछ इस प्रकार हैं ​

जब महाभारत युद्ध लड़ा जाने वाला था, तो सभी राजाओं ने युद्ध में भाग लिया. कुछ राजा पांडवों की ओर से युद्ध कर रहे थे, तो कुछ राजा कौरवों के सहयोगी बने. परन्तु राजा उडुपी ने युद्ध में भाग नहीं लिया. तब वे भगवान श्रीकृष्ण से मिले और कहा कि “जो भी योद्धा इस युद्ध में लड़ेंगे, उन्हें भोजन, आदि की आवश्यकता तो पड़ेगी ही, तो मैं उन योद्धाओं को भोजन कराऊंगा”. भगवान उनकी इस इच्छा पर सहमत हो गये.”

महाभारत का युद्ध 18 दिन तक चला और प्रतिदिन ही हजारों लाखों योद्धा, सैनिक मारे जाते थे. जैसे – जैसे सैनिक कम होते जाते थे, महाराज उडुपी भी कम भोजन बनाते थे, ताकि भोजन का नुकसान न हो.

  • जीवन के अंतिम क्षणों में भी कर्ण की दानवीरता और महानता के दर्शन [Karna showed his greatness even in his last moments] 

महाभारत युद्ध में जब अर्जुन कर्ण का वध कर देते हैं, तो कर्ण भूमि पर गिर जाते हैं और अपनी अंतिम सांसे लेते हैं. तब भगवान श्रीकृष्ण महारथी कर्ण की अंतिम परीक्षा लेने का निश्चय करते हैं और ब्राह्मण का वेश धारण करके महारथी कर्ण के समक्ष जाते हैं और उनसे स्वर्ण का दान मांगते हैं. तब कर्ण उस ब्राह्मण वेशधारी भगवान श्रीकृष्ण से अपना मुँह खोलकर दिखाते हुए कहते हैं कि हे ब्राह्मण देवता, आप मेरे इन सोने के दांतों को तोड़कर स्वर्ण प्राप्त कीजिये. तब ब्राह्मण देवता कहते हैं कि यह तो बहुत ही दुष्टतापूर्ण और पाप का कार्य हैं, मैं ऐसा नहीं कर सकता. तब महारथी कर्ण युद्ध भूमि में पड़े एक पत्थर से अपने दांत तोड़कर उन्हें देते हैं. इस पर भी ब्राह्मण वेशधारी भगवान श्रीकृष्ण पुनः उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से कहते हैं कि ये दांत तो रक्त से भरे हुए हैं, अशुद्ध हैं, वे इसे ग्रहण नहीं कर सकते. तब बुरी तरह घायल कर्ण, जो बड़ी ही मुश्किल से हिल पा रहे थे, अपना धनुष बाण उठाते हैं और आसमान की ओर निशाना साधते हैं और बाण चलाते हैं और वर्षा होने लगती हैं, तब इस वर्षा के पानी से वे अपने दांतों को धोकर, पूरी तरह से शुद्ध करके ब्राह्मण देवता को अपने स्वर्ण दांतों का दान करते हैं.


भीम और हिडिम्बा के विवाह की कथा और घटोत्कच का बलिदान |

महाभारत काल के समय की घटनाओं का यदि विश्लेषण किया जाये, तो हमें पता चलता है कि हर घटना के घटित होने का कोई न कोई कारण अवश्य होता हैं. इसके कई उदाहरण मिल जाएँगे, जैसे – कुरु कुल के महाराज पांडु की पत्नि कुन्ति को महर्षि दुर्वासा द्वारा एक मंत्र वरदान स्वरुप दिया गया था, जिसके उच्चारण से वे किसी भी देवता का आव्हान करके उसी देव के समान पुत्र की प्राप्ति कर सकती थी. उस समय ये किसे पता था कि भविष्य में उनका विवाह महाराज पांडु से होगा और उन्हें एक ऋषि द्वारा दिए गये श्राप के कारण वे संतान प्राप्ति में असक्षम होंगे और इस प्रकार उन्हें मिला यह वरदान उनके भविष्य में हुई महत्वपूर्ण घटनाओं का कारण बना.

ऐसा केवल मनुष्यों के साथ ही नहीं होता, बल्कि इन भूत और भविष्य की घटनाओं के संबंध से स्वयं ईश्वर तक अछूते नहीं हैं. एक बार भगवान श्रीहरि विष्णु ने एक बार हंसी ठिठोली करते हुए, देवर्षि नारद का चेहरा वानर [बंदर] का बना दिया और इस कारण देवर्षि नारद ने क्रोध के वशीभूत होकर भगवान श्रीहरि विष्णु को श्राप दे दिया कि वे भी जब मानव अवतार लेंगे, तो जिस वानर रूप की उन्होंने हंसी उड़ाई हैं, उन्हें इन्हीं वानरों से सहायता लेनी होगी और देखिये ऐसा हुआ भी, जब भगवान श्रीहरि विष्णु ने राम अवतार लिया, तब उनकी सहायता वानर सेना के वानरों ने ही की थी. भूतकाल में मिला श्राप आगे चलकर भविष्य में भगवान के लिए भी वरदान में बदल गया.

इन्हीं कारणों से कहा भी जाता हैं कि जो होता हैं, अच्छे के लिए ही होता हैं.

इसी प्रकार की एक घटना घटित हुई थी, महाभारत काल में. यह घटना घटित हुई थी -: कुरु कुल के महाराज पांडु और महारानी कुन्ति के द्वितीय पुत्र अति बलशाली भीम और राक्षसों के राजा हिडिम्ब की बहन हिडिम्बा के साथ. इनका विवाह होने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था क्योंकि भीम मनुष्य थे और हिडिम्बा राक्षस प्रजाति से संबंध रखती थी. परन्तु परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनी कि इनका विवाह हो गया और केवल यहीं नहीं, इनका पुत्र, जिसका नाम घटोत्कच था, उसके द्वारा महाभारत युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका भी अदा की गयी.

पांडु पुत्र भीम और राक्षसी हिडिम्बा के विवाह की कथा [Story of Bheem & Hidimbaa Marriage]

महाराज धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन, शकुनि और अन्य कौरवों ने मिलकर पांडवों की हत्या करने के लिए षड्यंत्र रचा था और इस षड्यंत्र के अंतर्गत उन सभी ने मिलकर लाख और मांस, आदि से जो लाक्षागृह बनाया था, उसमें कौरवों ने आग लगा दी और इस लाक्षागृह की आग से पांडव जैसे – तैसे बचकर निकले थे. यहाँ से बचकर वे गुप्त मार्ग से निकलकर जंगल में प्रवेश कर गये. इस जंगल में भटकते हुए जब वे लाक्षागृह और कौरवों के राज्य की सीमा से बहुत दूर निकल गये और स्वयं को सुरक्षित महसूस करने लगे, तो उन्होंने कुछ देर जंगल में ही विश्राम करने का निर्णय लिया.

मायावी वन में प्रवेश और भीम एवं हिडिम्बा का प्रथम मिलन [Entered in a magical forest and First meeting of Bheem & Hidimbaa]

वन में भटकते – भटकते रात हो गयी और महारानी कुन्ति और सभी पांडव रात होने पर जंगल में ही सो गये, परन्तु सभी की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए, पांडु पुत्र भीम जागकर पहरा देने लगे. जिस जंगल में महारानी कुन्ति और सभी पांडव प्रवेश कर गये थे और विश्राम कर रहे थे, वह एक मायावी वन[magical forest] था. इस वन में राक्षसों का राज था और राक्षसों के राजा हिडिम्ब ने इस पूरे वन में अपनी माया का जाल बिछा रखा था. ये सभी राक्षस नर भक्षी थे अर्थात् वे भोजन के रूप में मनुष्यों को खाते थे. राक्षसों के राजा हिडिम्ब ने मनुष्य की गंध महसूस कर ली थी और अब वो सभी पांडवों को अपना और अपनी राक्षस प्रजाति का भोजन बनना चाहता था. इसके लिए राक्षसों के राजा हिडिम्ब ने अपनी बहन राक्षसी हिडिम्बा को बुलाया और उसे उन सभी मनुष्यों को अपने निवास स्थान तक लाने का काम सौंपा. अपने भाई राक्षसराज हिडिम्ब का आदेश पाकर, राक्षसी हिडिम्बा इस कार्य को पूर्ण करने के लिए सभी पांडवों को ढूंढकर लाने के लिए निकल पड़ी. जब राक्षसी हिडिम्बा ने पांडवों के निकट पहुँची, तो उसने देखा कि अन्य सभी पांडव तो विश्राम कर रहे थे, परन्तु उनमें से एक जागकर पहरा दे रहा था, वे पांडु पुत्र भीम थे. राक्षसी हिडिम्बा भीम को देखते ही उन पर मुग्ध हो गयी और उनसे प्रेम करने लगी.

जैसे ही राक्षसी हिडिम्बा ने भीम को देखा तो वे उनसे प्रेम करने लगी और सुन्दर सा रूप धारण कर, उनके समीप जाकर उनसे विवाह करने की बात रखी और इसी के साथ वे अपने असली रूप में आ गयी, अपना परिचय दिया और उन्हें अपने भाई राक्षस हिडिम्ब की सभी पांडवों को खा जाने की योजना के बारे में भी बताया. भीम को इस बात पर क्रोध आ गया और वे माता कुन्ति तथा अन्य सभी भाइयों के साथ राक्षसों के निवास स्थान तक जा पहुँचें.

पांडु पुत्र भीम और राक्षसराज हिडिम्ब के मध्य युद्ध [Fight between Bheem and Demon King Hidimb]

माता कुन्ति के साथ सभी पांडवों के राक्षसों के निवास स्थान पहुँचने पर, हिडिम्ब बहुत खुश हुआ कि उसकी बहन हिडिम्बा भोजन स्वरुप सभी मनुष्यों को लेकर आ गयी थी, परन्तु जैसे ही उसे ये पता चला कि हिडिम्बा भीम से प्रेम करने लगी, उससे विवाह करना चाहती हैं और साथ ही साथ सभी पांडवों और माता कुन्ति को अपना भोजन न बनाने के लिए प्रार्थना करती हैं तो हिडिम्ब क्रोधित हो गया और भीम को युद्ध की लिए ललकारा. तब भीम और हिडिम्ब के बीच भयानक युद्ध होता हैं. जिसमें भीम तो बलशाली थे ही, परन्तु राक्षसराज हिडिम्ब भी बहुत बलशाली था. इस युद्ध में भीम द्वारा राक्षसराज हिडिम्ब का वध कर दिया जाता हैं और इस प्रकार भीम विजयी घोषित होते हैं. इस समय भीम इतने क्रोध में थे कि वे राक्षसी हिडिम्बा को भी मार देना चाहते थे. उनका ऐसा करने के पीछे यह विचार था कि अपने भाई हिडिम्ब के वध का बदला लेने के लिए कहीं हिडिम्बा उन सभी पांडवों और माता कुन्ति को कोई हानि न पहुंचाएं. परन्तु ज्येष्ठ पांडु पुत्र युधिष्ठिर के समझाने पर भीम का क्रोध शांत हुआ और उन्होंने राक्षसी हिडिम्बा को छोड़ दिया.

राक्षसी हिडिम्बा का विवाह प्रस्ताव [Marriage proposal by Demon Hidimbaa]

राक्षसों की एक परंपरा के अनुसार, जो व्यक्ति राक्षसों के राजा को मारता हैं, उसका विवाह उस राक्षसराज की बहन या बेटी से किया जाता हैं और वही व्यक्ति राक्षसों का राजा भी नियुक्त किया जाता हैं. ऐसी बात जब माता कुन्ति और पांडवों को बताई गयी और भीम और हिडिम्बा के विवाह का प्रस्ताव रखा गया, तो माता कुन्ति और भीम ने इसे अस्वीकार कर दिया. इस विवाह को अस्वीकार करने के पीछे यह कारण था कि हिडिम्बा और भीम, दोनों ही अलग – अलग प्रजातियों से संबंध रखते थे, एक मनुष्य था, तो दूसरी राक्षसी. इसी के साथ दूसरा कारण ये था कि माता कुन्ति के साथ सभी पांडवों ने अपने वनवास का कारण बताया और इस प्रकार विवाह करके उस स्थान पर रुक जाने में अपनी असमर्थता जताई. तब हिडिम्बा ने माता कुन्ति को ये विश्वास दिलाया और वचन दिया कि उन दोनों की प्रजातियों के भिन्न होने के कारण किसी भी पांडव को कोई मुश्किल नहीं होगी और जैसे ही हिडिम्बा को एक संतान की प्राप्ति हो जाएगी, वैसे ही आप सभी इस स्थान को छोड़कर चले जाना. हिडिम्बा के इस वचन को सुनकर और उसके सच्चे प्रेम को देखकर माता कुन्ति ने भीम और हिडिम्बा के विवाह के प्रस्ताव को मान लिया और इस प्रकार उन दोनों का विवाह राक्षसी रीति – रिवाजों के साथ संपन्न कराया गया.

राक्षसी हिडिम्बा और पांडु पुत्र भीम को संतान प्राप्ति [Birth of Bheem & Hidimbaa’s Child]

हिडिम्बा और भीम के विवाह के साथ ही साथ भीम को राक्षसों का नया राजा भी घोषित किया गया. इस प्रकार समय बीतता रहा और एक ही वर्ष में हिडिम्बा और भीम के घर पुत्र का जन्म हुआ. जिस बालक का जन्म हुआ था, उसका सिर घड़े की भांति चमक रहा था, इसलिए भीम ने उसका नाम “घटोत्कच” रखा. अब समय था, जब हिडिम्बा को अपने वचन का पालन करना था और भीम सहित सभी पांडवों तथा माता कुन्ति को उस स्थान को छोड़कर जाने का समय आ गया था. इस समय भीम ने अपने पुत्र घटोत्कच को राक्षसों का नया राजा नियुक्त किया और अपने परिवार से विदा ली. विदा लेते समय घटोत्कच द्वारा भीम को वचन दिया जाता हैं कि जब भी भीम उसका नाम [घटोत्कच का नाम] 3 बार पुकारेंगे, तब वह उनके समक्ष उपस्थित हो जाएगा.

घटोत्कच का बलिदान [Ghatotkach Story]

महाभारत युद्ध के समय जब भगवान इंद्र छलपूर्वक महारथी कर्ण से उनके कवच और कुंडल का दान प्राप्त करते हैं और महारथी कर्ण सारी सच्चाई जानते हुए, भी अपने दानी आचरण का पालन करते हुए, बिना अपने प्राणों की परवाह किये, उन्हें कवच और कुंडल दान कर देते हैं तो भगवान इंद्र बहुत खुश होते हैं और महारथी कर्ण को वरदान स्वरुप एक दिव्य अस्त्र प्रदान करते हैं, जिसका वार कभी खाली नहीं जाता, परन्तु महारथी कर्ण द्वारा इस दिव्यास्त्र का एक ही बार उपयोग किया जा सकता हैं

जिस दिन महारथी कर्ण द्वारा पांडु पुत्र अर्जुन को मारने की योजना बनाई जाती हैं, तो इसका पता भगवान श्रीकृष्ण को चल जाता हैं और वे समझ जाते हैं कि महारथी कर्ण उस दिव्यास्त्र का प्रयोग अर्जुन के प्राण लेने में करेंगे, तब वे इसका उपाय ढूंढते हैं. भगवान श्रीकृष्ण भीम को अपने पुत्र घटोत्कच को युद्ध में सहायता करने के लिए बुलाने को कहते हैं और भीम अपनी हारती हुई सेना को बचाने के लिए घटोत्कच का आव्हान करते हैं. भीम द्वारा घटोत्कच का नाम जैसे ही 3 बार पुकारा जाता हैं, वैसे ही घटोत्कच अपने पिता भीम के सामने प्रकट हो जाता हैं. तब भीम, आदि उसे युद्ध में उन पर आये संकट के बारे में बताते हैं और उससे सहायता करने के लिए कहते हैं. तब घटोत्कच युद्ध भूमि में पहुँच कर कौरवों की सेना को ख़त्म करने लगता हैं और चूँकि वह राक्षस हैं तो मनुष्यों का कोई भी अस्त्र – शस्त्र उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता. घटोत्कच के युद्ध भूमि में आने से कौरवों को अपनी विजय, पराजय में बदलती हुई प्रतीत होती हैं और वे उसके विनाश से भयभीत हो जाते हैं. इस सभी परिस्थितियों को देखते हुए दुर्योधन अपने मित्र महारथी कर्ण से भगवान इंद्र द्वारा वरदान स्वरुप दिए गये दिव्य अस्त्र का घटोत्कच पर प्रयोग करने के लिए विवश करते हैं और महारथी कर्ण को ना चाहते हुए भी उस दिव्य अस्त्र का प्रयोग घटोत्कच पर करना पड़ता हैं और इस प्रकार भीम का पुत्र घटोत्कच युद्ध में वीरगति को प्राप्त करते हुए भूमि पर धराशायी हो जाता हैं.

इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की योजनानुसार घटोत्कच, अपने काका अर्जुन के प्राणों की रक्षा के लिए स्वयं के प्राणों का बलिदान दे देता हैं


महाभारत में द्रोपदी का स्वयंवर

Mahabharat Draupadi Swayamvar In Hindi द्रोपदी, हिन्दू पौराणिक कथा महाभारत की एक बहुत ही प्रमुख पात्र हैं. महाभारत की कथा के अनुसार द्रोपदी का जन्म क्षत्रियों के संहार और कौरवों के विनाश के लिए हुआ था. द्रोपदी, पंचाल के राजा द्रुपद की पुत्री थी, जिनका जन्म अग्निकुण्ड से हुआ. द्रोपदी बहुत ही सुन्दर राजकुमारी थी. इनके पिता राजा द्रुपद अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन से कराना चाहते थे, किन्तु उस समय उन्हें यह समाचार प्राप्त हुआ था, कि पांडवों की मृत्यु हो चुकी है. राजा द्रुपद अपनी पुत्री के लिए एक महान पराक्रमी वर चाहते थे इसलिए उन्होंने द्रोपदी के स्वयंवर का आयोजन किया और उसमें एक शर्त भी रखी

द्रोपदी का परिचय

नाम द्रोपदी
अन्य नाम पांचाली, कृष्णा, यज्ञसेनी, दृपदकन्या, सैरंध्री, महाभारती, पर्षती, नित्ययुवनी, मालिनी एवं योजनगंधा
जन्म स्थल पांचाल
पिता पांचाल नरेश द्रुपद
माता प्रस्हती
पति युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव
पुत्र प्रतिविन्ध्य, सुतासोमा, स्रुताकर्मा, सतानिका, स्रुतासेना
भाई धृष्टद्युमन
बहन शिखंडी
राजवंश कुरुवंश

 

द्रोपदी, पांचाल के राजा द्रुपद की पुत्री थी, जोकि यज्ञकुंड से जन्मी थी. इसलिए इनका नाम यज्ञसेनी भी था. पांचाल के राजा द्रुपद और गुरु द्रोणाचार्य बहुत ही अच्छे मित्र थे, किन्तु किसी वजह से उनमें शत्रुता हो गई. गुरु द्रोणाचार्य से बदला लेने के लिए राजा द्रुपद ने एक यज्ञ का आयोजन किया. उस यज्ञकुंड से उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई. उसी समय उसी यज्ञकुंड में से एक कन्या उत्पन्न हुई जोकि बहुत सुंदर थी. चूँकि वह उसी यज्ञकुंड से उत्पन्न हुई थी इसलिए वह राजा द्रुपद की ही पुत्री कहलाई. जिस समय वह कन्या उत्पन्न हुई तब आकाशवाणी हुई थी कि इस कन्या का जन्म क्षत्रियों के संहार एवं कौरवों के विनाश के लिए हुआ है. राजा द्रुपद ने अपने पुत्र का नाम धृष्टद्युम्न तथा पुत्री का नाम द्रोपदी रखा. द्रोपदी बहुत ही रूपवान थी. किन्तु इनका रंग श्यामल था इसलिए इन्हें कृष्णा भी कहा जाता है.

द्रोपदी पिछले जन्म में किसी ऋषि की पुत्री थी एवं सर्वगुण संपन्न पति की इच्छा से उन्होंने तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया था. द्रोपदी ने भगवान शिव से ऐसे पति की कामना की जिनमें पांच गुण हों, जिस वजह से भगवान शिव ने उन्हें यह वरदान दिया था कि अगले जन्म में उन्हें 5 पतियों की प्राप्ति होगी और हर एक पति में एक गुण होगा. द्रोपदी पांचाल राज्य की राजकुमारी थी इसलिए इन्हें पांचाली भी कहा जाता है. इसके अलावा द्रोपदी को दृपदकन्या, सैरंध्री, पर्षती, महाभारती, नित्ययुवनी, मालिनी एवं योजनगंधा भी कहा जाता है. द्रोपदी के स्वयंवर को पांडू पुत्र अर्जुन ने जीता किन्तु माता कुंती के आदेश के कारण वे पाँचों पांडवों की पत्नी कहलाई. द्रोपदी को पाँचों पांडवों से एक – एक पुत्र की प्राप्ति हुई. जोकि प्रतिविन्ध्य, सुतासोमा, स्रुताकर्मा, सतानिका, स्रुतासेना थे. किन्तु महाभारत के युद्ध के दौरान उन सभी पुत्रों की मृत्यु हो जाती है.

द्रोपदी का स्वयंवर –

पांचाल के राजा द्रुपद अपनी पुत्री द्रोपदी का विवाह एक महान पराक्रमी राजकुमार से कराना चाहते थे. पांडू पुत्र अर्जुन सर्वश्रेठ धनुर्धारी थे और राजा द्रुपद अपनी पुत्री का विवाह उन्ही से कराना चाहते थे, किन्तु उन्हें यह खबर मिली कि पांडू पुत्रों की मृत्यु हो चुकी है. उन्होंने सोचा की वे द्रोपदी के लिए योग्य वर की तलाश कैसे करेंगे. फिर उन्होंने इसके लिए पांचाल कोर्ट में ही द्रोपदी के स्वयंवर का आयोजन किया और उसकी एक शर्त भी रखी. कोर्ट के केंद्र में एक खंबा खड़ा किया हुआ था, जिस पर एक गोल चक्र लगा हुआ था. उस गोल चक्र में एक लकड़ी की मछली फंसी हुई थी जोकि एक तीव्र वेग से घूम रही थी. उस खम्बे के नीचे पानी से भरा हुआ पात्र रखा था. धनुष बाण की मदद से उस पानी से भरे पात्र में मछली का प्रतिबिम्ब देखकर उसकी आँख में निशाना लगाना था. उन्होंने कहा कि जो भी राजकुमार मछली पर सही निशाना लगेगा उसका विवाह द्रोपदी के साथ होगा.

राजा द्रुपद ने अपनी पुत्री के स्वयंवर के लिए सारी तैयारी कर रखी थी. उन्होंने देश के कई महान राजाओ और उनके राजकुमारों को आमंत्रित किया था. सभी स्वयंवर के लिए पांचाल कोर्ट में प्रवेश करते हैं. पांडव उस समय वन में ब्राम्हणों की तरह रहते थे उनकी बढ़ी हुई दाड़ी थी और वेश भी ब्राम्हणों का धारण किये हुए थे. द्रोपदी के स्वयंवर का समाचार जब पांड्वो को मिला तब वे भी पांचाल कोर्ट में प्रवेश करते है. दुर्योधन, कर्ण और श्रीकृष्ण भी स्वयंवर में प्रवेश करते हैं. द्रोपदी अपने भाई धृष्टद्युम्न के साथ हाथी पर सवार होकर कोर्ट में प्रवेश करती है. वे बहुत ही सुंदर लग रहीं थीं. राजभवन में उपस्थित सभी राजकुमार उनके सौन्दर्य को देखकर बहुत प्रभावित हुए. सभी में इस प्रतियोगिता को जीत कर द्रोपदी से विवाह करने की इच्छा उत्पन्न हो गई. द्रोपदी को देखते ही सभी राजा उनसे विवाह करने की इच्छा से अपना – अपना पराक्रम दिखाते है किन्तु इस बहुत ही मुश्किल टास्क में वे सभी एक – एक कर पराजित होते जाते है.

कर्ण, दुर्योधन के खास मित्र थे इसलिए वे दुर्योधन के साथ द्रोपदी के स्वयंवर में शामिल हुए थे. वे भी अपने पराक्रम को दिखाने के लिए सामने आते है

किन्तु द्रोपदी उन्हें रोकते हुए कहती है कि – “मैं एक सारथी के बेटे से विवाह नहीं करुँगी”

कर्ण को अपना यह अपमान सहन नहीं होता है और वे इस वजह से स्वयंवर छोड़ कर चले जाते हैं. देखते ही देखते बहुत से राजा पराजित हो जाते है. यह देखकर राजा द्रुपद अत्यंत दुखी होते है कि उनकी पुत्री से विवाह करने योग्य कोई भी पराक्रमी पुरुष यहाँ उपस्थित नहीं है. तभी अर्जुन ब्राम्हणों के वेश में उस टास्क को करने पहुँचते हैं. कोई भी उन्हें पहचान नहीं पाता है. वहाँ उपस्थित सभी राजकुमार इस बात का विरोध करते है कि एक ब्राम्हण इस प्रतियोगिता का हिस्सा कैसे बन सकता है. किन्तु उस ब्राम्हण के आत्मविश्वास को देखते हुए किसी के कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती है. अर्जुन ने बहुत ही आसानी से लक्ष्य को भेद कर उस टास्क को पूरा कर दिया. द्रोपदी यह देखकर बहुत प्रसन्न हुई और वरमाला जाकर सीधे अर्जुन के गले में डाल दी.

सभी राजकुमार अर्जुन से जलते हैं और उस पर आक्रमण करते हैं, तभी पांडू पुत्र भीम अर्जुन को उनसे बचाने के लिए सामने आते हैं. भीम और अर्जुन सहित पाँचों पांडव उन सभी राजकुमारों को आसानी से पराजित करते हुए द्रोपदी को लेकर वहाँ से चले जाते हैं. द्रोपदी का भाई धृष्टद्युम्न यह जानने के लिए कि वे ब्राम्हण कौन हैं, उनका पीछा करते हैं.

जब पांडव अपनी कुटिया पहुँचते हैं. तब वे अपनी माता कुंती से कहते हैं कि – “देखिये, माता हम क्या ले कर आये हैं”,

कुंती उनसे कहती है कि – “जो भी लाये हो आपस में बाँट लो”. क्यूकि कुंती सोचती है कि वे लोग कुछ खाने की चीज लाये हैं.

जब वे देखती हैं कि यह तो एक दुल्हन है जोकि अर्जुन की पत्नी है. कुंती बहुत ही दुखी होतीं हैं कि उन्होंने यह क्या कह दिया. कस्टम के अनुसार पांडवों को अपनी माता के हर एक शब्द जो भी उन्होंने कहा, उनकी आज्ञा मान कर उसका पालन करना होगा. द्रोपदी पाँचों भाइयों की पत्नी कहलायेगी. तभी श्रीकृष्ण वहाँ आते हैं और माता कुंती से कहते है कि –“द्रोपदी ने पिछले जन्म में सर्वगुण संपन्न पति पाने के लिए भगवान शिव की तपस्या की थी, और उसने वरदान में 5 गुणों से युक्त पति की कामना की थी. तब भगवान शिव ने उसे वरदान दिया था कि अगले जन्म में उसे पांच पतियों की प्राप्ति होगी और हर एक पति में एक गुण होगा”. श्रीकृष्ण की बात सुनकर कुंती उनसे सहमत हुईं और इस तरह द्रोपदी पाँचों पांडवों की पत्नी कहलाने लगी.

धृष्टद्युम्न, जोकि पांडवों का पीछा कर रहा था उसने यह सब देखा, और अपने पिता के पास जाकर उनसे कहा –“पिताश्री ! मैं आपके लिए एक खुशख़बर लाया हूँ, वह पराक्रमी ब्राम्हण जिसने द्रोपदी के साथ विवाह किया वह कोई और नहीं बल्कि पांडू पुत्र अर्जुन ही है”. राजा द्रुपद यह सुनकर बहुत खुश हुए. लेकिन जब धृष्टद्युम्न ने अपने पिता को यह बताया कि द्रोपदी पाँचों पांडवों की पत्नी है तो यह सुनकर राजा द्रुपद बहुत दुखी हुए क्यूकि यह कानून के खिलाफ था. उस समय ऋषि व्यास वहाँ आये, उन्होंने राजा द्रुपद से कहा – “हालांकि इस तरह के विवाह की पवित्र ग्रंथों में अनुमति नहीं है किन्तु यह एक विशेष विवाह है जोकि स्वयं भगवान शिव का वरदान है जो द्रोपदी को मिला है तो यह कानून के खिलाफ नहीं है

राजा द्रुपद ऋषि व्यास की बातों से सहमत होते है और अपनी पुत्री के विवाह का आयोजन करवाते हैं. पाँचों पांडव अपनी माता कुंती के साथ राजभवन में प्रवेश करते है. तभी वहाँ युधिष्ठिर अपना वास्तविक परिचय देते है. इस बात से राजा द्रुपद को बहुत ख़ुशी होती है क्यूकि वे अपनी पुत्री द्रोपदी का विवाह अर्जुन के साथ ही कराना चाहते थे और वही हुआ. फिर द्रोपदी का पाँचों पांडवों के साथ विवाह सम्पन्न हुआ और वे सभी माता कुंती के साथ ह्स्तनापुर पहुँचते है. पांडवों के जीवित होने की सुचना जब ह्स्तानापुर में सभी को मिलती है तो सभी बहुत प्रसन्न होते है.

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