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एकलव्य की कहानी

बहुत प्राचीन समय की बात हैं जब गुरुकुल का सिधांत माना जाता था | जहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिये शिष्यों को गुरु के आश्रम में रहना पड़ता था | सभी शिष्य एक साथ गुरु एवं उनके पुरे परिवार के साथ शिक्षा प्राप्त करते एवम जीवनव्यापन करते थे | यह बात उस समय की हैं जब शिक्षा भी कूल देखकर दी जाती थी जैसे युध्द एवम शास्त्रों का प्रशिक्षण केवल उच्च कुलीन क्षत्रिय एवम ब्राह्मण कुल के शिष्य ले सकते थे | उसी समय एक होनहार शिष्य का नाम विख्यात हुआ जिन्होंने बिना गुरु के उस शिक्षा को प्राप्त किया जिसे गुरु के सानिध्य में भी कोई प्राप्त नहीं कर पाया था वो प्रख्यात शिष्य था एकलव्य, जो अपनी कला से ज्यादा अपनी गुरु दक्षिणा के लिये जाना जाता हैं | आइये जाने विस्तार से एकलव्य की कहानी:

बहुत पुरानी घटना हैं | लगभग पाँच हजार वर्ष पुरानी, जब भारत में कुरु वंश का शासन बहु चर्चित था | उन दिनों एक भील बालक था जिनका नाम एकलव्य था वो भीलों के राजा का पुत्र था | एकलव्य एक सुंदर गठीले बदन वाला एक होनहार बालक था | और अपनी उम्र के बालको से बहुत भिन्न था | छोटी उम्र से ही उसके स्वप्न थे, स्वयं के विचार थे, जिसके कारण सभी उससे प्रभावित थे |

एक दिन भील राजा अपने पुत्र एकलव्य को बड़ी गंभीरता से देख रहे थे और विचार में थे | एकलव्य उन्हें बहुत खोया- खोया और बैचेन दिखाई दे रहा था | अन्य बच्चो की तरह उसका मन बचपन की शरारतो में नहीं, बल्कि किसी उलझन में उलझा दिखाई दे रहा था | पिता, पुत्र एकलव्य से इस गंभीरता का कारण पूछते हैं  | तब एकलव्य अपने दिल की बात अपने पिता से कहता हैं – पिताजी ! मैं एक धनुर्धर बनना चाहता हूँ  और इसकी शिक्षा मैं गुरु द्रोंण से लेना चाहता हूँ | यह सुन पिता सोच में पड़ जाते हैं,उन्हें पता हैं कि गुरु द्रौण राज कुमारों को ही शिक्षित करते हैं और भील जाति को विद्या देना गुरु द्रोण के धर्म के विरुद्ध हैं | लेकिन एकलव्य के मुख पर धनुर्धर बनने की जो प्रबल इच्छा थी उसके आगे पिता कुछ कह नहीं पाते और अपने पुत्र को गुरु द्रोण के पास जाने की आज्ञा दे देते हैं |

एकलव्य बहुत उत्साह के साथ गुरुकुल की तरफ यात्रा शुरू करता हैं और कई तरह के स्वप्न और दृण संकल्प मन में लिए वो गुरु द्रोण के गुरुकुल पहुँचता हैं | उस समय द्रोणाचार्य हस्तिनापुर के राज कुमारों को शिक्षित कर रहे थे |

जब एकलव्य गुरुकुल में प्रवेश करता हैं उसकी आँखे तेजी से गुरु द्रोण को ढूढती हैं उसने कभी द्रोण को देखा नहीं था लेकिन उसके अंतरपटल में उनकी एक विशेष छवि थी और वो उसी छवि को ढूंढता हैं | उसे आश्रम के प्रशिक्षण क्षेत्र में एक बालक के साथ गुरु दिखाई देते हैं जो उस बालक को धनुर्विद्या का पाठ सिखा रहे हैं | एक झलक में ही एकलव्य को अहसास हो जाता हैं कि यही हैं उसके गुरु द्रोण जिनसे विद्या लेने वो अपने घर से इतना दूर आया हैं | एकलव्य, गुरु द्रोण के समीप जाकर उन्हें प्रणाम करता हैं | एक अपरिचित चेहरे को देख गुरु द्रोण प्रश्न करते हैं, पूछते हैं – तुम ! कौन हो, जिसे मैंने कभी अपने आश्रम में नहीं देखा | एकलव्य विनम्र भाव से हाथ जोड़कर उत्तर देता हैं – हे गुरु श्रेष्ठ ! मैं भील राजा का पुत्र एकलव्य हूँ और आपसे धनुर्विद्या सिखने की इच्छा लिये बड़ी दूर से आया हूँ | द्रोण कहते हैं – तुम भील हो अर्थात शास्त्रों के नियमानुसार तुम एक शुद्र जाति के बालक हो, हे बालक ! मैं एक उच्च कुलीन ब्राह्मण हूँ और शास्त्रानुसार, मैं केवल उच्च कुल अर्थात राज परिवार एवम ब्राह्मण के बालको को ही शिक्षा दे सकता हूँ और यही मेरा धर्म हैं,मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता, यह मेरे धर्म के विरुद्ध होगा | एकलव्य को गुरु की बातों का बहुत गहरा आघात पहुँचता हैं उसे यह प्रथा एक असहनीय पीड़ा देती हैं , वो शीष झुकाये खड़ा रहता हैं | तब समीप खड़ा राजकुमार अपमानजनक शब्दों में एकलव्य को वहाँ से जाने को कहता हैं | वह राजकुमार कोई और नहीं बल्कि अर्जुन था जो एकलव्य से कहता हैं – क्या तुम्हे जातिगत नियमों का जरा भी ज्ञान नहीं, जो तुम गुरु श्रेष्ठ से विद्या सीखने की इच्छा लिये आये हो ? इस तरह अर्जुन एकलव्य को आश्रम से अपमानित कर बाहर जाने का रास्ता दिखा देता हैं |

एकलव्य भारी सा मन लिये आश्रम से बाहर निकल जाता हैं लेकिन उसके धनुर्धर बनने की इच्छा में लेशमात्र का भी परिवर्तन नहीं होता, बल्कि वो दृणता से अपने लक्ष्य को पाने के विचार में लग जाता हैं | अपने क्षेत्र में आकर वो जंगल के एक शांत स्थान को चुनता हैं, उसे स्वच्छ करता हैं, वहां गुरु द्रोण की एक भव्य प्रतिमा बनाता हैं और दिन प्रतिदिन उनकी पूजा कर धनुर्विद्या का अभ्यास करता हैं | अपनी लगन एवम गुरु के प्रति निष्काम श्रद्धा के कारण एकलव्य की कला दिन प्रतिदिन निखरती जाती हैं  | वो एक महान धनुर्धर बनने की दिशा में आगे बढ़ता जाता हैं |

कुछ वर्षो बाद, एक दिन एकलव्य जंगल में अभ्यास कर रहा था | तभी एक कुत्ता भौंकने लगता हैं, जो उसके अभ्यास में विघ्न डाल रहा था| पहले वो भौंकने की आवाज को नजरअंदाज करता लेकिन बहुत देर होने पर उसे गुस्सा आ जाता हैं  और वो अपना धनुष उठाकर कुत्ते की तरफ निशाना साधता  और बिना कुत्ते को आघात किये उसके मुँह में तीरों को इस तरह डाल देता हैं  कि कुत्ते का मुँह खुला रह जाता हैं लेकिन उसे जरा भी दर्द नहीं होता इस तरह उसका भौंकना बंद हो जाता हैं  |

उस समय उस वन में कुछ दुरी पर गुरु द्रोण के साथ सभी राजकुमार भी अभ्यास कर रहे थे | तब सभी की नजर उस कुत्ते पर पड़ती हैं  जिसे देख गुरु द्रोण आश्चर्यचकित रह जाते हैं  और उनके मन में यह जिज्ञासा उठती हैं  कि यह कौन महान धनुर्धर हैं जिसने इतने अच्छी तरह से इस कुत्ते का भौंकना बंद किया | द्रोण उससे मिलने की इच्छा प्रकट करते हैं  और सभी के साथ वन में उस महान धनुर्धर की खोज में निकल पड़ते हैं  
कुछ दुरी पर उन्हें एकलव्य दिखाई देता हैं  जिसे वे पहचान नहीं पाते और पूछते हैं – क्या तुम वो धनुर्धर हो जिसने इस कुत्ते का भौंकना बंद किया ? एकलव्य उसी विनम्रता से प्रणाम करते हुये हाँ में शीश झुकाता हैं | गुरु द्रोण कहते हैं – हे महँ शिष्य, मैं तुम्हारे गुरु से मिलना चाहता हूँ जिसने तुम्हे इस काबिल बनाया हैं | तब एकलव्य शीष झुकाकर कहता हैं – मेरे महान आदरणीय गुरु का नाम गुरु द्रोण हैं | यह सुन द्रोण आश्चर्य से कहते हैं – यह कैसे संभव हैं ? द्रोण मेरा नाम हैं और मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूँ | एकलव्य द्रोण को उनकी प्रतिमा दिखाता हैं और भूतकाल में हुई वो घटना याद दिलाता हैं – हे गुरुवर ! मैं वही भील बालक हूँ जो आपसे शिक्षा ग्रहण की इच्छा लिये गुरुकुल में आया था | तब आपने मुझे शुद्र कह कर मुझे ना कह दिया था लेकिन मेरी इच्छा प्रबल थी इसलिये मैंने आपकी प्रतिमा के सामने दिन प्रतिदिन आपको गुरु मान कर अभ्यास किया और एक धनुर्धारी बन सका | यह देख गुरु द्रोण के मन में बहुत ख़ुशी होती हैं लेकिन उनके अहम् को आघात भी पहुँचता हैं क्यूंकि उन्होंने यह प्रण लिया था कि वो अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धारी बनायेंगे और एकलव्य के होते यह संभव नहीं | गुरु द्रोण अपने इस अपमान को सहन नहीं कर पाते |

तब गुरु द्रोण एकलव्य से कहते हैं – तुमने शिक्षा तो प्राप्त कर ली, पर क्या तुम जानते हो, शिक्षा के बदले गुरु को गुरु दक्षिणा दी जाती हैं, क्या तुम मुझे गुरु दक्षिणा नहीं दोगे ? यह सुन एकलव्य बहुत खुश होता हैं उसके लिए तो यही बड़ी बात थी कि गुरु द्रोण ने उसे अपना शिष्य कहा और वो कह देता हैं – हे गुरुवर यह मेरा धन्यभाग्य होगा, अगर मैं आपको शिष्य के रूप में गुरु दक्षिणा दे सकू, आप जो कहेंगे मैं आपको अवश्य दूंगा | द्रोण कहते हैं – एक बार सोच लो अगर तुम ना दे सके तो तुम्हारी विद्या व्यर्थ हो जायेगी | एकलव्य कहता हैं – आप जो कहेंगे मैं प्राण देकर भी दूंगा | गुरु द्रोण बड़ी क्रूरता से कहते हैं – हे महान धनुर्धर ! मुझे गुरु दक्षिणा में तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिये जिसे सुन वहाँ खड़ा हर एक स्तब्ध रह जाता हैं क्यूंकि किसी धनुर्धारी से उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांगना मतलब उससे उसकी शिक्षा लेने के बराबर ही था लेकिन गुरु द्रोण को अर्जुन को ही श्रेष्ठ बनाना था जो कि एकलव्य के होते नहीं हो सकता था | एकलव्य मुस्कुराते हुये अपने कमर में बंधे चाकू को निकालता हैं और बिना किसी विपदा के अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर अपने गुरु को गुरु दक्षिणा देता हैं | उसके ऐसा करते ही गुरु द्रोण को आत्मग्लानि होती हैं लेकिन वो अपने प्रण के आगे निष्ठुर बन जाते हैं | गुरु द्रोण आगे बढ़कर एकलव्य के शीष पर हाथ रखते हैं और उसे आशीर्वाद देते हैं – पुत्र अंगूठा देने के बाद भी इतिहास के पन्नो में एक महान धनुर्धारी के रूप में तुम्हे जाना जायेगा  | तुम्हारी कथा हर एक मनुष्य के मुख पर होगी जब कोई गुरु दक्षिणा एवम गुरु निष्ठा की बात कहेगा |

इस तरह एकलव्य अपने संकल्प के कारण बिना गुरु के भी एक महान धनुर्धर बनता हैं और अपनी गुरु निष्ठा एवम गुरु दक्षिणा के लिये जाना जाता हैं |

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