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महाभारत  | Mahabharat in Hindi

जब-जब पृथ्वी पर अन्याय का घड़ा  भरने लगता हैं तब तब ईश्वर धर्म की स्थापना के लिये जन्म लेते हैं . और इसी से रचता हैं एक नया पुराण, जो युगों-युगों तक मनुष्य को मार्गदर्शन देता हैं .यह पुराण ही संस्कृति एवम रीति रिवाज का आधार बनते हैं 

महाभारत  कथा (Mahabharat Story in Hindi)

महाभारत एक ऐसा पुराण हैं जिसमे भारत के इतिहास के बारे में विस्तार से लिखा गया हैं जो यह सिद्ध करता हैं कि भारत एक देश नहीं अपितु एक राष्ट्र हैं . एक राष्ट्र जो जन्म नहीं लेता न बनाया जाता हैं वो तो युगों- युगों से यथावत हैं जिसमे संस्कृति बनती हैं, धर्म बनता हैं जिसे हम सनातन धर्म के नाम से सुनते हैं .महाभारत कथा में भारत की सीमाओं का वर्णन हैं जो उसकी भव्यता और विशालता को प्रमाणित करता हैं . सोने की चिड़ियाँ कहलाने वाला हमारा भारत अपने अंदर कई युगों को समाये हुये हैं . और उसी भव्य इतिहास का वर्णन हैं इस महाकाव्य में.

इसी प्रकार भारतीय संस्कृति में महाभारत पुराण का भी महत्व बहुत अधिक हैं जिसकी रचना महर्षि वेदव्यास ने की हैं उन्होंने इसे अपनी वाणी से प्रकट किया था जिसे स्वयं भगवान गणेश ने लिखा . यह महा पुराण ही हमें कलयुग की पहचान करवाता हैं सत्य, असत्य एवम मर्यादा का पाठ सिखाता हैं .

महाभारत संस्कृत में लिखा एक महा ग्रन्थ हैं जिसमे कलयुग के प्रारंभ का विस्तार से वर्णन किया गया हैं. यह ग्रन्थ वास्तव में एक पारिवारिक युद्ध हैं जिसमे भाई-भाई से राज गद्दी और अहम् के लिये लड़ रहा हैं जिसमे वो अपनों पर प्राणघात कर रहा हैं एक स्वहित के लिये अधर्म कर रहा हैं और दूसरा पक्ष धर्म की स्थापना के लिये अधर्म कर रहा हैं . यहाँ व्यक्ति का अवलोकन धर्म या अधर्म के आधार पर नही किया जा सकता क्यूंकि यहाँ हर कोई अधर्मी हैं . यह आज के भारत देश को चरितार्थ करता हैं जहाँ हमारा नेता कम भ्रष्टाचारी हो तो हम उसे सही उम्मीदवार समझते हैं वैसे ही महाभारत युद्ध में कम और अधिक अधर्मी के आधार पर ही उपयुक्त का चयन किया जा सकता था

इस महा युद्ध के सूत्रधार स्वयम भगवान श्री कृष्ण थे . कलयुग में मनुष्य कैसा होगा ? उसे किस तरह से अपने हक़ के लिए लड़ना होगा ? सच के लिये झूठ भी बोलना होगा . यह सभी बाते इस महा ग्रन्थ का हिस्सा हैं .

महाभारत का यह एक बड़ा ग्रन्थ कई तरह की कथाओं से बना हुआ हैं . यह कथायें हमें आज के जीवन में कठिन से कठिन समस्याओं से बाहर निकलने की प्रेरणा देती हैं .यह कथायें हमें हिन्दू संस्कृति का इतिहास बताती हैं . महाभारत पुराण में हिन्दू मान्यता का आधार छिपा हुआ हैं जो आज के समय में छोटी-छोटी कथाओं के जरिये ही दिखाया जाता हैं . हमने भी कई कथाओं का समावेश किया हैं जिसके जरिये हम आपको महाभारत काल और कलयूग के मध्य के संबंध को बताने जा रहे हैं .


महाभारत से जुडी कुछ रोचक सत्य और कहानियां

वेद व्यास महाभारत के रचियता की कहानी

महामुनि व्यास बहुत से वेदों और महान कथा महाभारत के रचियता थे| जिनके जीवन का सत्य भी कुछ भिन्न है| इस लेख के माध्यम से हम उनके जन्म से जुड़े समस्त तथ्यों पर प्रकाश डाला है|अपनी माँ के आशीर्वाद और पिता के तप से वे एक प्रसिद्ध महामुनि बने|

वेद व्यास की माता का नाम सत्यवती था| सत्यवती अप्सरा अद्रिका की बेटी थी| अद्रिका श्राप के कारण एक मछली बन जाती है और यमुना नदी में रहती थी| एक बार चेदी के राजा वासु शिकार कर रहे होते है और एक बगुले को मार देते है वो ये बगुला अपनी पत्नी को देना चाहते थे लेकिन वो यमुना नदी में गिर जाते है और उसे अद्रिका नाम की वही मछली खा लेती है| राजा उस मछली को पकड़कर उसका पेट काटता है और देखता है कि उसके पेट में 2 बच्चे होते है एक लड़का और एक लड़की| राजा लड़के को अपने पास रख लेता है और अपनी प्रजा को बताता है कि वो चेदी का राजकुमार है| राजा वासु उस लड़की को मत्स्य गाँधी नाम के मछली पकड़ने वाले को दे देता है| वो उसे अपनी बेटी की तरह पालता है और उसका नाम काली(क्यूंकि वो रंग रूप में काली होती है) रखता है | समय के साथ काली का नाम सत्यवती हो जाता है| सत्यवती के पिता नाव भी चलाया करते थे, सत्यवती अपने पिता के काम में उनकी मदद किया करती थी| सत्यवती अब बड़ी हो जाती है और उनके पिता उसके लिए योग्य वर तलाशने लगते है|

एक बार दिन के समय सत्यवती की मुलाकात ऋषि पराशर से होती है वे उसे यमुना नदी के दुसरे स्थान तक छोड़ने को बोलते है | सत्यवती के पिता किसी दुसरे कार्य में वयस्त थे जिस वजह से सत्यवती को नाव चला कर  ऋषि मुनि को यमुना पार ले जाना पड़ा| ऋषि मुनि सत्यवती के रूप से मोहित हो जाते है और विवाह के पहले संबध बनाने का आग्रह करते है लेकिन सत्यवती यह कह कर मना कर देती है कि वो ब्राह्मण है और सत्यवती मामूली मछली पकड़ने वाले की बेटी,ऐसा करने से उनके कुल की प्रतिष्ठा मिटटी में मिल जाएगी| ऋषि मुनि सत्यवती की बात नहीं मानते है, तब सत्यवती ऋषि मुनि के श्राप के डर से उनकी बात मान जाती है लेकिन उनके सामने एक शर्त रखती है, वे उनसे कहती है कि अपने सम्बन्ध के बारे में किसी को भी पता नहीं चलना चाहिए, उनको कभी कोई गलत द्रष्टि से ना देखे| और ये भी बोलती है कि उनका पुत्र जगत में बहुत प्रसिद्ध और विद्वान् हो| उसके ज्ञान की चर्चा दूर दूर तक हो|

ऋषि मुनि उनकी ये बात मान जाते है और वेद व्यास के जीवन की शुरुवात होती है| ऋषि मुनि और सत्यवती का एक पुत्र होता है| ऋषि मुनि इसके बाद चले जाते है और वादा करते है कि वे सत्यवती से कभी नहीं मिलेंगे| सत्यवती का पुत्र ऋषि मुनि के तप और आशीर्वाद से तुरंत बड़ा हो जाता है और एक हट्टा कट्टा नौजवान बन जाता है| वो अपनी माँ सत्यवती से वादा करता है कि जब भी वो उसे बुलाएगी वो तुरंत उसके पास आ जायेगा और उसकी मनोकामना पूरी करेगा| उस समय उसका नाम कृष्ण रखा जाता है| इसके बाद वे जंगल में चले जाते है और तपस्या में लीन हो जाते है| बाद में इनका नाम वेद व्यास पड़ा| व्यास बहुत से वेदों और महान कथा महाभारत के रचियता थे| सत्यवती की वजह से कही ना कही वे भी महाभारत में एक पात्र की भूमिका निभाते है| इसके बाद सत्यावती का विवाह हस्तिनापुर के राजा शान्तनु से हो जाता है| जिससे उनके 2 पुत्र चित्रांगदा और विचित्रवीर्य होते है| धृतराष्ट्र और पांडव विचित्रवीर्य के पुत्र और सत्यवती के पोते थे|


भीष्म पितामह के जीवन का इतिहास 

 

महाभारत महा काव्य के सबसे प्रसिद्ध पात्र जिन्हें हम भीष्म पितामह के नाम से जानते है|वास्तव में इनका नाम देवव्रत था और वे महाराज शांतनु एवम माता गंगा के पुत्र थे | गंगा ने शांतनु से वचन लिया था कि वे कभी भी कुछ भी करे उन्हें टोका नहीं जाये अन्यथा वो चली जाएँगी | शांतनु उन्हें वचन दे देते हैं | विवाह के बाद गंगा अपने पुत्रो को जन्म के बाद गंगा में बहा देती जिसे देख शांतनु को बहुत कष्ट होता हैं  लेकिन वे कुछ नहीं कर पाते | इस तरह गंगा अपने सात पुत्रो को गंगा में बहा देती जब आठवा पुत्र होता हैं तब शांतनु से रहा नहीं जाता और वे गंगा को टोक देते हैं |जब गंगा बताती हैं कि वो देवी गंगा हैं और उनके सातों पुत्रो को श्राप मिला था उन्हें श्राप मुक्त करने हेतु नदी में बहाया लेकिन अब वे अपने आठवे पुत्र को लेकर जा रही हैं क्यूंकि शांतनु ने अपना वचन भंग किया हैं |

कई वर्ष बीत जाते हैं शांतनु उदास हर रोज गंगा के तट पर आते थे एक दिन उन्हें वहां एक बलशाली युवक दिखाई दिया जिसे देख शांतनु ठहर गये तब देवी गंगा प्रकट हुई और उन्होंने शांतनु से कहा कि यह बलवान वीर आपका आठवा पुत्र हैं इसे सभी वेदों, पुराणों एवम शस्त्र अस्त्र का ज्ञान हैं इसके गुरु स्वयं परशुराम हैं और इसका नाम देवव्रत हैं जिसे मैं आपको सौंप रही हूँ | यह सुन शांतनु प्रसन्न हो जाते हैं और उत्साह के साथ देवव्रत को हस्तिनापुर ले जाते हैं और अपने उत्तराधिकारी की घोषणा कर देते हैं लेकिन नियति इसके बहुत विपरीत थी |इनके एक वचन ने इनका नाम एवम कर्म दोनों की दिशा ही बदल दी

  • भीष्म प्रतिज्ञा क्या थी ?

इनका नाम भीष्म उनके पिता ने दिया था क्यूंकि इन्होने अपनी सौतेली माता सत्यवती को वचन दिया था कि वे आजीवन अविवाहित रहेंगे और कभी हस्तिनापुर के सिंहासन पर नहीं बैठेंगे | साथ ही अपने पिता को यह भी वचन दिया था कि वे आजीवन हस्तिनापुर के सिंहासन के प्रति वफादार रहेंगे एवम उसकी सेवा करेंगे | उनकी इसी “भीष्म प्रतिज्ञा ” के कारण इनका नाम भीष्म पड़ा | और इसी के कारण महाराज शांतनु ने भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया जिसके अनुसार जब तक वे हस्तिनापुर के सिंहासन को सुरक्षित हाथो में नहीं सौंप देते तब तक वे मृत्यु का आलिंगन नहीं कर सकते हैं |

  • भीष्म पितामह की मृत्यु

भीष्म पितामह इतने शक्तिशाली थे कि उन्हें हरा पाना नामुमकिन था और उनके होते हुये पांडवो की जीत भी नामुमकिन थी लेकिन मृत्यु एक अटल सत्य हैं | भीष्म पितामह की मृत्यु का कारण भी विधाता ने तय कर रखा था जिसका संबंध काशी के राजा की पुत्री अम्बा से था जाने विस्तार से :

भीष्म ने अपनी माता सत्यवती को वचन दिया था कि वो कभी हस्तिनापुर के सिंहासन पर नहीं बैठेगा और आजीवन सिंहासन के प्रति वफ़ादार रहेगा | सत्यवती ने यह वचन अपने पुत्र को राज गद्दी पर बैठाने हेतु लिया था | सत्यवती और शांतनु के दो पुत्र थे चित्रांगद और विचित्रवीर्य | पुत्रो के जन्म के कुछ समय बाद ही शांतनु का स्वर्गवास हो गया और सिंहासन रिक्त हो गया | दोनों राजकुमार छोटे थे इसलिए भीष्म ने बिना राजा बने राज्य का कार्यभार संभाला | बाद में चित्रांगद को हस्तिनापुर का राजा बनाया गया लेकिन उसे अन्य राजा चित्रांगद ने मार दिया | विचित्रवीर्य में राजा बनने के कोई गुण ना थे वो सदैव मदिरा के नशे में रहते थे लेकिन उनके अलावा कोई राजा नहीं बन सकता था इसलिए उन्हें राज गद्दी पर बैठाया गया | उसी समय काशी के राजा ने अपनी तीनो कन्याओं के लिए स्वयम्बर का आयोजन किया लेकिन हस्तिनापुर को संदेश नहीं भेजा गया क्यूंकि विचित्रवीर्य के स्वभाव से सभी परिचित थे | यह बात भीष्म को अपमानजनक लगी और उन्होंने काशी जाकर हाहाकार मचा दिया और तीनो राजकुमारियों का अपहरण कर लिया और उनका विवाह विचित्रवीर्य से तय किया | राजकुमारी अम्बा ने इसका विरोध किया और कहा कि मैं महाराज शाल्व को अपना जीवन साथी चुन चुकी थी लेकिन आपके इस कृत्य ने मेरा अधिकार मुझसे छिना हैं इसलिये मैं अब केवल आपसे ही विवाह करुँगी क्यूंकि आपने मेरा अपहरण किया था | तब भीष्म ने उससे क्षमा मांगी और कहा कि हे देवी मैं ब्रह्मचारी हूँ और अपना वचन नहीं तोड़ सकता आपको मैने अपने भाई विचित्रवीर्य के लिये हरा था | इस बात पर क्रोधित अम्बा भगवान शिव की तपस्या करती और अपने लिये न्याय मांगती हैं | तब भगवान शिव उसे वचन देते हैं कि अपने अगले जन्म में तुम ही भीष्म की मृत्यु का कारण बनोगी | इसके बाद अम्बा अपने अम्बा स्वरूप को त्याग देती हैं और महाराज द्रुपद के यहाँ शिखंडी के रूप में जन्म लेती हैं जो कि आधे नर व आधी नारी का स्वरूप हैं |

जब कालान्तर पश्चात् कौरवो एवम पांडवो के बीच युद्ध छिड़ जाता हैं तब पितामह भीष्म के आगे पांडव सेना का टिक पाना बहुत मुश्किल था उन्हें अपनी जीत निश्चित करने के लिए भीष्म की मृत्यु अनिवार्य थी तब भगवान कृष्ण इस समस्या का समाधान सुझाते हैं और अर्जुन के रथ पर अंबा अर्थात शिखंडी को खड़ा करते हैं चूँकि शिखंडी आधा नर था इसलिये युद्ध भूमि में आ सकता था और नारी भी था इसलिये भीष्म ने यह कह दिया था कि वो किसी नारी पर प्रहार नहीं कर सकते | इस प्रकार शिखंडी अर्जुन की ढाल बनती हैं और अर्जुन उसकी आड़ में पितामह को बाणों की शैय्या पर सुला देता हैं और ऐसे अम्बा का बदला पूरा होता हैं |

भीष्म पितामह युद्ध समाप्ति तक बाणों की शैय्या पर ही रहते हैं | वे मृत्यु की इच्छा जब तक नहीं कर सकते थे जब तक ही हस्तिनापुर का सिहासन सुरक्षित हाथों में ना सौप दे | अतः वे युद्ध समाप्ति पर ही अपनी मृत्यु का आव्हाहन करते हैं |

  • भीष्म के चमत्कारी शस्त्र 

भीष्म के शस्त्र का  बहुत महत्व है, क्योकि इन्ही के लिए अर्जुन ने दुर्योधन के दिए वचन का उपयोग किया था| महाभारत युद्ध के पहले पांडव अपना वनवास जंगल में बीता रहे होते है, दुर्योधन पांडवों को परेशान करने के लिए उनके पास जंगल पहुँच जाता है, वो भी अपना कैंप पांडवों के पास बनाता है| दुर्योधन पांडवो का बहुत उपहास करता है| एक दिन दुर्योधन और उसके सभी साथी स्नान के लिए पास के झील में जाते है| उसी समय वहां गंधर्वस के राजा चित्रसेन वहां आते है| राजा चित्रसेन दुर्योधन को वहां से चले जाने को कहते है, वे कहते है कि इस झील पर उनका हक है| दुर्योधन इस बात को सुन कर हंसने लगता है और कहता है कि वो हस्तिनापुर के महान राजा धृतराष्ट्र का पुत्र है उसे कोई नहीं मना कर सकता| तब राजा चित्रसेन दुर्योधन को युद्ध के लिए ललकारते है|

राजा चित्रसेन के पास एक बहुत बड़ी सेना थी जबकि दुर्योधन कुछ ही लोगो के साथ जंगल में गया था| राजा चित्रसेन की सेना के द्वारा दुर्योधन के बहुत से रक्षक मार दिए जाते है| फिर राजा चित्रसेन खुद दुर्योधन से युद्ध करते है| वे अपना सम्मोहन अस्त्र का उपयोग करने वाले होते है कि तभी युधिस्ठिर के पास दुर्योधन के सैनिक आते है और उनकी मदद करने का आग्रह करते है| युधिस्ठिर दुर्योधन को बचाने के लिए अर्जुन को भेजते है| अर्जुन चित्रसेन से मिलते है , चित्रसेन और युधिस्ठिर अच्छे मित्र होते है| अर्जुन उन्हें बताते है कि वो युधिस्ठिर के छोटे भाई है और दुर्योधन हमारा चचेरा भाई| अर्जुन चित्रसेन से आग्रह करते है कि वो दुर्योधन को माफ़ कर दे और जाने दे| चित्रसेन युधिस्ठिर से अपनी मित्रता के चलते अर्जुन की बात मान जाते है और दुर्योधन को जाने देते है| दुर्योधन ये देख बहुत लज्जित होता है कि उसके सबसे बड़े शत्रु (पांडव) ने उसकी रक्षा की है| तब दुर्योधन पांडव को यह वचन देता है कि पांडव जो चाहे वो उनसे मांग सकता है और वह उन्हें मना नहीं करेगा|

कहते है राजा अपने वचन के लिए अपने प्राण तक दे देता है, एक क्षत्रिय राजा अपना वचन हमेशा पूरा करता है , यही दुर्योधन ने भी किया| महाभारत युद्ध के दौरान दुर्योधन भीष्म को अपने कक्ष में बुलाता है और कहता है कि वो युद्ध में वो उसके नहीं बल्कि पांडवों की तरफ से लड़ रहे है| दुर्योधन कहता है कि भीष्म का ज्यादा लगाव पांडवों से है और वो उसके साथ विश्वासघात कर रहे है| यह सुन भीष्म क्रोधित हो जाते है और कहते है कि वो कल की पांडवों को मार डालेंगे , भीष्म दुर्योधन को वचन देते है कि वो अपने 5 चमत्कारी तीर से 5 पांडवों के सर काट देंगे और उसे दुर्योधन को प्रस्तुत करेंगे| यह सुन भी दुर्योधन को भीष्म पर विश्वास नहीं होता है और वह उनसे वो 5 तीर अपने पास रखने को कहता है| दुर्योधन को लगता है कि कहीं भीष्म अपना मन बदल ना दे|

कृष्ण को इस बात का पता चल जाता है और वे अर्जुन को बुला कर उसे दुर्योधन के द्वारा किये गए वचन के बारे में याद दिलाते है और और अर्जुन से कहते है कि वो दुर्योधन के पास जाकर भीष्म के चमत्कारी 5 तीर मांगे| अर्जुन कृष्णा की बात मान जाते है और दुर्योधन के पास जाकर उससे वो तीर मांग लेते है| दुर्योधन एक क्षत्रिय होने के नाते अपने वचन को तोड़ नहीं पता और अर्जुन को वो 5 तीर दे देता है| इसके बाद दुर्योधन भीष्म से फिर से वो 5 तीर देने को कहता है| भीष्म यह सुन हंसने लगते है और कहते है कि वो तीर उन्हें बहुत समय तक तप करने के बाद मिले थे, और फिर से उस तीर को पाना अभी नामुमकिन है| भीष्म इसके बाद दुर्योधन को ये वचन देते है कि अगले दिन वो अर्जुन को जरुर मार देंगे नहीं मार पाए तो अपने आप को ख़त्म कर देंगे|


कैसे पैदा हुए एक सो दो कौरव 

 

गांधारी जो कि गंधार नरेश की पुत्री थी और एक शिव भक्त | गांधारी ने अपने बाल्यकाल से ही शिव भक्ति में अपने मन को लगा लिया था जिसके फलस्वरूप भगवान् शिव ने उन्हें सो पुत्रों का वरदान दिया |गांधारी का विवाह विचित्रवीर्य के पुत्र धृतराष्ट्र से किया गया जो कि जन्म से ही नेत्रहीन थे | धृतराष्ट्र की इच्छा थी कि उनकी पत्नी नेत्रों वाली हो ताकि वो उनकी नेत्रों से दुनियाँ को देख सके, राज्य संभाल सके | लेकिन जैसे ही गांधारी को विवाह प्रस्ताव मिला | उसने अपने पतिधर्म को सर्वोपरि रख विवाह के पूर्व ही अपनी आँखों पर जीवन भर के लिए पत्ती बांधने की प्रतिज्ञा ले ली जिससे धृतराष्ट्र बहुत क्रोधित हो उठे क्यूंकि इस कारण धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का राजा नहीं बनाया गया और पांडू का राज तिलक किया गया |

अपने क्रोध के कारण धृतराष्ट्र ने गांधारी को अपने समीप नहीं आने देने का फैसला किया | यह जानने के बाद शकुनी जो कि गांधारी का भाई था उसने धृतराष्ट्र को शिव जी के वरदान के बारे में बताया और कहा आपका पुत्र ही आपके स्वप्नों को पूरा करेगा और अपने 99 भाईयों के होते वो कभी परास्त नहीं हो सकेगा | यह सुन महत्वाकांक्षी धृतराष्ट्र को अपनी इच्छा पूरी करने का एक रास्ता नजर आया | अतः धृतराष्ट्र ने गांधारी को पत्नी के रूप में स्वीकार किया |

जिसके बाद गांधारी को गर्भधारण किये 10 महीने से अधिक हो गया लेकिन उसे प्रसव नहीं हुआ | 15 महीने बाद गांधारी को प्रसव में एक मॉस का बड़ा टुकड़ा हुआ | जिसके कारण सत्यवती एवम धृतराष्ट्र ने उन्हें बहुत कौसा | नाराज धृतराष्ट्र ने अपनी पत्नी को अधिक कष्ट देने के उद्देश्य से गांधारी की प्रिय दासी के साथ संबंध बनाये |

उसी वक्त महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर पहुँचे और उन्होंने बताया कि किसी स्त्री के गर्भ से सो पुत्रो का जन्म होना न मुमकिन हैं लेकिन शिव का वरदान व्यर्थ नहीं होता अतः यह मांस का टुकड़ा नहीं बल्कि इसमें गांधारी के एक सो एक संतानों के बीज हैं | गांधारी ने वरदान में भगवान से एक पुत्री की भी कामना की थी इस प्रकार उन्हें एक सो एक संतानों का सौभाग्य प्राप्त हैं |

इसके बाद महर्षि वेद व्यास ने एक सो एक मटकों में गर्भ की तरह वातावरण निर्मित किया | इसके बाद सबसे पहले जिस पुत्र का जन्म हुआ उसका नाम दुर्योधन रखा गया | इसके बाद दासी को भी पुत्र की प्राप्ति हुई | अतः कौरवो की संख्या सो नहीं एक सो दो थी जिनमे बहन दुशाला सहित सो संताने गांधारी की एवम एक संतान उनकी दासी की थी |

यह था कौरवो के जन्म से जुड़ा सच | महाभारत का युद्ध धर्म की रक्षा के लिए लड़ा गया था जिसमे कौरव अधर्मी एवम पांडव धर्मी थे | इस महाभारत के रचियता महर्षि वेदव्यास थे उनके बोलने पर महाभारत को स्वयं गणपति जी ने लिखा था एवम इस महाभारत के सूत्रधार स्वयं श्री कृष्ण थे जिन्होंने धर्म की इस लड़ाई में पांडवों का मार्गदर्शन किया था |


शकुनी कौरवों का हितेषी नहीं बल्कि उनका विरोधी था

 

महाभारत मे सबसे बड़ा प्रश्न हमारे मन  मे यही आता है कि क्या शकुनी कौरवों का हितेषी नहीं बल्कि उनका विरोधी था| शकुनी गंधार के राजा सुबाला  के पुत्र और गांधारी के भाई थे| रिश्ते में वे दुर्योधन के मामा थे| महाभारत युद्ध होने की सबसे बड़ी वजह शकुनी ही थे| शकुनी बहुत ज्ञानी और विद्वान् थे , वे गहरी सोच रखने वाले और दूर द्रष्टिकोण वाले व्यक्ति थे| महाभारत युद्ध के दौरान और उसके पहले भी शकुनी कौरवों का बहुत साथ देते थे , वे उनके बहुत बड़े हितेषी और सलाहकार होने का दिखावा करते थे, परन्तु शकुनी कौरवों का हितेषी नहीं बल्कि उनका विरोधी था, दरअसल शकुनी धृतराष्ट्र और उसके वंश का अंत चाहते थे, वे चाहते थे कौरवों का अंत हो जाये| इसलिए शकुनी पांडवो से कौरवों का युद्ध करवाया , उन्हें पहले से ही ज्ञात था कि कौरव पांडवो से हार जायेंगे|

शकुनी की धृतराष्ट्र और कौरवों से दुश्मनी की 2 बड़ी वजह थी| पहली उनकी बहन गांधारी का विवाह एक अंधे आदमी धृतराष्ट्र से होना| हस्तिनापुर के राजा ने गंधार के राजा को हराया था| जिस वजह से गांधारी को धृतराष्ट्र से विवाह करना पड़ा था| पति के अंधे होने की वजह से गांधारी भी दुनिया नहीं देखना चाहती थी और उन्होंने एक अच्छी पत्नी होने के नाते अपनी आँखों में पट्टी बांध ली| और प्रतिज्ञा ली कि वे कभी नहीं देखेंगी| शकुनी अपनी प्यारी बहन की क़ुरबानी से बहुत क्रोधित हुए, मगर वे उस समय कुछ कर ना पाए , तब उन्होंने प्रतिज्ञा ले ली की वे इस अपमान का बदला जरुर लेंगे, और तब  से शकुनी कौरवो के शत्रु बन गए|

शकुनी की दुश्मनी दूसरी वजह उनके पिता का अपमान था| दरअसल गांधारी के विवाह के पहले, उनके पिता सुबाला को किसी पंडित ने बोला था कि गांधारी की शादी के पश्चात उसके पहले पति की म्रत्यु हो जाएगी| इस बात से चिंतित राजा सुबाला ने उनकी शादी एक बकरे से करवाई, उसके बाद उस बकरे को मार दिया गया | इस तरीके से गांधारी एक विधवा थी| यह बात सिर्फ सुबाला और उनके करीबी जानते थे , इस बात को किसी को ना बताने की हिदायत सबको दी गई थी| इस घटना के कुछ समय बाद गांधारी की शादी हस्तिनापुर के राजकुमार धृतराष्ट्र से हो गई| धृतराष्ट्र और पांडव इस बात से अंजान थे, कि गांधारी एक बकरे की विधवा है|

कुछ समय पश्चात् यह बात सबके सामने आ गई , धृतराष्ट्र और पांडव को इस बात पर बहुत ठेस पहुंची और उन्हें लगा राजा सुबाला ने उनके साथ धोखा किया है, अपमान किया है| अपने अपमान का बदला लेने के लिए धृतराष्ट्र ने राजा सुबाला और उनके 100 पुत्रों को जेल में बंद कर दिया| धृतराष्ट्र उनके साथ बहुत बुरा व्यव्हार करते थे, उन्हें बहुत मारा पीटा जाता था| धृतराष्ट्र राजा सुबाला से अपने रिश्ते का भी मान नहीं रखते थे , राजा और उनके परिवार को रोज सिर्फ एक मुट्ठी चावल दिया जाता था, जिसे वे मिल बाँट के खा लेते थे| दिन बीतते गए और राजा सुबाला के पुत्रों में से एक एक की मौत भूख के कारण होती गई| तब राजा सुबाला सोचने लगे कि इस तरह वे अपने वंश का अंत नहीं होने देंगे| धृतराष्ट्र के प्रति गुस्सा के चलते सुबाला ने निर्णय लिया,कि वे सब अपने हिस्से के भोजन का त्याग करेंगे और किसी एक को देंगे जिससे उनमे से एक जीवित रहे और ताकतवर बने और उन सभी के अपमान कष्ट का बदला ले सके| शकुनी उन सभी भाइयों में छोटा था इसलिए सुबाला ने निर्णय लिया की सभी शकुनी को अपना भोजन देंगे| शकुनी अपने पिता के इस निर्णय के विरोध में थे, उनसे अपने पिता और भाइयों को इस तरह तडपना नहीं देखा जाता था,  लेकिन अपने पिता की आज्ञा के चलते उन्हें यह बात माननी पड़ी| इसी कारण शकुनी कौरवों का हितेषी नहीं बल्कि उनका विरोधी था|

समय बीतता गया और राजा सुबाला भी अब कमजोर होते गए| इस दौरान उन्होंने धृतराष्ट्र से एक आग्रह किया उन्होंने उनसे माफ़ी मांगी और अपने एक पुत्र शकुनी को माफ़ कर जेल से बाहर निकलने को कहा|ये भी कहा की शकुनी हमेशा उनके पुत्र कौरवों के साथ रहेगा और उनका हितेषी रहेगा| धृतराष्ट्र ने अपने ससुर की इस आखरी इच्छा को मान लिया और शकुनी को हस्तिनापुर ले आये| राजा सुबाला ने इस बात के साथ ही अंतिम सांस ली| जिससे शकुनी कौरवो का शत्रु बन गया, मगर मरने से पहले सुबाला ने अपने पुत्र शकुनी से कहा कि उसकी रीढ़ की हड्डी से ऐसे पांसे बनाना जो उसकी इच्छा अनुसार अंक दिखाए ( यही पांसे शकुनी ने पांडव और कौरव के बीच हुए खेल में उपयोग किया जिसमे युधिस्ठिर अपने 4 भाई और पत्नी द्रौपदी को हार जाते है और द्रौपदी का चीर हरण होता है| यही खेल महाभारत युद्ध का मुख्य कारण था|) राजा सुबाला चाहते थे ये पांसे धृतराष्ट्र और उसके वंश के अंत का कारण बने और यही हुआ , शकुनी ने इन्ही पांसे के द्वारा महाभारत युद्ध करवाया| राजा सुबाला ने शकुनी का एक पैर भी मुर्छित कर दिया ताकि उसे अपने पिता का ये वचन हमेशा याद रहे और वह अपने पिता और भाइयो का अपमान कभी ना भूले|

शकुनी अपने पिता के वचन के अनुसार 100 कौरवों के शुभचिंतक बन के रहे, परन्तु असलियत मे शकुनी कौरवों का हितेषी नहीं बल्कि उनका विरोधी था| शकुनी ने कौरवों को अपने विश्वास में ले लिया कि वे उनके सबसे बड़े हितेषी है, साथ ही शकुनी उनके मन में हमेशा से  गलत बात डालते रहे और गलत सीख देते रहे| शकुनी जानते थे कौरव पांडव को पसंद नहीं करते, जिसका उन्होंने फायेदा उठाया| इसी बात का उपयोग उन्होंने अपने कार्य को अंजाम देने के लिए किया| कुरुछेत्र में हुई महाभारत के सबसे बड़े ज़िम्मेदार शकुनी ही थे , उन्होंने दुर्योधन को पांडवो के खिलाफ भड़काया और गलत बात का बीच बोते गए| शकुनी भी महाभारत युद्ध का हिस्सा थे उनकी म्रत्यु कुंती पुत्र सहदेव के हाथों हुई थी|


जाने कौरवो एवम पांडवो के नाम

 

महाभारत की कथा में सौ कौरव और पाँच पांडव थे वास्तव में 102 कौरव थे जिसमे एक बहन और एक दासी पुत्र था एवम पांडवो का भी एक और भाई था जिसका नाम कर्ण था |

कौरवो के पूर्वज राजा शान्तनु थे जिनका पहला विवाह गंगा से हुआ था जिनकी संतान देवव्रत थी जिन्हें भीष्म के नाम से जाना जाता हैं | शांतनु की दूसरी रानी मत्स्य राज्य की पुत्री सत्यवती थी जिनकी महत्वकांक्षा के कारण देवव्रत को प्रतिज्ञा लेनी पड़ी जिसमे उन्होंने अपनी सौतेली माँ को वचन दिया कि वह आजीवन अविवाहित रहेंगे एवम राज्य के सिंहासन की रक्षा करेंगे पर कभी राजा नहीं बनेगे | इस प्रतिज्ञा के कारण देवव्रत का नाम भीष्म पड़ा और उन्हें पिता शान्तनु ने इच्छा मृत्यु का वरदान दिया जिसके तहत उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा कि वे जब तक प्राण त्याग नहीं सकते जब तक कि हस्तिनापुर की राज गद्दी पर धर्म का राज न हो | अतः भीष्म ने आजीवन हस्तिनापुर की राज गद्दी की रक्षा की |
सत्यवती का एक पुत्र था विचित्रवीर्य जिनकी अम्बे एवम अम्बालिका से हुई जिन्हें भीष्म स्वयंबर से उठाकर लाये थे | इनके दो पुत्र थे धृतराष्ट्र एवम पांडू | धृतराष्ट्र के पुत्र थे कौरव एवम पांडू के पुत्र थे पांडव |

धृतराष्ट्र की पत्नी थी गांधारी जिनसे उन्हें एक सो दो सन्तान थी और एक संतान दासी की थी | पांडू की दो पत्नियाँ थी एक कुंती एवम एक माद्री | कुंती के तीन पुत्र थे एवम माद्री के दो |

पांडवो के नाम

  1. युधिष्ठिर
  2. भीम
  3. अर्जुन
  4. सहदेव
  5. नकुल

कौरवों के नाम

  1. दुर्योधन
  2. दुःशासन
  3. जलसंघ
  4. अनुविंद
  5. दुःसह
  6. सम
  7. विकर्ण
  8. दुःशल
  9. दुर्धर्ष
  10. सुबाहु
  11. चित्र
  12. सह
  13. दुषप्रधर्षण
  14. सुलोचन
  15. विंद
  16. सत्वान
  17. दुर्मुख
  18. दुष्कर्ण
  19. उपचित्र
  20. चित्राक्ष
  21. चारुचित्र
  22. शल
  23. दुर्मर्षण
  24. सुनाभ
  25. दुर्मद
  26. शरासन
  27.  चित्रकुण्डल
  28. ऊर्णनाभ
  29. दुर्विगाह
  30. विकटानन्द
  31. उपनन्द
  32. नन्द
  33. विवित्सु
  34. चित्रकुण्डल
  35. चित्रांग
  36. चित्रवर्मा
  37. महाबाहु
  38. दुर्विमोचन
  39. अयोबाहु
  40. भीमबल
  41. सुवर्मा
  42. भीमवेग
  43. निषंगी
  44. चित्रबाण
  45. सुषेण
  46. कुण्डधर
  47. पाशी
  48. महोदर
  49. सद्सुवाक
  50. बलवर्धन
  51. उग्रायुध
  52. सत्यसंघ
  53. जरासंघ
  54. चित्रायुध
  55. सोमकीर्ति
  56. बालाकि
  57. अनूदर
  58. वृन्दारक
  59. विरज
  60. उग्रश्रवा
  61. सुहस्त
  62. दृढ़हस्त
  63. दुराधर
  64. दृढ़क्षत्र
  65. दढ़संघ
  66. विशालाक्ष
  67. दृढ़वर्मा
  68. कुण्डशायी
  69. अपराजित
  70. उग्रसेन
  71. सेनानी
  72. वातवेग
  73. दीर्घरोमा
  74. भीमविक्र
  75. कुण्डी
  76. उग्रशायी
  77. क्रथन
  78. कवचि
  79. दुष्पराजय
  80. विरवि
  81. बह्वाशी
  82. सुवर्च
  83. नागदत्त
  84. कनकध्वज
  85. आदित्यकेतु
  86. धनुर्धर
  87. सुजात
  88. कुण्डभेदी
  89. अनाधृष्य
  90. अलोलुप
  91. दृढ़रथाश्रय
  92. प्रधम
  93. युयुत्सु
  94. वीरबाहु
  95. दीर्घबाहु
  96. अभय
  97. दृढ़कर्मा
  98. कुण्डाशी
  99. अमाप्रमाथि
  100. सुवीर्यवान
  101. दुह्शाला (बहन)
  102. सुखदा (दासी पुत्र)

महाभारत से जुडी कई कहानियाँ हैं जिन्हें पढ़कर आप अपना ज्ञान बढ़ा सकते हैं | यह एक बहुत बड़ा ग्रन्थ हैं जिसने कलयुग की रचना की हैं | महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित इस महाभारत में धर्म एवम अधर्म की लड़ाई के बीच कलयुग का जन्म बताया हैं | कहते हैं अभी तो कलयुग के केवल पाँच हजार साल ही बीते हैं कई लाखो वर्ष बीतना बाकी हैं |


युधिष्ठिर एवम भीष्म का अंतिम संवाद

युधिष्ठिर एवम भीष्म का अंतिम संवाद आखरी वक्त में पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को समझाया धर्म का मायना | क्या कहा भीष्म ने युधिष्ठिर से जब वे तीरों की शैया पर लेटे हुए थे |

महाभारत का युद्ध एक ऐसा युद्ध था जिसमे भाई ही भाई के विरुद्ध लड़ रहा था | सगा सगे का ही रक्त बहा रहा था ऐसे में मृत्यु को कोई भी प्राप्त हो दुःख दोनों पक्षों में बराबर का होता था |
जब पितामह भीष्म बाणों की शैया पर लेते हुए थे तब युधिष्ठिर उनसे मिलने आये | युधिष्ठिर बहुत दुखी एवम शर्मिंदा थे | अपने पितामह की हालत का जिम्मेदार खुद को मानकर अत्यंत ग्लानि महसूस कर रहे थे | उनकी यह स्थिती देख पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को अपने समीप बुलाकर पूछा – हे पुत्र ! तुम इतना दुखी क्यूँ हो क्या तुम मेरी इस स्थिती का उत्तरदायी खुद को समझ रहे हो ? तब युधिष्ठिर ने नम आँखों के साथ हाँ में उत्तर दिया | जिस पर पितामह ने उन्हें एक कथा सुनाई | क्या थी वह कथा ……

एक समय में देय नामक एक अत्यंत बलशाली महा विद्वान राजा हुआ करता था लेकिन उसकी प्रवत्ति क्रूर थी वो अपनी प्रजा पर अन्याय करता था | अपने नाम की कीर्ति फ़ैलाने के लिए वो प्रजा पर डर का शासन कर रहा था | जिस कारण प्रजा बहुत दुखी थी | शारीरिक एवम मानसिक कष्ट में पुरे राज्य का जीवन कट रहा था क्यूंकि राजा का शासन कुशासन था | अतः धर्म की स्थापना हेतु ब्राह्मणों ने उस राजा का वध किया उसके बाद उसके पुत्र पृथु को राजा बनाया गया जिसका स्वभाव धर्म के अनुरूप था जिसके कारण उस राज्य में सुशासन होने लगा | और प्रजा में खुशहाली आने लगी |उसी प्रकार आज हस्तिनापुर की प्रजा भी दुखी हैं | उनका सुख तुम्हारे शासन में हैं | इस प्रकार प्रजा के सुख एवम धर्म की स्थापना हेतु किये गये कार्य के लिए तुम्हे दुखी होने की आवश्यक्ता नहीं हैं |तुम धर्म के नये स्थापक बनोगे अगर इसके लिए तुम्हे अपनों से भी लड़ना पड़े तो उसका शौक मत करों |
पितामह भीष्म की बात सुन युधिष्ठिर को आत्म शांति का अनुभव होता हैं और वह पुरे उत्साह के साथ युद्ध के आगे के दौर में भाग लेता हैं |
महाभारत का युध्द यही सिखाता हैं कि धर्म की रक्षा के लिए किये गये कार्य कोई भी हो गलत नहीं होते | अपनों के प्रेम में पड़कर अधर्मी का साथ देना गलत होता हैं | जिस प्रकार महाभारत युद्ध में जितने भी महा पुरुषों ने कौरवो का साथ दिया उनका अंत बुरा हुआ | उनके सारे सत्कर्मो का नाश हुआ क्यूंकि उन्होंने अपने व्यक्तिगत धर्म को देश एवम मातृभूमि के उपर रखा जिसके फलस्वरूप उनका नाश हुआ |

धर्म का रास्ता सरल नहीं हैं लेकिन जो उस पर चलते हैं | उन्ही का जीवन सार्थक होता हैं |


क्यूँ दिया युधिष्ठिर ने माता कुंती को श्राप

क्यूँ दिया युधिष्ठिर ने माता कुंती को श्राप ऐसे ही कई प्रश्न महाभारत की कथाओं में छिपे हुए हैं | महाभारत ग्रन्थ में ऐसे कई तथ्य हैं जो वर्तमान की मान्यताओं को चरितार्थ करते हैं | महाभारत कहानी  का एक संकलन आप पाठको के लिए तैयार किया जा रहा हैं जो आपकी जिज्ञासुओं को शांत करता हैं |

आपने सुना ही होगा कि महिलाओं के पेट में बात नहीं पचती | यह क्यूँ और कैसे हुआ ? आपको आश्चर्य होगा इसका संबंध महाभारत काल से जुड़ी एक घटना से हैं | यह एक श्राप हैं जो धर्मराज युधिष्ठिर ने समस्त औरत जाति को दिया | क्यूँ दिया युधिष्ठिर ने माता कुंती को श्राप जाने पूरी घटना 

सभी जानते हैं कि माता कुंती के पाँच पुत्र थे जिनमे युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल एवम सहदेव | नकुल और सहदेव कुंती की सौतन माद्री के पुत्र थे |लेकिन कुंती का एक और पुत्र था वो था महापराक्रमी कर्ण जिसे कुंती ने जन्म के समय ही त्याग दिया था | क्यूँ हुआ था ऐसा जाने विस्तार से ….

कुंती धरमपरायण नारी थी जो सदैव सेवा और पुण्य के कार्य करती थी | एक बार उन्होंने सच्चे दिल से ऋषि दुर्वासा की सेवा की जिससे प्रसन्न होकर ऋषि दुर्वासा ने उन्हें एक मंत्र दिया जिसके प्रभाव से कुंती जिस भी देवता से संतान प्राप्ति की इच्छा रखेंगी | उसे प्राप्त होगा और इससे कुंती के कोमार्य पर कोई हानि ना होगी | यह आशीर्वाद प्राप्त कर कुंती जब अपने राज महल आई | उसके मन में विचार आया कि क्यूँ न इस मंत्र का प्रयोग करके देखे और उसने सूर्य देवता का आव्हान किया जिसके फलस्वरूप उन्हें कर्ण की प्राप्ति हुई जिसे देख कुंती भयभीत हो गई कि अब वे इस बालक को कैसे अपने साथ रख पाएंगी | बिना विवाह के इस पुत्र को साथ रखने से कुंती एवम पुत्र दोनों के चरित्र पर सवाल उठेंगे | इस तरह से बालक का जीवनव्यापन दूभर हो जायेगा | अतः वे कठोर मन से कर्ण को त्यागने का निर्णय लेती हैं |

कई वर्षो बाद, कर्ण जब युवा होता हैं | दुर्भाग्यवश उसकी मित्रता दुर्योधन से हो जाती हैं और वे महाभारत के इस प्रचंड युद्ध में अपने ही सगे भाईयों के विरुद्ध लड़ता हैं लेकिन फिर भी कुंती यह सच अपने अन्य पाँच पुत्रो से कह नहीं पाती जिसके फलस्वरूप कर्ण अर्जुन के हाथों वीरगति को प्राप्त होता हैं | जिसकी खबर मिलने पर कुंती दौड़ती हुई रणक्षेत्र में आती हैं और युधिष्ठिर से कर्ण का अंतिमसंस्कार करने कहती हैं जिस पर कर्ण कुंती से इसका कारण पूछते हैं | तब कुंती सभी को पूरा सच बताती हैं | जिससे दुखी होकर युधिष्ठिर अपनी माता कुंती को श्राप देते हैं कि जिस सत्य को छिपाने से भाई के हाथो भाई की मृत्यु हुई | ऐसे सत्य कभी कोई नारी जाति अपने भीतर छिपा नहीं पायेगी | तब ही से यह कहा जाता हैं कि कभी किसी नारी के पेट में कोई रहस्य नहीं रह सकता |

लोक लज्जा के कारण कुंती ने ऐसा त्याग किया बेटे के सामने होते हुए भी वो उसे अपना ना सकी | और भाई के हाथों का भाई का वध हुआ |


कैसे टुटा पांडवों का अहंकार

जब पांडव वन विहार को निकले तब सभी पांडव वन के एक स्थान पर रुके सभी को प्यास लग रही थी तभी अनुज पांडव नकुल ने सभी भाईयों को विश्राम करने कहा और स्वयं पानी लेने चला गया |

समीप ही उसे एक निर्मल जल से भरा जलाशय दिखा जिसे देख वह तेजी से उसकी तरफ पानी लेने के लिए बड़ा तभी अचानक ही एक आकाशवाणी हुई जिसने नकुल को चेतावनी देते हुए कहा – हे पांडू पुत्र ! यह मेरा जलाशय हैं अगर इसका पानी पीना हैं तो तुम्हे मेरी जिज्ञासा को शांत करना होगा जिसके लिए तुम्हे मेरे कुछ प्रश्नों का उचित उत्तर देना होगा |अगर तुम मेरी बात नहीं मानोगे तो तुम्हे मृत्यु का भागी बनाना होगा | नकुल ने उसकी एक ना सुनी उसे अपने और अपने भाईयों की शक्ति पर बहुत अभिमान था | उसी अभिमान के चलते वो जलाशय का पानी पिता हैं और उसकी उसी वक्त मृत्यु हो जाती हैं | बहुत देर तक नकुल के वापस ना लौटने पर सहदेव उसकी खोज में निकलता हैं और सहदेव को भी आकाशवाणी सुनाई देती हैं लेकिन वह भी अभिमानस्वरूप मारा जाता हैं | क्रमश : अर्जुन और भीम का भी यही हाल होता हैं | एक के बाद एक चारों पांडवों की मृत्यु हो जाती हैं |

कुछ देर बाद जा कोई वापस नहीं लौटा तो युधिष्ठिर सबकी खोज में जलाशय के पास पहुँचे | भाईयों की ऐसी दशा देख वह बहुत चिंतिंत हुए और क्रदुन स्वर में सभी को पुकारने लगे | तब ही पुनः आकाशवाणी हुई और कहा मेरे कारण ही तुम्हारे भाईयों की मृत्यु हुई हैं | युधिष्ठिर ने विनम्रता से सवाल पूछने को कहा | उनके ऐसा कहते ही वहाँ यक्ष देवता आये और उन्होंने युधिष्ठिर से अपने प्रश्नों के उत्तर मांगे जिनका युधिष्ठिर ने सहजता से उनकी जिज्ञासा को शांत किया |

फलस्वरूप यक्ष देवता ने युधिष्ठिर को वरदान दिया कि वो अपने in भाईयों में से किसी एक के प्राण वापस ले सकते हो | युधिष्ठिर ने वरदान स्वरूप नकुल को माँगा | इस पर यक्ष देव ने अचंभित होकर पूछा तुमने नकुल के प्राण क्यूँ मांगे तुम्हे अर्जुन अथवा भीम में से किसी को चुनना था जो आजीवन तुम्हारी रक्षा करते | इस पर युधिष्ठिर ने कहा – हे यक्ष देव ! बिना तीन भाईयों के भी में इस संरक्षण का क्या करता | मैंने नकुल को इसलिए माँगा क्यूंकि वह माता मादरी का पुत्र हैं इस तरह मैं माता कुंती और नकुल माता माद्री का पुत्र होने से दोनों माताओं की एक- एक संतान जीवित रहती जिससे दोनों के कुल जीवित रहेंगे | इसलिये हे यक्ष देवता मुझे आप नकुल दे दीजिये |

युधिष्ठिर के इस धर्मपरायण स्वभाव से प्रसन्न होकर यक्ष देव सभी पांडवो को जीवित करते हैं | जिसके बाद पांडवो को अपने अभिमान पर लज्जा आती हैं |

श्री कृष्ण ने कहा हैं जो धर्म की रक्षा करते हैं धर्म सदैव उनकी रक्षा करता हैं | युधिष्ठिर के इसी स्वभाव के कारण सभी पांडवों को जीवनदान मिलता हैं |

इसलिए कहा जाता हैं जो किसी भी परिस्थती में धर्म का मार्ग नहीं छोड़ते उनका जीवन कभी गलत दिशा में नहीं जाता | वे कभी अवगुणों के भागी नहीं बनते | धर्म का रास्ता कठिन जरुर हैं लेकिन उस पर संतोष एवम न्याय मिलता हैं |अधर्मी को कभी संतोष नहीं मिलता | संतोषहीन जीवन जीने योग्य नहीं होता | अतः सदैव धर्म का पालन करें |

कैसे टुटा पांडवों का अहंकार इस कहानी से यह पता चलता हैं कि पांडव जैसे ज्ञानी भी अभिमानी हो जाते हैं | सच तो यही हैं कि ज्ञानी में भी ज्ञान और अपनी विद्या का अहंकार होता हैं लेकिन यह भाव उसे उसके गुणानुसार उचित फल नहीं देता |


भीष्म पितामह का जीवन था किसके कर्मो का फल ?

अष्ट वसु अपनी पत्नी के साथ पृथ्वी लोक के भ्रमण पर निकले | सभी धामों के दर्शन के बाद अष्ट वसु अपनी पत्नी साथ वसिष्ठ ऋषि के आश्रम पहुँचे | जहाँ उन्होंने आश्रम की प्रत्येक वस्तु को देखा जिनमे यज्ञशाला, पाठशाला आदि | वही एक गौशाला भी थी जिसमे नंदिनी गाय थी जो कि अष्ट वसु की पत्नी को भा गई थी और वे उसे अपने साथ स्वर्गलोक ले जाने की हठ करने लगी | अष्ट वसु ने उन्हें बहुत समझाया कि इस तरह चौरी करना पाप हैं | पर पत्नी ने एक ना सुनी और कहने लगी – हे नाथ ! हम तो देव हैं हमें कैसे कोई पाप लग सकता हैं | हम सभी तो अमरता का वरदान लिए हुए हैं तो हमें किस बात का भय | पत्नी के हठ के सामने अष्ट वसु को हारना पड़ा और वे दोनों नंदिनी गाय को चुराकर स्वर्ग लोक ले गये |

दुसरे दिन जब ऋषि वशिष्ठ गौ शाला में आये तो उन्हें नंदिनी गाय नहीं दिखी | उन्होंने आस पास देखा पर कुछ पता न लगने पर उन्होंने दिव्य दृष्टी से पुरे घटना क्रम को देखा जिससे वो क्रोधित हो उठे जिसके फल स्वरूप उन्होंने आठों वसुओं को शाप दे दिया कि उन्हें देव होने का अभिमान हैं जिसके चलते वे अधर्म पर भी अपना हक़ समझते हैं अत : उन सभी को धरती लोक पर जन्म लेकर यहाँ के कष्टों को भोगना होगा |इससे आठो वसु भयभीत हो गये और उन्होंने भगवान से प्रार्थना की जिसके फलस्वरूप अन्य सात वसुओं को मुक्ति मिली |
कुछ समय बाद, राजा शान्तनु एवम माता गंगा को आठ पुत्र हुए जिनमे से सात की मृत्यु हो गई बस आठवा ही जीवित रहा जिनका देवव्रत था जो कालांतर में भीष्म पितामह के नाम से विख्यात हुए | यही थे वे अष्ट वसु जिन्होंने अपनी भूल का भोगमान कई वर्षो तक मानसिक एवम शारीरिक यातनाओ के तौर पर भोगना पड़ा |

इस तरह देवता हो या साधारण मनुष्य उसे अपनी करनी का भोग भोगना ही पड़ता हैं | किसी भी प्राणी को कभी घमंड नहीं करना चाहिये ओदा कोई भी हो नियमो का पालन सभी को करना पड़ता हैं |

जैसी करनी वैसी भरनी यह एक बहुत बड़ा सत्य हैं जिसे मनुष्य को स्वीकार करना चाहिये | और सदैव अपनी वाणी एवम कर्मो पर नियंत्रण रखना चाहिये | मनुष्य को कभी भी अपने औदे का घमंड नहीं करना चाहिये क्यूंकि घमंड सभी अहित की तरफ ले जाता हैं और अहित कभी औदा नहीं देखता | जिस प्रकार कहानी में देवी को अपने देवत्व का घमंड था जिसका भोगमान उनके पति अष्ट वसु को करना पड़ा क्यूंकि उन्होंने अपने पत्नी के गलत हठ में उनका साथ दिया |


महाभारत मे कीचक का वध

पांडवों के 13 साल के अग्यात्वास के दौरान वे अपने आप को कौरवों से छुपाने के लिए अपना भेष बदल कर विराटनगर में जाते है| पांडव और उनकी पत्नी द्रौपदी वहां सेवक की तरह रहते है| युधिस्ठिर राजा विराट के मंत्री कनक के रूप में कार्य करता है| अर्जुन ब्रिहन्नाला नाम के किन्नर के रूप में वहां की राजकुमारी उत्तरा को नृत्य सिखाता है| भीम राजा बल्लाव के रूप में खाना बनाने वाला होता है| वही नकुल भाम्ग्रंती के रूप में घुड़सवार और सहदेव तंत्रिपाल के रूप में चरवाहा होता है| पांडव पत्नी द्रोपदी, सैरंध्री(मालिनी) के रूप में वहां की रानी सुदेशना की दासी होती है|

स्त्री पर बुरी नजर विनाश का रास्ता हैं

कीचक विराटनगर का सेनापति और महारानी सुदेशना का भाई होता है| कीचक बहुत जिद्दी किस्म का आदमी था, वो जो चाहता था पाकर ही रहता था, उसने कभी अपनी ज़िन्दगी में ना नहीं सुना था| कीचक एक बहुत आकर्षित आदमी था, सभी राजकुमारियां उस पर मरती थी| कीचक एक बार अपनी बहन सुदेशना से मिलने उसके महल में गया, वहां उसने उसकी दासी मालिनी (द्रोपदी) को देखा| द्रोपदी के रंग रूप को देख कीचक पागल ही हो गया, वो अपनी सारी पत्नियों को भी भूल गया जो उसके साथ रहती है| कीचक ने मन में ठान लिया कि वो उसे पाकर ही रहेगा| कीचक यह बात अपनी बहन सुदेशना को बताता है और मालिनी को उसके पास भेजने को कहता है|

द्रोपदी कीचक के पास जाती है और मदिरा का पात्र देती है| कीचक उसे पीछे से पकड़ लेता है और बोलता है कि वो उसे अपनी रानी बनाना चाहता है| द्रोपदी अपने आप को छुड़ा कर गुस्से में कीचक से कहती है कि वो उससे दूर रहे अन्यथा उसके लिए अच्छा नहीं होगा| ऐसी आवाज सुन कर कीचक चकित हो जाता है और उसे शक होता है कि मालिनी एक मामूली दासी नहीं बल्कि किसी बड़े घराने से ताल्लुक रखती है| इसी दौरान दुर्योधन, शकुनी विराटनगर आते है और राजा विराट से मिलते है| वे राजा विराट से कहते है कि पांडव पिछले एक साल से उनके नगर में रह रहे है| तब राजा विराट बोलते है कि उन्हें इस बारे में नहीं पता और उन्होंने पांडव को शरण नहीं दी है| तब दुर्योधन राजा विराट को बोलता है कि अगर वो उसका साथ नहीं देंगे तो वो उन्हें मार डालेगा| दुर्योधन द्रोपदी के बारे में भी राजा विराट को बताता है वो बोलता है कि वो बहुत सुंदर और आकर्षित है| ये बातें कीचक सुन लेता है और वो समझ जाता है कि मालिनी ही द्रोपदी है| तब कीचक दुर्योधन के पास जा कर पांडवो को ढूँढने में उनकी मदद करने को कहता है, यह बात वो राजा विराट को भी नहीं बताता है|

कीचक (Keechak) जो कि जान चूका था द्रोपदी की सच्चाई, उसके पास जाकर उसे द्रोपदी नाम से बुलाता है , यह सुन द्रोपदी अचंभित हो जाती है| कीचक उसे धमकाने लगता है, वो उससे बोलता है कि वह रात को उसके कक्ष में आये नहीं तो द्रोपदी की सच्चाई वो सबको बता देगा| कीचक उससे बोलता है कि वैसे भी उसके 5 पति है 6 हो जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा| द्रोपदी कीचक की बातें सुन परेशान हो जाती है और पांडवो से मिलने जाती है| अर्जुन बोलता है कि कीचक को द्रोपदी के साथ साथ इस राज्य की भी लालसा है, वो राजा विराट की जगह खुद राजा बनना चाहता है| तब पांडव मिल कर कीचक को मारने की योजना बनाते है|

कीचक विराटनगर का राजा बनने की बात दुर्योधन और शकुनी को बताता है , वो उनसे बोलता है कि वे राजा विराज से युद्ध कर उसे और उसके बेटे उत्तर को मार डाले ताकि वो राजा बन जाये| बदले में वो पांडवो को खोज कर उनका अग्यात्वास तोड़ने का वादा करता है| दुर्योधन उसकी बात मन जाता है| कीचक के जाने के बाद शकुनी दुर्योधन को समझाता है कि कीचक का वध (keechak vadh mahabharat ) भीम आज ही कर देगा| वो उसे बोलता है कि द्रोपदी का अपमान पांडव कभी सहन नहीं कर सकते| शकुनी दुर्योधन को बोलता है कि आज जब भीम कीचक का वध करेगा तब वहां के शोर से हम समझ जायेंगे कि युद्ध कहाँ हो रहा है और वहां जाकर भीम और बाकि पांडवो को पकड़ लेंगे| शकुनी को यह नहीं पता होता है कि अर्जुन के पास एक योजना होती है अपने अग्यात्वास को बचाने के लिए|

योजना अनुसार द्रोपदी कीचक को अपने कक्ष में बुलाती है| कीचक वहां आता है और द्रोपदी को लेटा हुआ देख उसके पास जाकर उसे पकड़ लेता है| वहां द्रोपदी के रूप में भीम होता है, भीम अपने बल से कीचक के हर अंग की बारी बारी से हड्डीयां तोड़ देता है| दोनों के बीच हो रहे शोर को छुपाने के लिए अर्जुन जो नाचने वाला होता है उसी समय तबले की थाप और घुंघरू से शोर करने करने लगता है जिस वजह से पूरे महल में सिर्फ वही आवाज होती है और दुर्योधन एवं शकुनी भीम तक नहीं पहुँच पाते है| भीम कीचक को इस तरह मारता है कि कोई भी उसे पहचान तक नहीं पता है|


महाभारत के पात्रों का पूर्व जन्म रहस्य

Ramayana Character Names history in hindi हमने महाभारत के समस्त चरित्रों के पूर्व जन्म और इस जन्म मे पिचले जन्म के कर्मो के फल को बताने का प्रयास किया है. जैसा कि हम जानते है हिन्दू लोग कर्मा में विश्वास रखते है. हिन्दू लोगो की मान्यताओं के अनुसार हमारे कर्म ही हमारे आने वाले जीवन की योजना बनाते है, उनके अनुसार हमारे आज का जीवन हमारे पिछले जन्म के कर्मो से जुड़ा रहता है. कहते है अच्छे कर्म और अच्छे काम से ही हमे अच्छा भविष्य और अच्छा जीवन मिल सकता है. कुछ लोग कर्मा को पुनर्जन्म से भी जोड़ते है. हमारे आज का नाता हमारे पिछले जनम के कामों से जुड़ा हुआ होता है. इसी तरह के माध्यम से हम महाभारत के हर किरदार के साथ जो कुछ भी घटित हुआ, वो उनके पिछले जन्म का फल ही था, उनके पिछले जनम के कर्म की वजह से उन सभी को ये सब झेलना पड़ा. आइये हम महाभारत के कुछ ऐसे ही किरदारों के बारे में बताते है, जो अपने पिछले जन्म के कर्मो के कारण महाभारत का हिस्सा बने.

  1. भीष्म – महाभारत मे भीष्म एक मुख्य किरदार थे. इसमे भीष्म के बारे मे बताया है. भीष्म का जन्म पहले वसुस के रूप में हुआ था. वे एक बार अपनी पत्नी प्रभासा के साथ गुरु वसिष्ठ के आश्रम गए. वहां उनकी पत्नी की नजर एक सुंदर सी गाय पर पड़ी, जिसे पाने की वो जिद करने लगी. वसुस ने उन्हें बहुत समझाया कि ये किसी और की है , मगर वे ना मानी सो वसुस ने वो गाय उन्हें दे दी. ये गाय गुरु वसिष्ठ की थी, जब उन्हें इस बात का पता चला तो उन्होंने वसुस को श्राप दे दिया कि अगले जनम में वे इन्सान के रूप में जनम लेंगे जो अनंत काल तक जीवित रहेगा. इसके बाद भीष्म का जनम गंगा और शांतनु के आठवे पुत्र देवव्रता के रूप में हुआ, बाद में उनका नाम भीष्म पड़ा. भीष्म के पिता शान्तनु बहुत जल्दी दूसरी स्त्री पर मोहित हो जाया करते थे. एक बार वे राजा चेदी जो कि मछली पकड़ने वाले थे उनकी बेटी सत्यवती के रूप से मोहित हो गए और उनके पिता से विवाह का आग्रह किया. राजा ने ये शर्त रखी कि सत्यवती का पुत्र ही हस्तिनापुर का राजा बनेगा तभी वे अपनी बेटी की शादी उससे करेंगे. इतना ही नहीं उन्होंने ये भी बोला कि आगे भी उसकी बेटी का वंश ही राज गद्दी संभालेगा. शान्तनु ने ये शर्त मान ली लेकिन इसका भुगतान भीष्म को उठाना पड़ा. भीष्म ने अपने पिता की प्रतिज्ञा को पूरी करने के लिए अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य को राजा बना दिया और भविष्य में राज गद्दी को लेकर लड़ाई ना हो जिसके लिए उन्होंने आजीवन विवाह ना करने का निर्णय लिया. यही वजह है कि भीष्म ने कभी विवाह नहीं किया.
  2. धृतराष्ट्र (Dhritarashtra)– इसमे धृतराष्ट्र के कर्मो के बारे मे बताया है. पिछले जनम में ये एक निरंकुश शासक थे, जो बहुत अत्याचारी था. एक बार वे एक झील किनारे घुमने निकले जहां उन्होंने एक सुंदर हंस को देखा जो बहुत सारे लगभग 100 छोटे – छोटे हंसों से घिरा हुआ था. उनको उस हंस की आँख बहुत भा गई जिसे वो अपने महल में सजाना चाहते थे सो उन्होंने अपनी सेना को आदेश दिया की उस हंस की आँख निकाल ले और बाकि छोटे हंसों को मार डाले. इस वजह से ही धृतराष्ट्र अंधे पैदा हुए और उनके 100 पुत्र मार दिए गए.
  3. द्रौपदी (Draupadi) – इसमे द्रौपदी के कर्मो के पिचले जनम के कर्म और उसके फल के बारे मे बताया है. द्रौपदी पिछले जनम में गुरु मोद्ग्ल्या की पत्नी थी जिसका नाम इन्द्रसेना था. काम उम्र में ही इनके पति का निधन हो गया, और अपनी इच्छा पूर्ती के लिए इन्द्रसेना ने शिव की कड़ी तपस्या की. शिव ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर वरदान देना चाहा. शिव की खूबसूरती से वे मोहित हो गई और खो गई. इसी बीच उन्होंने 5 बार कह दिया की उन्हें पति चाहिए पति चाहिए. शिव ने उन्हें ये वरदान दे दिया मगर ये भी कहा की उन्हें एक ही जनम में ये वरदान प्राप्त होगा. इस तरह द्रौपदी को पाचं पति मिले.
  4. शिशुपाल (Shishupal) – इसमे शिशुपाल के कर्मो के फल बारे मे बताया है. शिशुपाल का जन्म पहले रावन और हिरनकश्यप के रूप में हुआ था. दरअसल वे विष्णु के सेवक थे जिन्हें श्राप मिला था की वे 4 बार जन्म लेंगे और हर बार विष्णु के हाथ मारे जायेंगे.
  5. कर्ण (Karn) – कर्ण के जीवन के बारे मे बताया है. कर्ण महाभारत मे एक बहुत ही मुख्य किरदार थे . इसमे कर्ण के बारे मे बताया गया है.कर्ण अपने पिछले जन्म में एक असुर राजा दम्भोद्भावा था. उसने कठिन तपस्या कर सूर्य को खुश किया. वे वरदान में सूर्य से अनंत जीवन मानते है. लेकिन सूर्य ये बोल कर मना कर देते है कि ऐसा नहीं हो सकता. जिसके बाद दम्भोद्भावा उनसे हजारों सेना रुपी कवच की मांग करते है जो उनकी रक्षा करे और ये भी बोलते है की एक कवच को मारने के लिए इन्सान को 1000 वर्ष तक तपस्या करनी होगी और उस कवच के मरते ही वो इन्सान भी मर जायेगा. धरती के सभी लोग इस असुर से परेशान थे तब विष्णु ने इसे मारने का निर्णय लिया और नारा – नारायण जुड़वाँ भाई के रूप में जन्म लिया . नारा उस कवच को मारता था वही नारायण शिव की तपस्या किया करता था. नारा नारायण ने 999 कवच को तो मार दिया लेकिन आखिरी कवच में दम्भोद्भावा सूर्य लोक में जा छुपा. कर्ण का जन्म इसी आखिरी कवच के द्वारा हुआ था. कर्ण ने अपने पिछले जन्म में बहुत पाप किये थे वो एक असुर था. लेकिन वो सूर्य पुत्र था जिस वजह से कर्ण के रूप में उसे बहुत सी शक्तियाँ प्राप्त हुई थी , वो बहुत ही अच्छा योद्धा था.
  6. शिखंडी – इसमे शिखंडी के जीवन के बारे मे बताया है.अम्बा काशी नरेश की बड़ी पुत्री थी , इसकी दो बहनें अम्बिका और अम्बालिका थी. कशी नरेश ने अपनी पुत्रियों के लिए स्वयंबर करवाया जहाँ बड़े बड़े राजकुमार आये. जिसमें सौबल के राजकुमार शलवा सबसे अच्छे थे. शलवा और अम्बा पहले से एक दुसरे को जानते थे और एक दुसरे को पसंद करते थे . अम्बा ने पहले ही सोच लिया था की वो शलवा को अपना पति चुनेगी. स्वयंबर चलता ही होता है कि तभी वहां भीष्म आ जाते है , भीष्म वहां अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य की शादी के लिए उस स्वयंवर में आते है. यहाँ आकर वो काशी नरेश से कहते है कि “मैं हस्तिनापुर के राजा और अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य की तरफ से आया हूँ , हमेशा से काशी की राजकुमारियां की शादी हस्तिनापुर में होते आई है और आप इस स्वयंवर के द्वारा उस नियम को तोड़ रहे हो और हमें अपमानित कर रहे हो. मैं आपकी पुत्रियों को अपने साथ हस्तिनापुर ले जा रहा हु जहाँ इनकी शादी वहां के राजा के साथ होगी. इस सभा में उपस्थित लोगों में किसी को ऐतराज है तो मुझे रोकने की कोशिश कर सकता है.” तभी शलवा जो अम्बा से प्रेम करता था भीष्म को रोकने की कोशिश करता है लेकिन उसका भीष्म से कोई मेल नहीं होता और उसे हार माननी पड़ती है.
    भीष्म तीनों राजकुमारी को अपनी माँ सत्यवती से मिलवाता है . अम्बिका और अम्बालिका तो ख़ुशी से राजा विचित्रवीर्य से विवाह करने को तैयार हो जाती है लेकिन अम्बा जो शल्वा से प्रेम करती है , भीष्म से ये बताती है और शलवा के पास जाने की आज्ञा मानती है. भीष्म उसकी बात मान जाते है और पूरी इज्जत के साथ उसे सौबल भेज देते है. अम्बा सौबल पहुँचती है तो शलवा उसे अपनाने से इंकार कर देते है , उन्हें लगता है भीष्म ने उन्हें भीख में अम्बा लौटा दी है, उन्हें भीष्म से हारने का भी बहुत दुःख होता है. तब अम्बा के पास हस्तिनापुर जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता है, अम्बा इस सब का ज़िम्मेदार भीष्म को मानती है . उन्हें लगता है अगर भीष्म स्वयंबर में नहीं आते तो ऐसा नहीं होता. वो अपने पिता के पास बिना शादी के नहीं जाना चाहती थी क्यूंकि वे जानती थी इससे उनके पिता की बदनामी होगी. तब अम्बा भीष्म के पास जाकर उनसे विवाह करने का आग्रह करती है , लेकिन भीष्म भी धर्म संकट में होते है क्यूंकि उन्होंने आजीवन विवाह ना करने की प्रतिज्ञा ली हुई थी. तो वे अम्बा से विवाह करने को मना कर देते है. तब अम्बा अपने नाना होत्रवाहना के पास जाती है जो उन्हें परशुराम की आराधना करने को कहते है. परशुराम भीष्म के गुरु होते है जिनकी बात भीष्म कभी मना नहीं करते. परशुराम अम्बा की बात सुनते है और उन्हें आश्वासन देते है कि भीष्म से सुनका विवाह वो जरुर करवाएं. परशुराम पहले भीष्म को सलाह देते है लेकिन भीष्म नहीं मानते तब वे उन्हें ऐसा करने की आज्ञा देते है , भीष्म इस आज्ञा को भी अस्वीकारते है. तब परशुराम और भीष्म के बीच युद्ध होता है जो कई दिन चलता है. इस युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकलता है तब सभी देवी देवता इसे रोकने को बोलते है.

    अम्बा अब अपनी देव सुब्रमन्य को पुकारती है जो उन्हें कमल के फूलों की माला देते है जो कभी नहीं सूखती है , और ये भी कहते है कि जो इस माला को पहन लेगा वही भीष्म का दुश्मन होगा और उसी के हाथों भीष्म का वध होगा. अम्बा बहुत सी जगह जाती है मगर कोई भी ऐसा नहीं मिलता जो इस माला को ग्रहण कर भीष्म को चुनौती दे सके. तब अम्बा थक हार कर वो माला पंचाल के राजा द्रौपद के दरवाजे पर रख देती है. इसके बाद अम्बा शिव की तपस्या कर भीष्म का वध करने का वरदान मांगती है , शिव उन्हें वरदान तो देते है लेकिन बोलते है कि ये इस जन्म में नहीं हो सकता उन्हें अगला जन्म लेना होगा. तब अम्बा अपने आप को खुद मार देती है. इसके बाद अम्बा का जन्म द्रौपद की बेटी शिखंडी के रूप में होता है. शिखंडी के जन्म के बाद राजा द्रौपद को देव गन बोलते है कि शिखंडी को एक बेटी की तरह नहीं बल्कि एक बेटे की तरह बड़ा करना. जिसके बाद द्रौपद शिखंडी को एक राजकुमार की तरह सभी प्रकार की शिक्षा देते है. एक दिन शिखंडी खेलते खेलते अपने महल के दरवाजे तक पहुँच जाता है जहाँ वो उस कमल के फूल की माला को देखता है जो अम्बा ने वहां रखी थी . वो माला वैसी ही थी जैसी अम्बा ने रखी थी उसका एक भी फूल सूखा नहीं था. तब शिखंडी उस माला को पहन लेती है, और जैसा की कहा गया था कि जो इस माला को ग्रहण करेगा वो भीष्म की मौत का कारण होगा. महाभारत युद्ध के दौरान शिखंडी ही भीष्म की मौत का कारण होती है.

    शिखंडी स्त्री के रूप में पुरुष था. उसका बाहरी शरिर स्त्री जैसा लेकिन आन्तरिक मन सोच पुरुष जैसे थी. जब शिखंडी की शादी एक स्त्री से हुई तो शादी के बाद उसे ज्ञात हुआ की ये पुरुष के रूप में स्त्री है. इसे धोखा समझ कर वो स्त्री अपने पिता के घर चली गई और उसके पिता शिखंडी के पुरे परिवार को तहस नहस कर देने की धमकी देते है. इस बात का ज़िम्मेदार शिखंडी अपने आप को मानता था और उसने तपस्या कर अपने आप को पुरुष बनाने का वरदान माँगा. शिव ने शिखंडी को इस वरदान से परिपूर्ण किया. युध्य में किसी औरत का जाना युद्ध के नीयम के खिलाफ माना जाता था , लेकिन शिखंडी स्त्री रूप में पुरुष था जिस वजह से अर्जुन शिखंडी को कुरुषेत्र में ले जा सके, जब भीष्म उसे देखते है तो तुरंत जान जाते है कि ये अम्बा है, और अपना धनुष नीचे कर देते है क्युकी किसी स्त्री के साथ युध्य करना भी नियम के खिलाफ होता है. जिसके बाद अर्जुन उन पर प्रहार कर देता है. इस तरह शिखंडी जो अम्बा का रूप थी भीष्म की मौत की वजह बनी. शिखंडी की मौत अश्वथामा के हाथों हुई थी. महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद पांडव अपनी जीत के बाद अपने महल में सो रहे होते है तभी अश्वथामा पांडव को मरने के लिए उनके कक्ष में ना जाके दुसरे में चला जाता है जहाँ शिखंडी , द्रिश्ताद्य्मना और द्रौपदी के बेटे सो रहे होते है. अश्वथामा उन्हें पांडव समझ के मार डालता है.

  7. विदुर – इसमे विदुर के समस्त जीवन के बारे मे बताया है. मंडूक मुनि के श्राप के कारण इनका जन्म सूद्र परिवार में हुआ था. ये यमराज का रूप थे. मंडूक मुनि ने इन्हें इसलिए श्राप दिया था क्यूंकि इन्होंने धोखे से बेक़सूर लोगों को मार दिया था. विदूर धृतराष्ट्र और पांडव के सौतेले भाई थे. विचित्रवीर्य हन्तिनापुर के राजा की मौत बिना किसी संतान के हो जाती है. सत्यवती को अपने कुल वंश की चिंता होती है उन्हें लगता है कि अब वंश कैसे बढेगा. तब सत्यवती भीष्म से विचित्रवीर्य की पत्नियों अम्बिका और अम्बालिका से विवाह करने को कहती है लेकिन भीष्म अपनी प्रतीज्ञा के चलते मना कर देते है और उन्हें अपने एक और पुत्र व्यास को बुलाने को बोलते है. व्यास बहुत बड़े ज्ञानी और तपस्वी होते है. सत्यवती व्यास को अपने ज्ञान और तप से अम्बिका और अम्बालिका को गर्भवती करने को बोलते है. व्यास अपनी माँ की बात को मना नहीं कर पाते और अम्बिका और अम्बालिका को एक एक कर अकेले अपने पास बुलाते है. पहले अम्बिका व्यास के पास जाती है , अम्बिका महान योगी व्यास के सामने डर जाती है और अपनी आँख बंद कर लेती है जिस वजह से उनका बीटा अँधा होता है जो धृतराष्ट्र होता है. अब अम्बालिका जाती है, अम्बालिका बहुत डरी सहमी और कमजोर हो जाती है जिस वजह से उनका बेटा कमजोर पैदा होता है जो पांडव होता है. तीसरी बार अम्बिका और अम्बालिका अपनी जगह किसी दासी को भेज देती है , वो दासी पूरी हिम्मत और विश्वास के साथ जाती है , जिसकी वजह से उसका बेटा तंदरुस्त होता है जिसका नाम विदुर होता है. विदुर की माँ सूद्र होती है. विदुर ने अपनी पूरी शिक्षा भीष्म से ग्रहण की थी और वे उन्हें ही अपना पिता मानते थे. अच्छी जाति और ऊँचे खानदान में जन्म ना होने के कारण विदुर को हमेशा नाकारा गया. वे धृतराष्ट्र और पांडव से बड़े थे और राजा बनने के लिए सबसे उपयुक्त थे तब भी वे नहीं बन सके. धृतराष्ट्र के अंधे होने की वजह से पांडव को राजा बनाया गया जिसका समर्थन विदुर ने भी किया. विदुर हस्तिनापुर के महामंत्री थे जिनसे पूछे बिना राजा कोई काम नहीं करता था. पांडव की मौत के बाद धृतराष्ट्र राजा बने और विदुर उनके महामंत्री. कहते है विदुर धृतराष्ट्र का दायाँ हाथ हुआ करते थे. उनसे पूछे बिना कोई भी निर्णय नहीं लिया जाता था. विदुर बहुत ज्ञानी पुरुष थे.

  8. अर्जुन और कृष्णा – अर्जुन और कृष्णा महाभारत के अहम् character है. इसके माध्यम से उनके जीवन मे प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है. कृष्णा ने भागवत गीता में अर्जुन से कहा था की वो नारा और कृष्णा हरी नारायण है. नारा और नारायण विष्णु का रूप थे. कर्ण जो दम्भोद्भावा का रूप था जिसके 999 कवच तो नारा और नारायण ने मार दिए थे लेकिन एक जो बच गया था और कर्ण के रूप में जन्म लिया था उसे मारने के लिए नारा और नारायण अर्जुन और कृष्ण के रूप में आते है . यही वजह है कि अर्जुन और कृष्ण के बीच गहरी दोस्ती रहती है दोनों के बीच अनूठा ही रिश्ता होता है. नारा के रूप में अर्जुन ही फिर कर्ण का वध करता है .

  9. अभिमन्यु – इसमे अभिमन्यु के पिचले जनम के कर्म और उसके फल के बारे मे बताया गया है. अभिमन्यु ने पहले कल्यावना के रूप में जन्म लिया था. कृष्णा ने इसे मार डाला था और इसके शरीर को जला दिया था. लेकिन कृष्णा ने इसकी आत्मा को एक कपडे से बांध दिया था और अपने महल द्वारका ले आये थे, जहां उन्होंने इसे एक डब्बे में बंद कर दिया था. भीम और हिद्म्बा का पुत्र घटोत्काचा उस समय द्वारका में रहता था. उसे हिद्म्बा ने सुभद्रा (अर्जुन की पत्नी) की रक्षा के लिए भेजा था, क्यूंकि उस समय पांडव वन में अपना वनवास काट रहे थे. किसी वजह से कृष्णा ने घटोत्काचा को डांट दिया जिससे नाराज हो कर घटोत्काचा कृष्णा की शिकायत करने सुभद्रा के पास गए. तब सुभद्रा कृष्णा से बात करने के लिए उनके पास जाती है, कृष्णा वहां नहीं होते है तब सुभद्रा की नजर उस अद्भूत से डब्बे पार पड़ती है जिसे देखने की चाह में सुभद्रा उसे खोल देती है और फिर उसमे से अद्भूत सा प्रकाश निकलता है जिसे सुभद्रा के गर्भ के रूप में धारण कर लेती है और बेहोश हो जाती है. यही कल्यावना का जन्म फिर अभिमन्यु के रूप में होता है. यही कारण है की कृष्णा ने चक्रव्यू का आधा रहस्य ही सुभद्रा को सुनाया था जब अभिमन्यु उनके गर्भ में था. अभिमन्यु चक्रव्यू में घुसने का रास्ता तो जानते थे किन्तु बाहर निकलने का रास्ता उन्हें ज्ञात नहीं था. ये भी कहा जाता है की अभिमन्यु को चन्द्र देव ने भेजा था जो सिर्फ 16 वर्ष तक प्रथ्वी में रह सकता था. कृष्णा और अर्जुन ये बात जानते थे की अभिमन्यु को चक्रव्यू में सिर्फ घुसने का रास्ता पता है वो बाहर नहीं निकाल सकता फिर भी उन्होंने उसे नहीं रोका क्युकी वो जानते थे की उसकी जीवन सिर्फ 16 वर्षो का है जो अब ख़तम होने वाला है. यही वजह थी की अभिमन्यु 16 वर्ष की आयु में महाभारत युद्ध के दौरान कर्ण के हाथों मारे जाते है. कर्ण को अभिमन्यु से युद्ध करते समय ये पता होता है कि वो उसके भाई का पुत्र है, कुंती एक दिन पहले ही उसे बताती है कि वो उसका बड़ा पुत्र और पांडवो का भाई है. किन्तु तब भी कर्ण अभिमन्यु को मार देता है क्यूंकि वो अर्जुन से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था.

  10. एकलव्य – इसमे एकलव्य के कर्मो के पिचले जनम के कर्म और उसके फल के बारे मे बताया गया है. एकलव्य कृष्ण के चचेरे भाई थे. वो देवश्रवा के पुत्र थे, देवश्रवा वासुदेव के भाई थे. देवश्रवा जंगल में खो जाते है जिसे हिरान्यधाणु ढूडते है, इसलिए एकलव्य हिरान्यधाणु के पुत्र कहलाते है. एकलव्य धनुर विद्या सीखने गुरु द्रोण के पास जाते है. द्रोण को जब पता चलता है एकलव्य नीची जाती का है तो वो उसे अपने आश्रम से बाहर निकाल देते है और धनुर विद्या सीखाने से मना कर देते है. इसके बाद एकलव्य द्रोण की मूर्ती बना कर उसके सामने धनुर विद्या का ज्ञान प्राप्त करते है. कहते है एकलव्य अर्जुन से भी महान धनुरवादी था जब ये बात द्रोण को पता चली तो उन्होंने एकलव्य से अपनी गुरु दक्षिणा मांगी. द्रोण ने एकलव्य से उसके दाये हाथ का अंगूठा माँगा जिससे वो कभी धनुष ना चला सके. एकलव्य ने एक अच्छे शिष्य होने के नाते उन्हें अपना अंगूठा दे दिया. एकलव्य की मौत कृष्ण के द्वारा रुकमनी स्वयंवर के दौरान हुई थी ,वे अपने पिता की रक्षा करते हुए मारे गए. इसके बाद कृष्ण ने एकलव्य को द्रोण से बदला लेने के लिए फिर से जन्म लेने का वरदान दिया. एकलव्य ने फिर धृष्टद्युम्न के रूप में जन्म लिया , ये द्रौपद नरेश का पुत्र और द्रौपदी का भाई था जिसे द्रौप्दा नाम से भी जाना जाता था. महाभारत युध्य में द्रौप्दा भी शामिल था और उसने द्रोण को मार कर अपना बदला लिया था.

  11. ध्रिस्ताकेतु इसमे ध्रिस्ताकेतु के कर्मो के पिचले जनम के कर्म और उसके फल के बारे मे बताया गया है. ध्रिस्ताकेतु शिशुपाल का पुत्र था. ये एक महान योध्या था. भीष्म पितामह भी इसे एक अच्छा और महान योध्या मानते थे. ध्रिस्ताकेतु का वध अर्जुन के हाथों महाभारत युद्ध के दौरान हुआ था.


एकलव्य की कहानी

बहुत प्राचीन समय की बात हैं जब गुरुकुल का सिधांत माना जाता था | जहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिये शिष्यों को गुरु के आश्रम में रहना पड़ता था | सभी शिष्य एक साथ गुरु एवं उनके पुरे परिवार के साथ शिक्षा प्राप्त करते एवम जीवनव्यापन करते थे | यह बात उस समय की हैं जब शिक्षा भी कूल देखकर दी जाती थी जैसे युध्द एवम शास्त्रों का प्रशिक्षण केवल उच्च कुलीन क्षत्रिय एवम ब्राह्मण कुल के शिष्य ले सकते थे | उसी समय एक होनहार शिष्य का नाम विख्यात हुआ जिन्होंने बिना गुरु के उस शिक्षा को प्राप्त किया जिसे गुरु के सानिध्य में भी कोई प्राप्त नहीं कर पाया था वो प्रख्यात शिष्य था एकलव्य, जो अपनी कला से ज्यादा अपनी गुरु दक्षिणा के लिये जाना जाता हैं | आइये जाने विस्तार से एकलव्य की कहानी:

बहुत पुरानी घटना हैं | लगभग पाँच हजार वर्ष पुरानी, जब भारत में कुरु वंश का शासन बहु चर्चित था | उन दिनों एक भील बालक था जिनका नाम एकलव्य था वो भीलों के राजा का पुत्र था | एकलव्य एक सुंदर गठीले बदन वाला एक होनहार बालक था | और अपनी उम्र के बालको से बहुत भिन्न था | छोटी उम्र से ही उसके स्वप्न थे, स्वयं के विचार थे, जिसके कारण सभी उससे प्रभावित थे |

एक दिन भील राजा अपने पुत्र एकलव्य को बड़ी गंभीरता से देख रहे थे और विचार में थे | एकलव्य उन्हें बहुत खोया- खोया और बैचेन दिखाई दे रहा था | अन्य बच्चो की तरह उसका मन बचपन की शरारतो में नहीं, बल्कि किसी उलझन में उलझा दिखाई दे रहा था | पिता, पुत्र एकलव्य से इस गंभीरता का कारण पूछते हैं  | तब एकलव्य अपने दिल की बात अपने पिता से कहता हैं – पिताजी ! मैं एक धनुर्धर बनना चाहता हूँ  और इसकी शिक्षा मैं गुरु द्रोंण से लेना चाहता हूँ | यह सुन पिता सोच में पड़ जाते हैं,उन्हें पता हैं कि गुरु द्रौण राज कुमारों को ही शिक्षित करते हैं और भील जाति को विद्या देना गुरु द्रोण के धर्म के विरुद्ध हैं | लेकिन एकलव्य के मुख पर धनुर्धर बनने की जो प्रबल इच्छा थी उसके आगे पिता कुछ कह नहीं पाते और अपने पुत्र को गुरु द्रोण के पास जाने की आज्ञा दे देते हैं |

एकलव्य बहुत उत्साह के साथ गुरुकुल की तरफ यात्रा शुरू करता हैं और कई तरह के स्वप्न और दृण संकल्प मन में लिए वो गुरु द्रोण के गुरुकुल पहुँचता हैं | उस समय द्रोणाचार्य हस्तिनापुर के राज कुमारों को शिक्षित कर रहे थे |

जब एकलव्य गुरुकुल में प्रवेश करता हैं उसकी आँखे तेजी से गुरु द्रोण को ढूढती हैं उसने कभी द्रोण को देखा नहीं था लेकिन उसके अंतरपटल में उनकी एक विशेष छवि थी और वो उसी छवि को ढूंढता हैं | उसे आश्रम के प्रशिक्षण क्षेत्र में एक बालक के साथ गुरु दिखाई देते हैं जो उस बालक को धनुर्विद्या का पाठ सिखा रहे हैं | एक झलक में ही एकलव्य को अहसास हो जाता हैं कि यही हैं उसके गुरु द्रोण जिनसे विद्या लेने वो अपने घर से इतना दूर आया हैं | एकलव्य, गुरु द्रोण के समीप जाकर उन्हें प्रणाम करता हैं | एक अपरिचित चेहरे को देख गुरु द्रोण प्रश्न करते हैं, पूछते हैं – तुम ! कौन हो, जिसे मैंने कभी अपने आश्रम में नहीं देखा | एकलव्य विनम्र भाव से हाथ जोड़कर उत्तर देता हैं – हे गुरु श्रेष्ठ ! मैं भील राजा का पुत्र एकलव्य हूँ और आपसे धनुर्विद्या सिखने की इच्छा लिये बड़ी दूर से आया हूँ | द्रोण कहते हैं – तुम भील हो अर्थात शास्त्रों के नियमानुसार तुम एक शुद्र जाति के बालक हो, हे बालक ! मैं एक उच्च कुलीन ब्राह्मण हूँ और शास्त्रानुसार, मैं केवल उच्च कुल अर्थात राज परिवार एवम ब्राह्मण के बालको को ही शिक्षा दे सकता हूँ और यही मेरा धर्म हैं,मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता, यह मेरे धर्म के विरुद्ध होगा | एकलव्य को गुरु की बातों का बहुत गहरा आघात पहुँचता हैं उसे यह प्रथा एक असहनीय पीड़ा देती हैं , वो शीष झुकाये खड़ा रहता हैं | तब समीप खड़ा राजकुमार अपमानजनक शब्दों में एकलव्य को वहाँ से जाने को कहता हैं | वह राजकुमार कोई और नहीं बल्कि अर्जुन था जो एकलव्य से कहता हैं – क्या तुम्हे जातिगत नियमों का जरा भी ज्ञान नहीं, जो तुम गुरु श्रेष्ठ से विद्या सीखने की इच्छा लिये आये हो ? इस तरह अर्जुन एकलव्य को आश्रम से अपमानित कर बाहर जाने का रास्ता दिखा देता हैं |

एकलव्य भारी सा मन लिये आश्रम से बाहर निकल जाता हैं लेकिन उसके धनुर्धर बनने की इच्छा में लेशमात्र का भी परिवर्तन नहीं होता, बल्कि वो दृणता से अपने लक्ष्य को पाने के विचार में लग जाता हैं | अपने क्षेत्र में आकर वो जंगल के एक शांत स्थान को चुनता हैं, उसे स्वच्छ करता हैं, वहां गुरु द्रोण की एक भव्य प्रतिमा बनाता हैं और दिन प्रतिदिन उनकी पूजा कर धनुर्विद्या का अभ्यास करता हैं | अपनी लगन एवम गुरु के प्रति निष्काम श्रद्धा के कारण एकलव्य की कला दिन प्रतिदिन निखरती जाती हैं  | वो एक महान धनुर्धर बनने की दिशा में आगे बढ़ता जाता हैं |

कुछ वर्षो बाद, एक दिन एकलव्य जंगल में अभ्यास कर रहा था | तभी एक कुत्ता भौंकने लगता हैं, जो उसके अभ्यास में विघ्न डाल रहा था| पहले वो भौंकने की आवाज को नजरअंदाज करता लेकिन बहुत देर होने पर उसे गुस्सा आ जाता हैं  और वो अपना धनुष उठाकर कुत्ते की तरफ निशाना साधता  और बिना कुत्ते को आघात किये उसके मुँह में तीरों को इस तरह डाल देता हैं  कि कुत्ते का मुँह खुला रह जाता हैं लेकिन उसे जरा भी दर्द नहीं होता इस तरह उसका भौंकना बंद हो जाता हैं  |

उस समय उस वन में कुछ दुरी पर गुरु द्रोण के साथ सभी राजकुमार भी अभ्यास कर रहे थे | तब सभी की नजर उस कुत्ते पर पड़ती हैं  जिसे देख गुरु द्रोण आश्चर्यचकित रह जाते हैं  और उनके मन में यह जिज्ञासा उठती हैं  कि यह कौन महान धनुर्धर हैं जिसने इतने अच्छी तरह से इस कुत्ते का भौंकना बंद किया | द्रोण उससे मिलने की इच्छा प्रकट करते हैं  और सभी के साथ वन में उस महान धनुर्धर की खोज में निकल पड़ते हैं  
कुछ दुरी पर उन्हें एकलव्य दिखाई देता हैं  जिसे वे पहचान नहीं पाते और पूछते हैं – क्या तुम वो धनुर्धर हो जिसने इस कुत्ते का भौंकना बंद किया ? एकलव्य उसी विनम्रता से प्रणाम करते हुये हाँ में शीश झुकाता हैं | गुरु द्रोण कहते हैं – हे महँ शिष्य, मैं तुम्हारे गुरु से मिलना चाहता हूँ जिसने तुम्हे इस काबिल बनाया हैं | तब एकलव्य शीष झुकाकर कहता हैं – मेरे महान आदरणीय गुरु का नाम गुरु द्रोण हैं | यह सुन द्रोण आश्चर्य से कहते हैं – यह कैसे संभव हैं ? द्रोण मेरा नाम हैं और मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूँ | एकलव्य द्रोण को उनकी प्रतिमा दिखाता हैं और भूतकाल में हुई वो घटना याद दिलाता हैं – हे गुरुवर ! मैं वही भील बालक हूँ जो आपसे शिक्षा ग्रहण की इच्छा लिये गुरुकुल में आया था | तब आपने मुझे शुद्र कह कर मुझे ना कह दिया था लेकिन मेरी इच्छा प्रबल थी इसलिये मैंने आपकी प्रतिमा के सामने दिन प्रतिदिन आपको गुरु मान कर अभ्यास किया और एक धनुर्धारी बन सका | यह देख गुरु द्रोण के मन में बहुत ख़ुशी होती हैं लेकिन उनके अहम् को आघात भी पहुँचता हैं क्यूंकि उन्होंने यह प्रण लिया था कि वो अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धारी बनायेंगे और एकलव्य के होते यह संभव नहीं | गुरु द्रोण अपने इस अपमान को सहन नहीं कर पाते |

तब गुरु द्रोण एकलव्य से कहते हैं – तुमने शिक्षा तो प्राप्त कर ली, पर क्या तुम जानते हो, शिक्षा के बदले गुरु को गुरु दक्षिणा दी जाती हैं, क्या तुम मुझे गुरु दक्षिणा नहीं दोगे ? यह सुन एकलव्य बहुत खुश होता हैं उसके लिए तो यही बड़ी बात थी कि गुरु द्रोण ने उसे अपना शिष्य कहा और वो कह देता हैं – हे गुरुवर यह मेरा धन्यभाग्य होगा, अगर मैं आपको शिष्य के रूप में गुरु दक्षिणा दे सकू, आप जो कहेंगे मैं आपको अवश्य दूंगा | द्रोण कहते हैं – एक बार सोच लो अगर तुम ना दे सके तो तुम्हारी विद्या व्यर्थ हो जायेगी | एकलव्य कहता हैं – आप जो कहेंगे मैं प्राण देकर भी दूंगा | गुरु द्रोण बड़ी क्रूरता से कहते हैं – हे महान धनुर्धर ! मुझे गुरु दक्षिणा में तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिये जिसे सुन वहाँ खड़ा हर एक स्तब्ध रह जाता हैं क्यूंकि किसी धनुर्धारी से उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांगना मतलब उससे उसकी शिक्षा लेने के बराबर ही था लेकिन गुरु द्रोण को अर्जुन को ही श्रेष्ठ बनाना था जो कि एकलव्य के होते नहीं हो सकता था | एकलव्य मुस्कुराते हुये अपने कमर में बंधे चाकू को निकालता हैं और बिना किसी विपदा के अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर अपने गुरु को गुरु दक्षिणा देता हैं | उसके ऐसा करते ही गुरु द्रोण को आत्मग्लानि होती हैं लेकिन वो अपने प्रण के आगे निष्ठुर बन जाते हैं | गुरु द्रोण आगे बढ़कर एकलव्य के शीष पर हाथ रखते हैं और उसे आशीर्वाद देते हैं – पुत्र अंगूठा देने के बाद भी इतिहास के पन्नो में एक महान धनुर्धारी के रूप में तुम्हे जाना जायेगा  | तुम्हारी कथा हर एक मनुष्य के मुख पर होगी जब कोई गुरु दक्षिणा एवम गुरु निष्ठा की बात कहेगा |

इस तरह एकलव्य अपने संकल्प के कारण बिना गुरु के भी एक महान धनुर्धर बनता हैं और अपनी गुरु निष्ठा एवम गुरु दक्षिणा के लिये जाना जाता हैं |


महाभारत के कर्ण से जुड़ी रोचक बातें 

महाभारत में जितना मुख्य किरदार अर्जुन का था, उतना ही कर्ण का भी था. कर्ण को श्राप के चलते अपने पुरे जीवन काल में कष्ट उठाने पड़े और उन्हें वो हक वो सम्मान नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे. कर्ण एक क्षत्रीय होते हुए भी पुरे जीवन सूद्र के रूप में बिताया और युधिस्थर, दुर्योधन से बड़े होने के बावजूद कर्ण को उनके सामने झुकना पड़ा.

  • महर्षि दुर्वासा द्वारा दिए वरदान की कथा और कर्ण का जन्म : एक बार कुंती नामक राज्य में महर्षि दुर्वासा पधारे. महर्षि दुर्वासा बहुत ही क्रोधी प्रवृत्ति के ऋषि थे, कोई भी भूल होने पर वे दंड के रूप में श्राप दे देते थे, अतः उस समय उनसे सभी लोग भयभीत रहते थे.

    कुंती राज्य की राजकुमारी का नाम था – कुंती. राजकुमारी कुंती बहुत ही शांत, सरल और विनम्र स्वभाव की थी. अपने राज्य में महर्षि दुर्वासा की आगमन का समाचार सुनकर राजकुमारी कुंती ने उनके स्वागत, सत्कार और सेवा का निश्चय किया और मन, वचन और कर्म से इस कार्य में जुट गयी. महर्षि दुर्वासा ने लम्बा समय कुंती राज्य में व्यतीत किया और जितने समय तक वे वहाँ रहें, राजकुमारी कुंती उनकी सेवा में हमेशा प्रस्तुत रही. उनकी सेवा भावना से महर्षि दुर्वासा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने राजकुमारी कुंती को “ वरदान स्वरुप एक मंत्र दिया और कहा कि वे जिस भी देवता का नाम लेकर इस मंत्र का जाप करेंगी, उन्हें पुत्र की प्राप्ति होगी और उस पुत्र में उस देवता के ही गुण विद्यमान होंगे.” इसके बाद महर्षि दुर्वासा कुंती राज्य से प्रस्थान कर गये.

    पुराणों के अनुसार महर्षि दुर्वासा के पास भविष्य देखने की शक्ति थी और वे जान गये थे कि राजकुमारी कुंती का विवाह कुरु कुल के महाराज पांडू से होगा और एक ऋषि से मिले श्राप के कारण वे कभी पिता नहीं बन पाएँगे. इसी भविष्य की घटना को ध्यान में रखते हुए महर्षि दुर्वासा ने राजकुमारी कुंती को इस प्रकार मंत्रोच्चारण द्वारा पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया ताकि वे कुरु कुल को उसका उत्तराधिकारी दे सके.

    जिस समय महर्षि दुर्वासा ने राजकुमारी कुंती को यह वरदान दिया था, उस समय उनकी आयु अधिक नहीं थी और इस कारण वे इतनी समझदार भी नहीं थी. अतः उन्होंने महर्षि दुर्वासा द्वारा प्राप्त वरदान का परिक्षण करना चाहा और उन्होंने भगवान सूर्य का नाम लेकर मंत्र का उच्चारण प्रारंभ किया और कुछ ही क्षणों में एक बालक राजकुमारी कुंती की गोद में प्रकट हो गया और जैसा कि ऋषिवर ने वरदान दिया था कि इस प्रकार जन्म लेने वाले पुत्र में उस देवता के गुण होंगे, यह बालक भी भगवान सूर्य के समान तेज लेकर उत्पन्न हुआ था. इस प्रकार बालक कर्ण का जन्म हुआ. इस प्रकार कर्ण की माता कुंती और पिता भगवान सूर्य थे.

  • राजकुमारी कुंती द्वारा बालक कर्ण को त्याग देने का निर्णय: जिस समय कर्ण का जन्म हुआ, उस समय राजकुमारी कुंती अविवाहित थी और बिना विवाह के पुत्र होने के कारण वे राज्य में अपनी, अपने पिता की, अपने सम्पूर्ण परिवार और राज्य की प्रतिष्ठा और सम्मान के प्रति चिंतित हो गयी और भगवान सूर्य से इस प्रकार उत्पन्न हुए पुत्र को वापस लेने की प्रार्थना करने लगी. साथ ही वे अपने कौमार्य [ Virginity ] के प्रति भी चिंतित थी. तब भगवान सूर्य ने उन्हें आश्वस्त किया कि इस प्रकार पुत्र के जन्म से उनके कौमार्य को कोई क्षति नहीं पहुँचेगी क्योंकि भगवान सूर्य इस पुत्र के जैविक पिता [ Biological Father ] नहीं हैं. परन्तु वे इस पुत्र को वापस नहीं ले सकते थे क्योंकि वे महर्षि दुर्वासा द्वारा दिए गये वरदान से बंधे हुए थे और वरदान को पूरा करने हेतु विवश भी थे. इस स्थिति में राजकुमारी कुंती ने लोक – लाज के कारण पुत्र का त्याग करने का निर्णय लिया. परन्तु वे अपने पुत्र प्रेम के कारण उसकी सुरक्षा हेतु चिंतित थी. इस कारण उन्होंने भगवान सूर्य से अपने पुत्र की रक्षा करने की प्रार्थना की, तब भगवान सूर्य ने अपने पुत्र की सुरक्षा के लिए उसके शरीर पर अभेद्य कवच और कानों में कुंडल [ Earrings ] प्रदान किये, जो इस बालक के शरीर का ही हिस्सा थे. इन्ही कुण्डलो के कारण इस बालक का नाम कर्ण रखा गया.

  • सारथी अधिरथ द्वार कर्ण को पुत्र रूप में पालना : जब राजकुमारी कुंती अपने पुत्र कर्ण की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हो गयी, तब उन्होंने बड़े ही दुःख के साथ इस प्रकार जन्मे अपने नवजात बालक को एक टोकरी में रखकर गंगा नदी में बहा दिया. इस प्रकार बहते – बहते यह हस्तिनापुर नगरी पहुँच गया और इस प्रकार अधिरथ नामक एक व्यक्ति को नदी में टोकरी में बहकर आता हुआ बालक दिखाई दिया और इस व्यक्ति ने इस बालक को अपने पुत्र के रूप में अपनाया. यह व्यक्ति हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र का सारथी [ रथ – चालक / Charioteer ] था. अधिरथ और उनकी पत्नि ‘राधा’ ने बड़े ही स्नेह के साथ इस बालक को अपनाया और अपने पुत्र के रूप में इस बालक का पालन पोषण किया और इस प्रकार बालक कर्ण को माता – पिता प्राप्त हुए और जन्म लेते ही उन्होंने इस संघर्ष का सामना किया.

  • कर्ण का संक्षिप्त परिचय : 

    नाम कर्ण / वासुसेन
    माता – पिता जिन्होंने जन्म दिया – राजकुमारी कुंती और भगवान सूर्य
                      जिन्होंने पालन पोषण किया – सारथी अधिरथ और उनकी पत्नी राधा
    गुरु भगवन श्री हरि विष्णु के अवतार भगवान परशुराम
    राज्य अंग देश
    पत्नि वृशाली
    संतान   सुदामा, वृशसेन, चित्रसेन, सत्यसेन, सुषेन, शत्रुंजय, द्विपाता, बाणसेन, प्रसेन और वृषकेतु.
 
कर्ण अंग देश के राजा थे, इस कारण उन्हें अंगराज के नाम से भी जाना जाता हैं. आज जिसे भागलपुर और मुंगर कहा जाता हैं, महाभारत काल में वह अंग राज्य हुआ करता था. कर्ण बहुत ही महान योध्दा थे, जिसकी वीरता का गुणगान स्वयं भगवान श्री कृष्ण और पितामह भीष्म ने कई बार किया. कर्ण ही इकलौते ऐसे योध्दा थे, जिनमे परम वीर पांडू पुत्र अर्जुन को हराने का पराक्रम था. अगर ये कहा जाये कि वे अर्जुन से भी बढकर योध्दा थे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि इतनी शक्ति होते हुए भी अर्जुन को कर्ण का वध करते समय अनीति का प्रयोग करना पड़ा. अर्जुन ने कर्ण का वध उस समय किया, जब कर्ण के रथ का पहिया भूमि में धंस गया था और वे उसे निकाल रहे थे और उस समय निहत्थे थे.
  • कर्ण का आरंभिक जीवन –  कर्ण धनुर विद्या का ज्ञान पाना चाहते थे जिसके लिए वे द्रोणाचार्य के पास गए लेकिन गुरु द्रोणाचार्य सिर्फ क्षत्रीय राजकुमारों को इसकी शिक्षा देते थे उन्होंने कर्ण को सूद्र पुत्र कहके बेइज्जत करके मना कर दिया, जिसके बाद कर्ण ने निश्चय किया कि वो इनसे भी अधिक ज्ञानी बनेगा जिसके लिए वो उनके ही गुरु शिव भक्त परशुरामजी के पास गए. परशुराम सिर्फ ब्राह्मण को शिक्षा देते थे, कही परशुराम मना ना कर दे ये सोच कर कर्ण ने उनको झूट बोल दिया कि वो ब्राह्मण है. परशुराम ने उन्हें बहुत गहन शिक्षा दी जिसके बाद वे कर्ण को अपने बराबर का ज्ञानी धनोदर बोलने लगे. एक दिन जब कर्ण की शिक्षा समाप्त होने वाली थी तब उसने अपने गुरु से आग्रह किया कि वो उसकी गोद में लेट कर आराम कर लें, तभी एक बिच्छु आकर कर्ण को पैर में काटने लगा, कर्ण हिला नहीं क्यूनी उसे लगा अगर वो हिलेगा तो उसके गुरु उठ जायेंगे. जब परशुराम उठे तब उन्होंने देखा कि कर्ण का पैर खून से लथपथ था, तब उन्होंने उसे बोला कि इतना दर्द एक ब्राह्मण कभी नहीं सह सकता तुम निश्चय ही एक क्षत्रीय हो. कर्ण अपनी सच्चाई खुद भी नहीं जानता था, लेकिन परशुराम उससे बहुत नाराज हुए और गुस्से में आकर उन्होंने श्राप दे दिया कि जब भी उसे उनके द्वारा दिए गए ज्ञान की सबसे ज्यादा जरुरत होगी तभी वो सब भूल जायेगा.
  • कर्ण-दुर्योधन की दोस्ती – 

    दुर्योधन 100 कौरव में सबसे बड़ा था. दुर्योधन अपने कजिन भाई पाडवों से बहुत द्वेष रखता था, वह नहीं चाहता था कि हस्तिनापुर की राजगद्दी उससे भी बड़े पांडव पुत्र युधिस्थर को मिले. कर्ण दुर्योधन की मुलाकात द्रोणाचार्य द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में हुई थी. यहाँ सभी धनुर्वि अपने गुण दिखाते है, इन सब में अर्जुन श्रेष्ट रहता है, लेकिन कर्ण उसे सामने से ललकारता था तब वे उसका नाम जाती पूछते है क्यूंकि राजकुमार सिर्फ क्षत्रीय से ही लड़ते थे. कर्ण जब बोलता है कि वो सूद्र पुत्र है तब सभी उसका मजाक उड़ाते है भीम उसे बहुत बेइज्जत करता है. ये बात कर्ण को अंदर तक आहात करती है, और यही वजह बनती है कर्ण की अर्जुन के खिलाफ खड़े होने की. दुर्योधन ये देख मौके का फायदा उठाता है उसे पता है कि अर्जुन के आगे कोई भी नहीं खड़ा हो सकता है तब वो कर्ण को आगे रहकर मौका देता है वो उसे अंग देश का राजा बना देता है जिससे वो अर्जुन के साथ युद्ध करने के योग्य हो जाता है. कर्ण इस बात के लिए दुर्योधन का धन्यवाद करता है और उससे पूछता है कि वो इस बात का ऋण चुकाने के लिए क्या कर सकता है, तब दुर्योधन उसे बोलता है कि वो जीवन भर उसकी दोस्ती चाहता है. इसके बाद से दोनों पक्के दोस्त हो जाते है.

    दुर्योधन कर्ण पर बहुत विश्वास करते थे, उन्हें उन पर खुद से भी ज्यादा भरोसा था. इनकी दोस्ती होने के बाद दोनों अधिकतर समय साथ में ही गुजारते थे. एक बार दोनों शाम के समय चोपड़ का गेम खेल रहे थे, तभी दुर्योधन वहां से चले गए तब उनकी पत्नी भानुमती वहां से गुजरी और अपने पति की जगह वो खेलने बैठ गई. किसकी बारी है इस बात को लेकर दोनों के बीच झगड़ा होने लगा, तब कर्ण भानुमती से पांसा छीनने लगता है, इसी बीच भानुमती की माला टूट जाती है और मोती सब जगह फ़ैल जाते है और उसके कपड़े भी अव्यवस्थित हो जाते है. तभी दुर्योधन वहां आ जाता है और दोनों को इस हाल में देखता है. दुर्योधन कर्ण से पूछता है कि किस बात पर तुम लोग लड़ रहे हो, जब उसे कारण पता चलता है तब वह बहुत हंसता है. इसके बाद भानुमती दुर्योधन से पूछती है कि आपने मुझपर शक क्यूँ नहीं किया, तब दुर्योधन बोलता है कि रिश्ते में शक की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए, अगर शक आ जाये तो रिश्ता ख़त्म होने लगता है. मुझे कर्ण पर पूरा विश्वास है वो कभी मेरे विश्वास को नहीं तोड़ेगा.कर्ण के अन्य नाम :

  • कर्ण के अन्य नाम :

    महाभारत काल में वे कर्ण नाम से प्रसिद्ध हुए, जिसका अर्थ हैं – अपनी स्वयं की देह अथवा कवच को भेदने वाला.

    उनके अन्य नाम भी थे, जो अग्र – लिखित हैं -:

राधेय

राधा का पुत्र होने के कारण.
वैकर्ताना जिसने भगवान इन्द्र को अपने अभेद्य कवच और कुंडल दान दे दिए.
जो हिन्दुओं के देवता भगवान सूर्य से सम्बंधित हो. 
रश्मिरथी जो प्रकाश के रथ पर सवार हो.
वासुसेन कर्ण का जन्म नाम.
सूर्यपुत्र भगवान सूर्य का पुत्र.
परशुराम शिष्य भगवान परशुराम का शिष्य होने के कारण.
अंगराज अंग राज्य का राजा होने के कारण
विजयधारी विजय धनुष धारण करने वाला.
अधिरथी अधिरथ का पुत्र होने के कारण.
दानवीर जो व्यक्ति दान देने का स्वभाव रखता हो
दानशूर जो व्यक्ति सच्चे योध्दा की तरह लड़ें.
वृषा जो सत्य बोलता हो, तपस्या में लीन, प्रतिज्ञा का पालन करने वाला और शत्रुओं पर भी दया करने वाला व्यक्ति.
सौता सूत का पुत्र होने के कारण अथवा सारथी / सूत जाति से सम्बंधित होने के कारण.
सूतपुत्र सूत का पुत्र होने के कारण अथवा सारथी / सूत जाति से सम्बंधित होने के कारण.
कौन्तेय कुंती का पुत्र होने के कारण.

इस प्रकार कर्ण के विभिन्न कारणों से विभिन्न नाम थे.

  • कर्ण को दानवीर क्यों कहा जाता है ? 

    हिन्दू धर्म ग्रंथों में अपने दानी स्वभाव के कारण 3 लोगों ने बहुत ख्याति प्राप्त की. वे हैं -: राक्षसों के राजा बलि, राजा हरिश्चंद्र और कर्ण. इनका नाम सदैव दूसरों की मदद करने में, साहस में, अपनी दानवीरता में, निस्वार्थ भाव के लिए और अपने पराक्रम के लिए लिया जाता हैं.

    अर्जुन एक बार कृष्ण से पूछते है कि आप क्यूँ युधिस्थर को धर्मराज और कर्ण को दानवीर कहते हो, तब इस बात का जबाब देने के लिए कृष्ण अर्जुन के साथ ब्राह्मण रूप में दोनों के पास जाते है. पहले वे युधिस्थर के पास जाते है और जलाने के लिए सुखी चन्दन की लकड़ी मांगते है. उस समय बहुत बारिश हो रही होती है, युधिस्थर अपने आस पास सब जगह बहुत ढूढ़ता है लेकिन उसे कोई भी सुखी लकड़ी नहीं मिलती जिसके बाद वो उन दोनों से माफ़ी मांगकर उन्हें खाली हाथ विदा करता है.इसके बाद वे कर्ण के पास जाते है, और वही चीज मांगते है. कर्ण भी सभी जगह सुखी चन्दन की लकड़ी तलाशता है लेकिन उसे भी नहीं मिलती. कर्ण अपने घर से ब्राह्मण को खाली हाथ नहीं जाने देना चाहता था तब वो अपने धनुष ने चन्दन की लकड़ी का बना दरवाजा तोड़ कर उन्हें दे देता है. इससे पता चलता है कि कर्ण बहुत बड़े दानवीर थे.

 

 

महाबली कर्ण ने वैसे तो अनेक दान किये , परन्तु उनके जीवन के दो महत्वपूर्ण दानों का वर्णन निम्नानुसार हैं -:

  1. भगवान इन्द्र को दिया गया दान : पुराणों के अनुसार कर्ण प्रतिदिन अपने पास आए याचकों को मनचाहा दान देते थे, ये उनकी दिनचर्या में शामिल था. महाभारत के युद्ध के समय जब वे अपने स्नान और पूजा के पश्चात् याचको को रोज की तरह दान देने लगे, तब उन याचकों में भगवान इन्द्र अपना रूप बदलकर एक साधु के रूप में सम्मिलित हो गये और उन्होंने दान स्वरुप कर्ण के कवच और कुंडल मांग लिए और कर्ण ने बिना अपने प्राणों की चिंता किये अपने कवच और कुंडल को अपने शरीर से अलग कर उन्हें दान स्वरुप दे दिया. इस प्रसंग में महत्वपूर्ण बात यह थी कि महाबली कर्ण को यह बात पहले ही उनके पिता भगवान सूर्य से पता चल चुकी थी कि भगवान इंद्र अपने पुत्र अर्जुन के प्राणों के मोह वश उनसे इस प्रकार छल पूर्वक कवच और कुंडल का दान मांगने आएंगे और भगवान सूर्य ने अपने पुत्र कर्ण को अपने पुत्र मोह के कारण उन्हें ये दान देने से मना किया. परन्तु कर्ण ने इस प्रकार याचक को खाली हाथ लौटाने से मना कर दिया और अपने कवच और कुंडल सब कुछ जानते हुए भी ख़ुशी से दान कर दिए.
  2. अपनी माता कुंती को दान : कर्ण ने अपनी और पांडु पुत्रों की माता महारानी कुंती को भी अभय दान दिया था. अर्थात् उन्होंने महारानी कुंती को दान स्वरुप ये वचन दिया था कि “ वे हमेशा पांच पुत्रों की माता रहेंगी, उनके सभी पुत्रों में से या तो अर्जुन की मृत्यु होगी या स्वयं कर्ण मारे जाएँगे और वे महारानी कुंती के अन्य चार पुत्रों का वध नहीं करेंगे. ” अपने इस वचन को निभाते हुए उन्होंने युद्ध में अवसर प्राप्त होने पर भी किसी भी पांडू पुत्र का वध नहीं किया और उन्हें भी जीवन दान दिया.
    इस प्रकार अपने परम दानी स्वाभाव के कारण उन्हें दानवीर कर्ण कहा जाता हैं.
  • कर्ण-अर्जुन का युद्ध (Mahabharat Karna Arjun Yudh)– कर्ण अर्जुन भाई होते हुए भी बहुत बड़े दुश्मन थे. दोनों के पास बहुत ज्ञान और शिक्षा थी, दोनों अपने आप को एक दुसरे से बेहतर समझते है. लेकिन दोनों में कर्ण ज्यादा बलवान था, ये बात कृष्ण भी जानते थे वे कर्ण को अर्जुन से बेहतर योध्या मानते थे. कृष्ण ने अर्जुन को महाभारत युध्य से हटकर भारतवर्ष का राजा बनने के लिए बोला था, क्यूंकि कर्ण युधिष्ठिर व दुर्योधन दोनों से बड़े थे. लेकिन कर्ण ने कृष्ण की ये बात ठुकरा दी थी. कर्ण ने अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु को महाभारत के चक्रव्यू में फंसा कर मार डाला था, इस बात से कृष्ण व पांडव दोनों बहुत आक्रोशित हुए थे, कर्ण को खुद भी इस बात का बहुत दुःख था क्यूनी वे जानते थे कि अभिमन्यु उनके ही भाई का बेटा है. जब कर्ण अर्जुन का युद्ध हुआ था तब कृष्ण व इंद्र दोनों ने अर्जुन की मदद की थी. युद्ध के समय कर्ण परशुराम द्वारा दी गई महान विद्या को याद करते है लेकिन परशुराम के श्राप के चलते ही वो सब भूल जाते है. युध्य के दौरान कर्ण का रथ मिटटी में धंस जाता है जिसे निकलने वे अपना धनुष नीचे रख देते है. ये सब कृष्ण की चाल होती है. इसी बीच अर्जुन उन पर वान चला देता है. अर्जुन अपने बेटे अभिमन्यु की मौत का बदला कर्ण से लेते है.
  • धर्मवीर कर्ण (Mahabharat Dharamveer Karna Story) –
    कुरुछेत्र का युध्य शुरू होने से पहले कृष्ण कर्ण को बताते है कि वो पांडव से भी बड़ा है, जिससे वो राज्य का सही उत्तराधिकारी है, युधिष्ठिर नहीं. कृष्ण बताते है कि वो कुंती और सूर्य का पुत्र है. कृष्ण उन्हें पांडव का साथ देने को बोलते है, लेकिन दुर्योधन से सच्ची दोस्ती व वफ़ादारी के चलते कर्ण इस बात से इंकार कर देते है. कृष्ण के अनुसार पूरी महाभारत में सिर्फ कर्ण ही है, जिन्होंने अंत तक धर्म का साथ नहीं छोड़ा और धर्म के ही रास्ते पर चले. कर्ण का पूरा जीवन त्याग, जलन में ही बीता, गलत रविया होने के कारण कर्ण अर्जुन के हाथों मारा गया. कर्ण को शुरू से ही पता था कि दुर्योधन गलत राह पर चल रहा है, उसे ये भी पता था कि कौरव ये युद्ध हार जायेंगें, लेकिन दुर्योधन को दिए वचन के चलते कि “वो उसका कभी साथ नहीं छोड़ेगा” कर्ण अंत तक दुर्योधन के साथ रहे और उसकी सेना के सेनापति रहे.
  • कर्ण का वध (Mahabharat Karna Vadh)–
    कर्ण अर्जुन के हाथों मारा गया, इस बात का जब पता कुंती को चला तब वे रोते रोते युद्ध स्थल पर चली आई थी. पांडव ये देखकर हैरान थे कि उनकी माँ दुश्मन के मरने पर इतना क्यों विलाप कर रही है. कुंती उन्हें बताती है कि कर्ण उन सब का ज्येष्ठ भाई है, युधिष्ठिर ये बात सुन अपनी माँ पर गलत लांचन लगाने लगता है, उन्हें बहुत बुरा भला बोलता है, तब कृष्ण पांडव को सारी बात समझाते है. अर्जुन को अपने भाड़े भाई को मारने का बहुत दुःख होता है, वे इसका पश्चाताप भी करते है. कहते है कर्ण कृष्ण का ही रूप थे, कृष्ण ने उन्हें इसलिए बनाया था, ताकि दुनिया त्याग बलिदान की सही परिभाषा समझ सके.
  • शिक्षा :
    इस प्रकार कर्ण के जीवन से हमें अदम्य साहस, वीरता, दानशीलता, कर्तव्य, वचन – बद्धतता और सदैव धर्म की राह पर चलने की सीख मिलती हैं.

शिशुपाल का वध की कहानी

शिशुपाल के वध की कथा जितनी रोचक हैं, उससे भी ज्यादा रोचक हैं शिशुपाल के जन्म के समय घटित हुई घटनाएं. जब शिशुपाल का जन्म हुआ था, तब वह तीन आँखों तथा चार हाथो वाले बालक के रूप में जन्मा था,तो उसके माता – पिता उसे बाहर ले जाने हेतु बहुत चिंतित हुए कि इस बालक को संसार के सामने किस प्रकार प्रस्तुत करेंगे,साथ ही कही ये कोई असुरी शक्ति तो नहीं, इस प्रकार के विचार करके उन्होंने इस बालक को त्याग देने का निर्णय लिया.. तभी एक आकाशवाणी हुई कि“ वे ऐसा न करे, जब उचित समय आएगा तो इस बालक के  अतिरिक्त आँख एवं हाथ अपने आप ही अद्रश्य हो जाएँगे, अर्थात जब विधि के विधान द्वारा निश्चित व्यक्ति  इसे अपनी गोद में बैठाएगा, तो ये अतिरिक्त अंग गायब हो जाएँगे और वही व्यक्ति इसकी मृत्यु का कारण भी बनेगा अर्थात् इसका वध भी करेगा. ” शिशुपाल के माता – पिता इस आकाशवाणी को सुनकर आशस्वत हुए कि उनका पुत्र असुर नहीं हैं, परन्तु दूसरी ओर उन्हें ये चिंता भी होने लगी कि उनके पुत्र का वध हो जाएगा और वह मृत्यु को प्राप्त होगा.

शिशुपाल के जन्म से जुड़ी रोचक कथा (Shishupal birth story)–

शिशुपाल के संबंध में ‘विष्णु पुराण’  में एक कथा बताई गयी हैं, जिसके अनुसार भगवान श्रीहरि विष्णु के दो द्वारपाल थे -: जय और विजय. इन्हें ब्रह्माजी के मानस पुत्रों ने जय और विजय को श्राप दिया था क्योकिं वे उन्हें भगवान विष्णु से मिलने से रोक रहे थे. उस समय प्रभु के विश्राम का समय था, इसलिए जय विजय उन्हें द्वार पर ही रोक लेते है. इस बात पर ब्रह्माजी के मानस पुत्रों को क्रोध आ जाता है और क्रोधित होकर वे जय और विजय को श्राप दे देते है. जिस कारण उन्होंने श्राप – वश धरती पर जन्म लिया. इन दोनों द्वारपालों को श्राप मिला था कि इन्हें ३ बार धरती पर जन्म लेना होगा और भगवान विष्णु के द्वारा इन्हें मृत्यु प्राप्त होगी और अंत में ये पुनः वैकुण्ठ धाम को प्राप्त कर पाएँगे. तब एक द्वारपाल जय ने हिरान्यकश्यप के रूप में जन्म लिया, जिसका वध श्री हरि विष्णु द्वारा अपने नरसिंह अवतार में किया गया, फिर रावण के रूप में जन्म लिया, जिसका वध भगवान विष्णु द्वारा अपने राम अवतार में और अंत में शिशुपाल के रूप में जन्म लिया और इनका वध श्री हरि विष्णु ने कृष्ण अवतार लेकर किया .

शिशुपाल का श्राप मुक्त होना –

एक बार जब भगवान श्री कृष्ण अपने पिता वासुदेव जी की बहन अर्थात् अपनी बुआ के घर गये और उन्होंने उनके पुत्र शिशुपाल  को स्नेह–वश  अपनी गोद में बैठाया , तभी शिशुपाल के अतिरिक्त अंग अर्थात एक आंख और दो हाथ गायब हो गये. उस समय शिशुपाल के माता – पिता को उस आकाशवाणी का स्मरण हुआ, जिसके अनुसार “ विधि के विधान द्वारा निश्चित व्यक्ति जब इस बालक को अपनी गोद में बैठाएगा, तो ये अतिरिक्त अंग गायब हो जाएँगे और वही व्यक्ति इसकी मृत्यु का कारण भी बनेगा अर्थात् इसका वध भी करेगा.” तब इस बात से व्यथित होकर भगवान श्री कृष्ण की बुआ ने उनसे वचन लिया कि वे शिशुपाल का वध नहीं करेंगे. चूँकि ये शिशुपाल–वध तो  विधान द्वारा पूर्व निश्चित था, अतः ऐसा करने से प्रभु इंकार तो नहीं कर सकते थे, परन्तु वे अपनी बुआ को भी दुखी नहीं करना चाहते थे, अतः उन्होंने वचन दिया कि वे शिशुपाल की  सौ गलतियाँ क्षमा कर देंगे, परन्तु 101वीं भूल पर वे उसे अवश्य दण्डित करेंगे. तब शिशुपाल की माता को कृष्ण ने ये वचन भी दिया कि यदि शिशुपाल का वध करना भी पड़ा तो वध के पश्चात् शिशुपाल को इस जीवन – मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाएगी और वो वैकुण्ठ धाम को प्राप्त करेगा. तब भगवान श्री कृष्ण अपनी बुआ के ममत्व को देख कर भाव–व्हिहल हो उठे और उन्होंने ये वचन भी अपनी बुआ को दिया.

श्रीकृष्ण रुकमनी विवाह (Shri krishna rukmini vivah) –

काल – चक्र चलता रहा और महाभारत काल में जब कुरु कुल में कौरवों और पांडवों के बीच महाराज पांडू के ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिर को युवराज घोषित करने का निर्णय लिया गया, तो इस शुभ प्रसंग के लिए राजसूय यज्ञ आयोजित करने का निर्णय लिया गया. इस हेतु सभी संबंधियों, रिश्तेदारों सहित अनेक राजाओ एवम् अन्य प्रतिष्ठित महानुभावो को आमंत्रित किया गया, तब वासुदेव श्री कृष्ण को भी आमंत्रित किया गया क्योकिं महारानी कुंती उनकी बुआ थी तथा शिशुपाल भी इस यज्ञ में शामिल हुआ, क्योकिं वह कौरवो एवं पांड्वो का भी भाई था. इस समय एक बार फिर भगवान श्री कृष्ण और शिशुपाल का आमना – सामना हुआ.

शिशुपाल, भगवान श्री कृष्ण से क्रोधित था, जिसका कारण था -: भगवान श्री कृष्ण का राजकुमारी रुक्मणी के साथ विवाह करना.

भगवान श्री कृष्ण ने राजकुमारी रुक्मणी से विवाह किया था. परन्तु राजकुमारी रुक्मणी का विवाह उनके भाई राजकुमार रुक्मी ने अपने परम मित्र शिशुपाल के साथ करना निश्चित किया था. विवाह के सारे आयोजन हो चुके थे, परन्तु राजकुमारी रुक्मणी भगवान श्री कृष्ण से प्रेम करती थी और उन्ही से विवाह करना चाहती थी और राजकुमार रुक्मी ऐसा नहीं होने देना चाहते थे . तब भगवान श्री कृष्ण राजकुमारी रुक्मणी को महल से भगाकर ले गये और उनसे विवाह कर लिया. तब शिशुपाल ने इसे भगवान श्री कृष्ण द्वारा किया गया अपना अपमान समझा और भगवान श्री कृष्ण को अपना भाई न समझ कर शत्रु मान बैठा.

शिशुपाल का वध (Shishupal vadh)-

महाभारत काल में राजकुमार युधिष्ठिर के युवराज्याभिशेक के समय, युवराज युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण को सर्वप्रथम भेंट आदि प्रदान की और सम्मानित किया, तब शिशुपाल से भगवान श्री कृष्ण का सम्मान देखा न गया और क्रोध से भरा बैठा शिशुपाल बोल उठा कि“ एक मामूली ग्वाले को इतना सम्मान क्यों दिया जा रहा हैं जबकि यहाँ अन्य सम्मानीय जन उपस्थित हैं” और शिशुपाल ने भगवान श्री कृष्ण को अपमानित करना प्रारंभ कर दिया. शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण को अपशब्द कहे जा रहा था, उनका अपमान किये जा रहा था, परन्तु भगवान श्री कृष्ण उनकी बुआ एवं शिशुपाल की माता को दिए वचन के कारण बंधे थे, अतः वे अपमान सह रहे थे और जैसे ही शिशुपाल ने सौ अपशब्द पूर्ण किये और 101वां अपशब्द कहा, भगवान श्री कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र का आव्हान किया और इससे शिशुपाल  का वध कर दिया. इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने शिशुपाल का वध किया.

शिक्षा (Moral )–

इस कथा में भगवान श्री कृष्ण की सहनशीलता, क्षमा करने की शक्ति और बड़ो की बात को आदरपूर्वक पूर्ण करने की शिक्षा मिलती हैं.

 

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