Sandybook - SandybookNews, articles and Daily Current affairshttps://www.sandybook.in/latestsms/component/tags/tag/2018-06-27-05-09-552024-03-28T15:31:11+05:30sandybook.insandybook.in@gmail.comJoomla! - Open Source Content Management11 Demands by Gandhi (महात्मा गाँधी की ग्यारह सूत्री योजना )2018-06-27T20:12:38+05:302018-06-27T20:12:38+05:30https://www.sandybook.in/latestsms/modern-history/850-11-demands-by-gandhiSandybook<h1>
<span style="color:#0000CD;">11 Demands by Gandhi (महात्मा गाँधी की ग्यारह सूत्री योजना )</span>
</h1>
<p>
महात्मा गाँधी ने हिन्सात्मक घटना के चलते (चौरी-चौरा नामक स्थान पर आन्दोलनकारियों ने एक थानेदार और 21 सिपाहियों को जलाकर मार डाला) असहयोग आंदोलन को बीच में ही स्थगित कर दिया क्योंकि वे अहिंसात्मक आंदोलन के पक्ष में थे. असहयोग आन्दोलन की असफलता के बाद गाँधीजी 11 फरवरी, 1930 से सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ करना चाहते थे. लेकिन देश की स्थिति का मूल्यांकन करते हुए उन्होंने एक बार सरकार से समझौता करने का प्रयत्न किया और वायसराय लॉर्ड इरविन (Lord Irwin) को एक पत्र लिखकर निम्नलिखित ग्यारह सूत्री माँगें (11 Demands by Gandhi) पेश की –
</p>
<h2>
महात्मा गाँधी की ग्यारह सूत्री योजना – 11 Demands
</h2>
<ol>
<li>
पूर्णरूपेण मदिरा निषेध (Total Prohibition)
</li>
<li>
विनिमय की दर घटाकर एक शिलिंग चार पेंस कर दी जाए (Exchange Rate should be reduced)
</li>
<li>
भूमि लगान आधा हो और उस पर काउंसिल का नियोजन रहे (Land rate should be halved)
</li>
<li>
नमक कर को समाप्त की जाए (Salt tax should be abolished)
</li>
<li>
सेना सम्बन्धी व्यय में कम-से-कम 50% की कमी हो (Defence expenditure should be reduced by 50%)
</li>
<li>
बड़ी-बड़ी सरकारी नौकरियों का वेतन आधा कर दिया गया (Salaries of top Govt. posts should be halved)
</li>
<li>
विदेशी वस्त्रों के आयात पर निषेध कर लगे (Import of foreign textile should be banned)
</li>
<li>
भारतीय समुद्र तट केवल भारतीय जहाज़ों के लिए सुरक्षित रहे और इसके लिए कानून का निर्माण हो (Indian sea coast should be reserved for Indian ships only)
</li>
<li>
सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया जाए, राजनीतिक मामले उठा लिए जाए तथा निर्वासित भारतियों को देश वापस आने की अनुमति दी जाए (All political prisoners should be released and their political cases should be dropped)
</li>
<li>
गुप्तचर पुलिस हटा दिया जाए अथवा उस पर जनता का नियंत्रण रहे (Secret police should be either abolished or placed under the public)
</li>
<li>
आत्मरक्षा के लिए हथियार की अनुमति दी जाए (Arms for self protection be permitted)
</li>
</ol>
<p>
गाँधीजी के इन ग्यारह सूत्रीय मांगों (eleven demands by Gandhiji) पर लॉर्ड इर्विन (Lord Irwin) ने कोई ध्यान नहीं दिया जिससे उनके मन में काफी निराशा हुई और उन्होंने डांडी यात्रा के साथ सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारंभ किया क्योंकि अब सरकार के साथ समझौता की कोई गुंजाईश नहीं रही थी.
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<span style="color:#0000CD;">11 Demands by Gandhi (महात्मा गाँधी की ग्यारह सूत्री योजना )</span>
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महात्मा गाँधी ने हिन्सात्मक घटना के चलते (चौरी-चौरा नामक स्थान पर आन्दोलनकारियों ने एक थानेदार और 21 सिपाहियों को जलाकर मार डाला) असहयोग आंदोलन को बीच में ही स्थगित कर दिया क्योंकि वे अहिंसात्मक आंदोलन के पक्ष में थे. असहयोग आन्दोलन की असफलता के बाद गाँधीजी 11 फरवरी, 1930 से सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ करना चाहते थे. लेकिन देश की स्थिति का मूल्यांकन करते हुए उन्होंने एक बार सरकार से समझौता करने का प्रयत्न किया और वायसराय लॉर्ड इरविन (Lord Irwin) को एक पत्र लिखकर निम्नलिखित ग्यारह सूत्री माँगें (11 Demands by Gandhi) पेश की –
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<h2>
महात्मा गाँधी की ग्यारह सूत्री योजना – 11 Demands
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<ol>
<li>
पूर्णरूपेण मदिरा निषेध (Total Prohibition)
</li>
<li>
विनिमय की दर घटाकर एक शिलिंग चार पेंस कर दी जाए (Exchange Rate should be reduced)
</li>
<li>
भूमि लगान आधा हो और उस पर काउंसिल का नियोजन रहे (Land rate should be halved)
</li>
<li>
नमक कर को समाप्त की जाए (Salt tax should be abolished)
</li>
<li>
सेना सम्बन्धी व्यय में कम-से-कम 50% की कमी हो (Defence expenditure should be reduced by 50%)
</li>
<li>
बड़ी-बड़ी सरकारी नौकरियों का वेतन आधा कर दिया गया (Salaries of top Govt. posts should be halved)
</li>
<li>
विदेशी वस्त्रों के आयात पर निषेध कर लगे (Import of foreign textile should be banned)
</li>
<li>
भारतीय समुद्र तट केवल भारतीय जहाज़ों के लिए सुरक्षित रहे और इसके लिए कानून का निर्माण हो (Indian sea coast should be reserved for Indian ships only)
</li>
<li>
सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया जाए, राजनीतिक मामले उठा लिए जाए तथा निर्वासित भारतियों को देश वापस आने की अनुमति दी जाए (All political prisoners should be released and their political cases should be dropped)
</li>
<li>
गुप्तचर पुलिस हटा दिया जाए अथवा उस पर जनता का नियंत्रण रहे (Secret police should be either abolished or placed under the public)
</li>
<li>
आत्मरक्षा के लिए हथियार की अनुमति दी जाए (Arms for self protection be permitted)
</li>
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गाँधीजी के इन ग्यारह सूत्रीय मांगों (eleven demands by Gandhiji) पर लॉर्ड इर्विन (Lord Irwin) ने कोई ध्यान नहीं दिया जिससे उनके मन में काफी निराशा हुई और उन्होंने डांडी यात्रा के साथ सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारंभ किया क्योंकि अब सरकार के साथ समझौता की कोई गुंजाईश नहीं रही थी.
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Indian National Army in Hindi (आज़ाद हिन्द फ़ौज)2018-06-27T20:58:34+05:302018-06-27T20:58:34+05:30https://www.sandybook.in/latestsms/modern-history/854-indian-national-army-in-hindiSandybook<p>
<span style="color:#0000CD;"><span style="font-size:16px;"><strong>Indian National Army in Hindi (आज़ाद हिन्द फ़ौज)</strong></span></span>
</p>
<p>
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रूस और जर्मनी में युद्ध छिड़ गया और सुदूर पूर्व में जापानी साम्राज्यवाद अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया. 15 फरवरी, 1942 ई. को जापानियों ने सिंगापुर पर अधिकार कर लिया. इन परिस्थतियों के बीच 28 मार्च, 1942 ई. को रास बिहारी बोस ने टोक्यो में एक सम्मलेन को आहूत किया. इसमें यह निर्णय लिया गया कि भारतीय अफसरों के अधीन एक भारतीय राष्ट्रीय सेना (Indian National Army) संगठित की जाए. 23 जून, 1942 ई. को बर्मा, मलाया, थाईलैंड, हिन्दचीन, फिलीपिन्स, जापान, चीन, हांगकांग और इंडोनेशिया के प्रतिनिधियों का एक सम्मलेन रास बिहारी की अध्यक्षता में Bangkok में सम्पन्न हुआ.
</p>
<p>
इसी दौरान जापानियों ने उत्तरी मलाया में ब्रिटेन की सेना को हरा दिया. वहाँ पहले भारतीय बटालियन के कप्तान मोहन सिंह और उनके सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा. जापानियों के सुझाव से वे भारत की स्वतंत्रता के लिए जापानियों के साथ सहयोग करने को तैयार हुए. सिंगापुर के 40,000 भारतीय युद्धबंदी मोहन सिंह को दे दिए गए. मोहन सिंह चाहते थे कि आजाद हिन्द फ़ौज की स्वतंत्र कार्रवाई के लिए उन्हें स्वतंत्र रखा जाए पर जापानी इसके लिए तैयार नहीं थे. एक बार इसी मामले को लेकर जापानियों ने मोहन सिंह को गिरफ्तार भी कर लिया था पर बाद में रिहा भी कर दिया गया था.
</p>
<p>
<span style="font-size:16px;"><strong>सुभाष चन्द्र बोस</strong></span>
</p>
<p>
फरवरी, 1943 ई. में सुभाष चन्द्र बोस एक जापानी पनडुब्बी के सहयोग से टोक्यो, जापान पहुँचे और उनका वहाँ भव्य स्वागत हुआ. सिंगापुर में रास बिहारी बोस ने आजाद हिन्द फ़ौज का नेतृत्व बोस के हाँथो सौंप दिया. सुभाष चन्द्र बोस ने “दिल्ली चलो” का नारा दिया. उन्होंने आजाद हिन्द फ़ौज को लेकर हिन्दुस्तान जाने की घोषणा की. आजाद हिन्द फ़ौज को एक अस्थायी सरकार के रूप में माना गया जिसको जापान ने मान्यता भी दे दी. 31 दिसम्बर, 1943 ई. को जापान द्वारा जीता गया अंडमान निकोबार आजाद हिन्द फ़ौज के हाथो सुपुर्द कर कर दिया गया दिया गया. अंडमान का नाम बदलकर शहीद और निकोबार का नाम बदलकर स्वराज रख दिया गया.
</p>
<p>
<strong>आजाद हिन्द फ़ौज की जीत और फिर हार</strong>
</p>
<p>
जनवरी, 1944 ई. में आजाद हिन्द फ़ौज के कुछ दस्ते रंगून (Myanmar) पहुँचे. सुभाष चन्द्र बोस ने सेना की कुछ टुकड़ी रंगून में ही रहने दी और फिर शेष सेना के साथ आगे बढ़ने का फैसला लिया. मई, 1944 ई. तक आजाद हिन्द फ़ौज के कुछ सैनिक कोहिमा (नागालैंड) तक जा पहुँचे. यहाँ मिली जीत के बाद वहाँ भारतीय तिरंगा झंडा फहराया गया. ब्रिटिश सेना आजाद हिन्द फ़ौज के इस जीत से सख्ते में थी. पर उन्होंने जोर-शोर से आजाद हिन्द फ़ौज के खिलाफ कार्रवाई की और भारी सैनिक बल के साथ हमला बोला. आजाद हिन्द फ़ौज को जरुरत के समय जापानियों का सहयोग नहीं मिला और आजाद हिन्द फ़ौज की स्थिति चरमरा गयी. इसका लाभ उठाकर 1944 ई. के बीच अंग्रेजों ने फिर से रंगून पर कब्ज़ा कर लिया.
</p>
<p>
<strong>विश्लेषण</strong>
</p>
<p>
यह जरुर है कि आजाद हिन्द फ़ौज के सैनिक देश प्रेम की भावना से ओत-प्रोत थे पर वे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सके. इसके पीछे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थतियाँ जिम्मेदार थीं. जापान ने प्रारंभ से ही आजाद हिन्द फ़ौज को स्वतंत्र रूप से काम करने नहीं दिया. धन की कमी तो थी ही, आजाद हिंदी फ़ौज के सैनिकों के पास अच्छे हथियार भी नहीं थे. फिर भी इस फ़ौज के प्रयासों का प्रभाव पूरे देश पर पड़ा और देशप्रेम की लहर पूरे भारतवर्ष पर दौड़ पड़ी
</p>
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<span style="color:#0000CD;"><span style="font-size:16px;"><strong>Indian National Army in Hindi (आज़ाद हिन्द फ़ौज)</strong></span></span>
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द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रूस और जर्मनी में युद्ध छिड़ गया और सुदूर पूर्व में जापानी साम्राज्यवाद अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया. 15 फरवरी, 1942 ई. को जापानियों ने सिंगापुर पर अधिकार कर लिया. इन परिस्थतियों के बीच 28 मार्च, 1942 ई. को रास बिहारी बोस ने टोक्यो में एक सम्मलेन को आहूत किया. इसमें यह निर्णय लिया गया कि भारतीय अफसरों के अधीन एक भारतीय राष्ट्रीय सेना (Indian National Army) संगठित की जाए. 23 जून, 1942 ई. को बर्मा, मलाया, थाईलैंड, हिन्दचीन, फिलीपिन्स, जापान, चीन, हांगकांग और इंडोनेशिया के प्रतिनिधियों का एक सम्मलेन रास बिहारी की अध्यक्षता में Bangkok में सम्पन्न हुआ.
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इसी दौरान जापानियों ने उत्तरी मलाया में ब्रिटेन की सेना को हरा दिया. वहाँ पहले भारतीय बटालियन के कप्तान मोहन सिंह और उनके सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा. जापानियों के सुझाव से वे भारत की स्वतंत्रता के लिए जापानियों के साथ सहयोग करने को तैयार हुए. सिंगापुर के 40,000 भारतीय युद्धबंदी मोहन सिंह को दे दिए गए. मोहन सिंह चाहते थे कि आजाद हिन्द फ़ौज की स्वतंत्र कार्रवाई के लिए उन्हें स्वतंत्र रखा जाए पर जापानी इसके लिए तैयार नहीं थे. एक बार इसी मामले को लेकर जापानियों ने मोहन सिंह को गिरफ्तार भी कर लिया था पर बाद में रिहा भी कर दिया गया था.
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<span style="font-size:16px;"><strong>सुभाष चन्द्र बोस</strong></span>
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फरवरी, 1943 ई. में सुभाष चन्द्र बोस एक जापानी पनडुब्बी के सहयोग से टोक्यो, जापान पहुँचे और उनका वहाँ भव्य स्वागत हुआ. सिंगापुर में रास बिहारी बोस ने आजाद हिन्द फ़ौज का नेतृत्व बोस के हाँथो सौंप दिया. सुभाष चन्द्र बोस ने “दिल्ली चलो” का नारा दिया. उन्होंने आजाद हिन्द फ़ौज को लेकर हिन्दुस्तान जाने की घोषणा की. आजाद हिन्द फ़ौज को एक अस्थायी सरकार के रूप में माना गया जिसको जापान ने मान्यता भी दे दी. 31 दिसम्बर, 1943 ई. को जापान द्वारा जीता गया अंडमान निकोबार आजाद हिन्द फ़ौज के हाथो सुपुर्द कर कर दिया गया दिया गया. अंडमान का नाम बदलकर शहीद और निकोबार का नाम बदलकर स्वराज रख दिया गया.
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<strong>आजाद हिन्द फ़ौज की जीत और फिर हार</strong>
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जनवरी, 1944 ई. में आजाद हिन्द फ़ौज के कुछ दस्ते रंगून (Myanmar) पहुँचे. सुभाष चन्द्र बोस ने सेना की कुछ टुकड़ी रंगून में ही रहने दी और फिर शेष सेना के साथ आगे बढ़ने का फैसला लिया. मई, 1944 ई. तक आजाद हिन्द फ़ौज के कुछ सैनिक कोहिमा (नागालैंड) तक जा पहुँचे. यहाँ मिली जीत के बाद वहाँ भारतीय तिरंगा झंडा फहराया गया. ब्रिटिश सेना आजाद हिन्द फ़ौज के इस जीत से सख्ते में थी. पर उन्होंने जोर-शोर से आजाद हिन्द फ़ौज के खिलाफ कार्रवाई की और भारी सैनिक बल के साथ हमला बोला. आजाद हिन्द फ़ौज को जरुरत के समय जापानियों का सहयोग नहीं मिला और आजाद हिन्द फ़ौज की स्थिति चरमरा गयी. इसका लाभ उठाकर 1944 ई. के बीच अंग्रेजों ने फिर से रंगून पर कब्ज़ा कर लिया.
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<strong>विश्लेषण</strong>
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यह जरुर है कि आजाद हिन्द फ़ौज के सैनिक देश प्रेम की भावना से ओत-प्रोत थे पर वे अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सके. इसके पीछे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थतियाँ जिम्मेदार थीं. जापान ने प्रारंभ से ही आजाद हिन्द फ़ौज को स्वतंत्र रूप से काम करने नहीं दिया. धन की कमी तो थी ही, आजाद हिंदी फ़ौज के सैनिकों के पास अच्छे हथियार भी नहीं थे. फिर भी इस फ़ौज के प्रयासों का प्रभाव पूरे देश पर पड़ा और देशप्रेम की लहर पूरे भारतवर्ष पर दौड़ पड़ी
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Nehru Report 1928 in Hindi (नेहरु रिपोर्ट से जुड़े तथ्य और जानकारियाँ )2018-06-27T20:42:22+05:302018-06-27T20:42:22+05:30https://www.sandybook.in/latestsms/modern-history/853-nehru-report-1928-in-hindiSandybook<h1>
<span style="color:#0000CD;">Nehru Report 1928 in Hindi (नेहरु रिपोर्ट से जुड़े तथ्य और जानकारियाँ )</span>
</h1>
<p>
साइमन कमीशन की नियुक्ति के साथ ही भारत सचिव Lord Birkenhead ने भारतीय नेताओं को यह चुनौती दी कि यदि वे विभिन्न दलों और सम्प्रदायों की सहमति से एक संविधान तैयार कर सकें तो इंग्लैंड सरकार उस पर गंभीरता से विचार करेगी. इस चुनौती को भारतीय नेताओं ने स्वीकार करके इस बात का प्रयास किया कि साथ में मिल-जुलकर संविधान का एक प्रारूप तैयार किया जाए. इसके लिए मोतीलाल नेहरु की अध्यक्षता में एक समिति को गठित किया गया, जिसका कार्य था संविधान का प्रारूप तैयार करना. इस समिति के सचिव् जवाहर लाल नेहरु थे. इसमें अन्य 9 सदस्य भी जिनमें से एक सुभाष चन्द्र बोस थे. समिति ने अपनी रिपोर्ट 28-30 अगस्त, 1928 को प्रस्तुत की जिसे नेहरु रिपोर्ट (Nehru Report) के नाम से जाना जाता है.
</p>
<p>
<span style="font-size:16px;"><strong>Proposals of Nehru Report</strong></span>
</p>
<ol>
<li>
भारत को एक dominion state राज्य का दर्जा दिया जाए |
</li>
</ol>
<ul>
<li>
केंद्र में द्विसदनात्म्क प्रणाली की स्थापना हो |
</li>
<li>
कार्यकारिणी पूरी तरह से व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायित हो |
</li>
<li>
समस्त दायित्व भारतीय प्रतिनिधियों को सौंपा जाए |
</li>
</ul>
<p>
2. भारत में संघीय प्रणाली की स्थापना की जाए |
</p>
<ul>
<li>
<p>
अवशिष्ट शक्ति केंद्र के पास हो |
</p>
</li>
</ul>
<p>
3. सभी चुनाव क्षेत्रीय आधार पर हों |
</p>
<ul>
<li>
साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व को समाप्त कर दिया जाए |
</li>
<li>
निर्वाचन व्यस्क मताधिकार के आधार पर हो |
</li>
</ul>
<p>
4. इस रिपोर्ट में कहा गया कि कोई राज धर्म नहीं होगा |
</p>
<p>
5. पुरुषों और स्त्रियों को सामान नागरिक अधिकार देने का प्रस्ताव था |
</p>
<p>
6. नेहरु रिपोर्ट में सर्वोच्च न्यायालय के निर्माण का प्रस्ताव शामिल था |
</p>
<p>
7. Nehru Report में किसी भी समुदाय के लिए अलग मतदाताओं (electorate) या अल्पसंख्यकों के लिए वेटेज प्रदान करने का प्रावधान नहीं था |
</p>
<p>
8. नेहरु रिपोर्ट में संघीय शासन का प्रस्ताव दिया गया था जिसमें अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र को ही मिलनी थीं |
</p>
<p>
<span style="font-size:16px;"><strong>नेहरु रिपोर्ट का विरोध</strong></span>
</p>
<p>
नेहरु रिपोर्ट का जिन्ना और मुस्लिम लीग के अन्य नेताओं ने पुरजोर विरोध किया. इसके पीछे मूल कारण यह था कि इसमें साम्प्रदायिक आधार पर प्रतिनिधित्व का प्रावधान नहीं किया गया था. कांग्रेस में कुछ लोग डोमिनियन स्टेटस (dominion status) की बात से संतुष्ट नहीं थे. वे पूर्ण स्वराज को Nehru Report में शामिल किये जाने की माँग कर रहे थे. कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अन्य राजनेताओं में नेहरु रिपोर्ट के सन्दर्भ में पूर्ण सहमति नहीं होने के कारण ब्रिटिश सरकार ने रिपोर्ट को अस्वीकृत कर दिया |
</p>
<p>
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<span style="color:#0000CD;">Nehru Report 1928 in Hindi (नेहरु रिपोर्ट से जुड़े तथ्य और जानकारियाँ )</span>
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साइमन कमीशन की नियुक्ति के साथ ही भारत सचिव Lord Birkenhead ने भारतीय नेताओं को यह चुनौती दी कि यदि वे विभिन्न दलों और सम्प्रदायों की सहमति से एक संविधान तैयार कर सकें तो इंग्लैंड सरकार उस पर गंभीरता से विचार करेगी. इस चुनौती को भारतीय नेताओं ने स्वीकार करके इस बात का प्रयास किया कि साथ में मिल-जुलकर संविधान का एक प्रारूप तैयार किया जाए. इसके लिए मोतीलाल नेहरु की अध्यक्षता में एक समिति को गठित किया गया, जिसका कार्य था संविधान का प्रारूप तैयार करना. इस समिति के सचिव् जवाहर लाल नेहरु थे. इसमें अन्य 9 सदस्य भी जिनमें से एक सुभाष चन्द्र बोस थे. समिति ने अपनी रिपोर्ट 28-30 अगस्त, 1928 को प्रस्तुत की जिसे नेहरु रिपोर्ट (Nehru Report) के नाम से जाना जाता है.
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<span style="font-size:16px;"><strong>Proposals of Nehru Report</strong></span>
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भारत को एक dominion state राज्य का दर्जा दिया जाए |
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<li>
केंद्र में द्विसदनात्म्क प्रणाली की स्थापना हो |
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<li>
कार्यकारिणी पूरी तरह से व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायित हो |
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<li>
समस्त दायित्व भारतीय प्रतिनिधियों को सौंपा जाए |
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</ul>
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2. भारत में संघीय प्रणाली की स्थापना की जाए |
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अवशिष्ट शक्ति केंद्र के पास हो |
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3. सभी चुनाव क्षेत्रीय आधार पर हों |
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<li>
साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व को समाप्त कर दिया जाए |
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निर्वाचन व्यस्क मताधिकार के आधार पर हो |
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4. इस रिपोर्ट में कहा गया कि कोई राज धर्म नहीं होगा |
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5. पुरुषों और स्त्रियों को सामान नागरिक अधिकार देने का प्रस्ताव था |
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6. नेहरु रिपोर्ट में सर्वोच्च न्यायालय के निर्माण का प्रस्ताव शामिल था |
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7. Nehru Report में किसी भी समुदाय के लिए अलग मतदाताओं (electorate) या अल्पसंख्यकों के लिए वेटेज प्रदान करने का प्रावधान नहीं था |
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8. नेहरु रिपोर्ट में संघीय शासन का प्रस्ताव दिया गया था जिसमें अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र को ही मिलनी थीं |
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<span style="font-size:16px;"><strong>नेहरु रिपोर्ट का विरोध</strong></span>
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नेहरु रिपोर्ट का जिन्ना और मुस्लिम लीग के अन्य नेताओं ने पुरजोर विरोध किया. इसके पीछे मूल कारण यह था कि इसमें साम्प्रदायिक आधार पर प्रतिनिधित्व का प्रावधान नहीं किया गया था. कांग्रेस में कुछ लोग डोमिनियन स्टेटस (dominion status) की बात से संतुष्ट नहीं थे. वे पूर्ण स्वराज को Nehru Report में शामिल किये जाने की माँग कर रहे थे. कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अन्य राजनेताओं में नेहरु रिपोर्ट के सन्दर्भ में पूर्ण सहमति नहीं होने के कारण ब्रिटिश सरकार ने रिपोर्ट को अस्वीकृत कर दिया |
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Partition of Bengal 1905 in Hindi (बंगाल विभाजन )2018-06-27T20:23:28+05:302018-06-27T20:23:28+05:30https://www.sandybook.in/latestsms/modern-history/851-partition-of-bengal-1905-in-hindiSandybook<h1>
<span style="color:#0000CD;"><strong>Partition of Bengal 1905 in Hindi (बंगाल विभाजन )</strong></span>
</h1>
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लॉर्ड कर्जन एक घोर साम्राज्यवादी तथा प्रतिक्रियावादी वायसराय था. वह अंग्रेजों को भारतीयों की तुलना में अधिक श्रेष्ठ, योग्य और सभ्य मानता था. उसके दिल में भारतीयों के प्रति घृणा भरी थी और भारत को राष्ट्र मानने के लिए वह तैयार ही नहीं था. उसकी इसी रवैये ने भारत में असंतोष और उग्रवाद को बढ़ावा दिया. लॉर्ड कर्जन 1899 ई. से 1905 ई. तक भारत का वायसराय रहा. उसका सम्पूर्ण शासनकाल भूलों और गलतियों के लिए प्रसिद्ध था. ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दूत के रूप में कर्जन ने भारत में क्षोभ और असंतोष का तूफ़ान खड़ा कर नव अंकुरित राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने का काफी प्रयत्न किया. बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) की योजना बनाना उसके हर कार्य से ज्यादा खतरनाक कार्य सिद्ध हुआ
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<span style="font-size:16px;"><strong>लॉर्ड कर्जन की कूटनीति</strong></span>
</p>
<p>
हालाँकि उसने बंगाल के विभाजन को प्रशासनिक दृष्टिकोण से आवश्यक बताया था लेकिन वास्तविकता यह थी कि बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) उसकी प्रतिक्रियावादी नीति का ही परिणाम था. लॉर्ड कर्जन का तर्क था कि आकार की विशालता और कार्यभार की अधिकता के कारण बंगाल प्रांत का शासन एक गवर्नर के लिए संभव नहीं है. अतः उसने पूर्वी बंगाल और असम को मिलाकर एक अलग प्रांत बनाया जिसकी राजधानी ढाका रखी. वस्तुतः बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) का यह तर्क कर्जन का एक बहाना था. उसका वास्तविक उद्देश्य तो बंगाल की राष्ट्रीय एकता को नष्ट कर हिन्दुओं और मुसलामानों के बीच फूट डालना था. उसकी स्पष्ट नीति थी फूट डालो और शासन करो. उसने खुद कहा भी था कि “यह बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) केवल शासन की सुविधा के लिए नहीं की गई है बल्कि इसके द्वारा एक मुस्लिम प्रांत बनाया जा रहा है, जिसमें इस्लाम और उसके अनुयायियों की प्रधानता होगी.” इस प्रकार बंगाल का विभाजन (Partition of Bengal) लॉर्ड कर्जन का धूर्तता और कूटनीति से भरा कार्य था.
</p>
<p>
<span style="font-size:16px;"><strong>स्वदेशी लहर</strong></span>
</p>
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बंगाल का विभाजन (Partition of Bengal) राष्ट्रीयता के इतिहास में एक मोड़ लानेवाली घटना थी. बंगाल विभाजन ने गंगा नदी के क्षेत्र में एक आग-सी लगा दी और पूरा बंगाल अपमानित और ठगा हुआ महसूस कर रहा था. 16 अक्टूबर, 1905 ई. का दिन जिस दिन बंगाल का विभाजन हुआ, विरोध दिवस के रूप में मनाया गया. जुलूस निकले, प्रदर्शनी हुई और सड़कें वन्दे मातरम् के नारे से गूँज उठीं. बंगाल ही नहीं पूरे देश में उत्तेजना व्याप्त हो गई. विरोध के स्वर को सरकार अनसुना कर रही थी अतः बंग-भंग आन्दोलन ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार का रूप धारण कर लिया. सभी स्कूल-कॉलेज विरोध प्रकट करने लगे.
</p>
<p>
बंगाल के राष्ट्रीय आन्दोलन के कुचलने के लिए सरकार ने अपना दमनचक्र प्रारम्भ किया. लोगों को जेल में डाल दिया गया और साम्प्रदायिक विभेद फैलाकर दंगे शुरू करवाए गए. दमन के कारण खुले रूप से विद्रोह करना असंभव था. इसलिए बंगाल के नवयुवकों ने गुप्त संगठनों का निर्माण कर अस्त्र-शास्त्रों को इकठ्ठा कर हिंसात्मक ढंग से सरकार का विरोध आरम्भ कर दिया. बंगाल विभाजन से स्वदेशी आन्दोलन को बल मिल गया. विदेशी वस्त्रों को जलाना, विदेशी वस्तुओं के दुकानों पर धरना देना राजनीतिक कार्यक्रम का अंग बन गया.
</p>
<p>
बंग प्रांत को ऐसे ढंग से बाँटा गया था कि पश्चिम बंगाल की जनसँख्या लगभग 5 करोड़ 40 लाख और पूर्वीय बंगाल की जनसँख्या लगभग 3 करोड़ 10 लाख हो. बंगाल के स्वदेश और स्वभाषा का अभियान रखनेवाले भावुक निवासियों को यह बँटवारा ऐसा प्रतीत हुआ मानो किसी हत्यारे ने उनकी जन्मभूमि को किसी छुरे से काटकर दो टुकड़ों में बाँट दिया ही. सारे प्रांत में एक ऐसा रोषभरा चीत्कार प्रादुर्भूत हुआ, जिसकी प्रतिध्वनि भारत के कोने-कोने से सुनाई पड़ने लगी.
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<span style="font-size:16px;"><strong>बंगाल विभाजन के परिणाम</strong></span>
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<p>
बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) के परिणाम बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए. अब राष्ट्रवादियों का रोष चरम-सीमा तक पहुँच गया और भारत में राष्ट्रीयता की भावना प्रबल हुई. वास्तव में अब तक कोई ऐसी घटना नहीं घटी थी, जिसने भारतीय राजनीति को इस तरह प्रभावित किया हो. बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) को आन्दोलन से घबरा कर सरकार ने रद्द तो कर दिया लेकिन विरोध का जो ज्वार एक बार उठा वह फिर रुका नहीं. कर्जन ने बंगाल विभाजन के द्वारा भारतीय राष्ट्रीयता को कुचलने का प्रयास किया था पर वह और ज्यादा बाधा ही. कर्जन की इच्छा थी कि ब्रिटिश साम्राज्य सुरक्षित हो और उसे स्थायित्व प्रदान हो पर बंगाल विभाजन और अपनी प्रतिक्रियावादी नीतियों के द्वारा उसने ब्रिटिश साम्राज्य का कब्र स्वयं ही तैयार कर दिया. यह बंग-भंग योजना अगली पीढ़ी के लिए वरदान साबित हुई. भारतवासियों में एक नए उत्साह का संचार हुआ. बंगाल का विभाजन (Partition of Bengal) कर्जन की एक बड़ी भूल साबित हुई, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य को लाभ पहुँचाने की जगह हानि ही पहुँचाई.
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<span style="color:#0000CD;"><strong>Partition of Bengal 1905 in Hindi (बंगाल विभाजन )</strong></span>
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लॉर्ड कर्जन एक घोर साम्राज्यवादी तथा प्रतिक्रियावादी वायसराय था. वह अंग्रेजों को भारतीयों की तुलना में अधिक श्रेष्ठ, योग्य और सभ्य मानता था. उसके दिल में भारतीयों के प्रति घृणा भरी थी और भारत को राष्ट्र मानने के लिए वह तैयार ही नहीं था. उसकी इसी रवैये ने भारत में असंतोष और उग्रवाद को बढ़ावा दिया. लॉर्ड कर्जन 1899 ई. से 1905 ई. तक भारत का वायसराय रहा. उसका सम्पूर्ण शासनकाल भूलों और गलतियों के लिए प्रसिद्ध था. ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दूत के रूप में कर्जन ने भारत में क्षोभ और असंतोष का तूफ़ान खड़ा कर नव अंकुरित राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने का काफी प्रयत्न किया. बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) की योजना बनाना उसके हर कार्य से ज्यादा खतरनाक कार्य सिद्ध हुआ
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<span style="font-size:16px;"><strong>लॉर्ड कर्जन की कूटनीति</strong></span>
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हालाँकि उसने बंगाल के विभाजन को प्रशासनिक दृष्टिकोण से आवश्यक बताया था लेकिन वास्तविकता यह थी कि बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) उसकी प्रतिक्रियावादी नीति का ही परिणाम था. लॉर्ड कर्जन का तर्क था कि आकार की विशालता और कार्यभार की अधिकता के कारण बंगाल प्रांत का शासन एक गवर्नर के लिए संभव नहीं है. अतः उसने पूर्वी बंगाल और असम को मिलाकर एक अलग प्रांत बनाया जिसकी राजधानी ढाका रखी. वस्तुतः बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) का यह तर्क कर्जन का एक बहाना था. उसका वास्तविक उद्देश्य तो बंगाल की राष्ट्रीय एकता को नष्ट कर हिन्दुओं और मुसलामानों के बीच फूट डालना था. उसकी स्पष्ट नीति थी फूट डालो और शासन करो. उसने खुद कहा भी था कि “यह बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) केवल शासन की सुविधा के लिए नहीं की गई है बल्कि इसके द्वारा एक मुस्लिम प्रांत बनाया जा रहा है, जिसमें इस्लाम और उसके अनुयायियों की प्रधानता होगी.” इस प्रकार बंगाल का विभाजन (Partition of Bengal) लॉर्ड कर्जन का धूर्तता और कूटनीति से भरा कार्य था.
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<span style="font-size:16px;"><strong>स्वदेशी लहर</strong></span>
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बंगाल का विभाजन (Partition of Bengal) राष्ट्रीयता के इतिहास में एक मोड़ लानेवाली घटना थी. बंगाल विभाजन ने गंगा नदी के क्षेत्र में एक आग-सी लगा दी और पूरा बंगाल अपमानित और ठगा हुआ महसूस कर रहा था. 16 अक्टूबर, 1905 ई. का दिन जिस दिन बंगाल का विभाजन हुआ, विरोध दिवस के रूप में मनाया गया. जुलूस निकले, प्रदर्शनी हुई और सड़कें वन्दे मातरम् के नारे से गूँज उठीं. बंगाल ही नहीं पूरे देश में उत्तेजना व्याप्त हो गई. विरोध के स्वर को सरकार अनसुना कर रही थी अतः बंग-भंग आन्दोलन ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार का रूप धारण कर लिया. सभी स्कूल-कॉलेज विरोध प्रकट करने लगे.
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बंगाल के राष्ट्रीय आन्दोलन के कुचलने के लिए सरकार ने अपना दमनचक्र प्रारम्भ किया. लोगों को जेल में डाल दिया गया और साम्प्रदायिक विभेद फैलाकर दंगे शुरू करवाए गए. दमन के कारण खुले रूप से विद्रोह करना असंभव था. इसलिए बंगाल के नवयुवकों ने गुप्त संगठनों का निर्माण कर अस्त्र-शास्त्रों को इकठ्ठा कर हिंसात्मक ढंग से सरकार का विरोध आरम्भ कर दिया. बंगाल विभाजन से स्वदेशी आन्दोलन को बल मिल गया. विदेशी वस्त्रों को जलाना, विदेशी वस्तुओं के दुकानों पर धरना देना राजनीतिक कार्यक्रम का अंग बन गया.
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बंग प्रांत को ऐसे ढंग से बाँटा गया था कि पश्चिम बंगाल की जनसँख्या लगभग 5 करोड़ 40 लाख और पूर्वीय बंगाल की जनसँख्या लगभग 3 करोड़ 10 लाख हो. बंगाल के स्वदेश और स्वभाषा का अभियान रखनेवाले भावुक निवासियों को यह बँटवारा ऐसा प्रतीत हुआ मानो किसी हत्यारे ने उनकी जन्मभूमि को किसी छुरे से काटकर दो टुकड़ों में बाँट दिया ही. सारे प्रांत में एक ऐसा रोषभरा चीत्कार प्रादुर्भूत हुआ, जिसकी प्रतिध्वनि भारत के कोने-कोने से सुनाई पड़ने लगी.
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<span style="font-size:16px;"><strong>बंगाल विभाजन के परिणाम</strong></span>
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बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) के परिणाम बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए. अब राष्ट्रवादियों का रोष चरम-सीमा तक पहुँच गया और भारत में राष्ट्रीयता की भावना प्रबल हुई. वास्तव में अब तक कोई ऐसी घटना नहीं घटी थी, जिसने भारतीय राजनीति को इस तरह प्रभावित किया हो. बंगाल विभाजन (Partition of Bengal) को आन्दोलन से घबरा कर सरकार ने रद्द तो कर दिया लेकिन विरोध का जो ज्वार एक बार उठा वह फिर रुका नहीं. कर्जन ने बंगाल विभाजन के द्वारा भारतीय राष्ट्रीयता को कुचलने का प्रयास किया था पर वह और ज्यादा बाधा ही. कर्जन की इच्छा थी कि ब्रिटिश साम्राज्य सुरक्षित हो और उसे स्थायित्व प्रदान हो पर बंगाल विभाजन और अपनी प्रतिक्रियावादी नीतियों के द्वारा उसने ब्रिटिश साम्राज्य का कब्र स्वयं ही तैयार कर दिया. यह बंग-भंग योजना अगली पीढ़ी के लिए वरदान साबित हुई. भारतवासियों में एक नए उत्साह का संचार हुआ. बंगाल का विभाजन (Partition of Bengal) कर्जन की एक बड़ी भूल साबित हुई, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य को लाभ पहुँचाने की जगह हानि ही पहुँचाई.
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Partition of India in Hindi ( भारत का विभाजन )2018-06-27T20:06:22+05:302018-06-27T20:06:22+05:30https://www.sandybook.in/latestsms/modern-history/849-partition-of-india-in-hindiSandybook<p>
<span style="color:#0000CD;"><strong>Partition of India in Hindi ( भारत का विभाजन )</strong></span>
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<p>
कैबिनेट मिशन योजना के अंतर्गत भारत में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ सहयोग कर एक अंतरिम सरकार (interim government) का गठन किया, लेकिन मुस्लिम लीग इस अंतरिम सरकार में रहकर भी केवल व्यवधान डालने का कार्य करती रही. उससे सहयोग की अपेक्षा रखना भी शुद्ध मूर्खता थी क्योंकि वह तो पाकिस्तान के निर्माण के लिए कटिबद्ध हो चुकी थी. पूरे देश में साम्प्रदायिकता की आग फैली हुई थी और अशांति तथा अराजकता मची हुई थी. भारत की विषम साम्प्रदायिक समस्या का हल करने के लिए और कैबिनेट योजना की रक्षा के लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने लन्दन में एक सम्मलेन का आयोजन किया, लेकिन फिर भी कांग्रेस तथा लीग में समझौता नहीं हो पाया. भारत की परिस्थति ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण से बाहर हो रही थी तब उसने भारत को भारतीयों के हाल पर ही छोड़ना उचित समझा. ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने घोषणा की कि जून 1948 के पहले भारतीयों के हाथ में सत्ता सौंप दी जायेगी. इस बात पर भारत के तत्कालीन वायसराय इस घोषणा से सहमत नहीं थे अतः उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और लॉर्ड माउंटबेटन अंतरिम वायसराय बनकर भारत आये.
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<strong>माउंटबेटन योजना (Mountbatten Plan)</strong>
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<p>
वायसराय लार्ड माउंटबेटन भारत के नेताओं से बातचीत कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारत का विभाजन (Partition of India) हर हाल में होकर रहेगा. हालाँकि महात्मा गांधी ने माउंटबेटन से मिलकर इस विभाजन को रोकने का काफी प्रयत्न किया लेकिन वे असफल रहे. लॉर्ड माउंटबेटन लन्दन गए और वहां के अधिकारीयों से बातचीत कर यहाँ लौटे तथा 3 जून, 1947 को एक योजना प्रकाशित की जो “माउंटबेटन योजना” के नाम से जानी जाती है. इस योजना के अनुसार यह तय था कि ब्रिटिश सरकार भारत का प्रशासन ऐसी सरकार को सौंप देगी जो जनता की इच्छा से निर्मित हो, साथ ही यह भी तय हुआ कि जो प्रांत भारतीय संघ में सम्मिलित नहीं होना चाहते हैं उन्हें आत्म-निर्णय का अधिकार दिया जायेगा. यदि मुस्लिम-बहुल क्षेत्र के निवासी देश के विभाजन का समर्थन करते हैं तो भारत और पाकिस्तान की सीमा का निर्धारण करने के लिए एक कमीशन की नियुक्ति की जाएगी. माउंटबेटन योजना को सबसे पहले मुस्लिम लीग ने ही स्वीकार किया, बाद में कांग्रेस ने मत विभाजन के बाद इसे स्वीकार किया. मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा था कि “माउंटबेटन योजना के बाद भारत की एकता को बनाये रखने की आशा हर तरह से ख़त्म हो गई”. यह स्पष्ट है कि माउंटबेटन योजना देश के विभाजन के आधार पर ही लागू की गई थी और भारत दो भागों में बँट गया.
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4 जुलाई, 1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पेश किया गया जिसके अनुसार 15 अगस्त, 1947 को भारत दो अधिराज्यों में विभाजित हो गया. दोनों उपनिवेशों की संविधानसभा को ब्रिटिश सरकार ने सत्ता सौंप दी और जबतक संविधान का निर्माण नहीं हुआ तबतक 1935 के भारत सरकार अधिनियम के अनुसार उपनिवेशों का शासन चला तथा संविधान सभाएँ विधानमंडल के रूप में कार्य करती रहीं. पंजाब और बंगाल में सीमा निर्धारण का कार्य सीमा आयोग के हवाले कर दिया गया जिसकी अध्यक्षता रेडक्लिफ ने की. इस प्रकार माउंटबेटन योजना के द्वारा भारत का विभाजन (Partition of India) हुआ और स्वतंत्रता अधिनियम के द्वारा आजादी मिली. इस प्रकार अखंड भारत की धारणा एक स्वप्नमात्र बन के रह गई. भारत स्वतंत्र तो हुआ पर इसके लिए उसे एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी.
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<span style="font-size:16px;"><strong>भारत-विभाजन के कारण – Causes of Partition of India</strong></span>
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<strong>मुसलामानों की धार्मिक कट्टरता</strong>
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अंग्रेजों का सिद्धांत ही था फूट डालो और शासन करो. भारत-विभाजन के पीछे मुसलामानों की धार्मिक कट्टरता काफी दोषी है. उनमें शिक्षा का अभाव था और आधुनिक विचारधारा के प्रति वे उदासीन थे. वे धर्म को विशेष महत्त्व देते थे. मुसलामानों में यह भावना प्रचारित कर दी गई की भारत जैसे हिन्दू बहुसंख्यक राष्ट्र में मुसलामानों के स्वार्थ की रक्षा संभव नहीं है और उनका कल्याण एक पृथक् राष्ट्र के निर्माण से ही हो सकता है. यद्यपि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ मधुर सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया लेकिन मुहम्मद अली जिन्ना लीग की नीति में परिवर्तन के लिए तनिक भी तैयार नहीं हुए.
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<p>
साम्प्रदायिकता को अंग्रेजों का प्रोत्साहन <br />
ब्रिटिश शासकों ने भारत में साम्प्रदायिकता के प्रोत्साहन में कोई कसर नहीं छोड़ी. 1857 के विद्रोह के बाद अँगरेज़ मुसलामानों को संरक्षण देकर फूट डालने का कार्य किया क्योंकि वे अनुभाव करने लगे कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के बाद तो भारत पर उनका शासन करना मुश्किल हो जायेगा. उन्होंने अल्पसंख्यक के नाम पर मुसलामानों को आरक्षण दिया और राष्ट्रीय आंदोलं को कमजोर बनाया. 1909 में मुस्लिमों को अलग प्रतिनिधित्व देना ही भारत-विभाजन की पृष्ठभूमि बनी.
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<p>
<strong>कांग्रेस की तुष्टीकरण की राजनीति </strong>
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<p>
कांग्रेस ने प्रारम्भ से ही मुसलामानों को संतुष्ट करने की नीति अपनाकर उनका मन काफी बाधा दिया था जिसका परिणाम यह हुआ कि वे अलग राष्ट्र की मांग करने लगे. कांग्रेस की यह तुष्टीकरण की नीति उनकी भयंकर भूल थी. लखनऊ समझौते के अनुसार मुसलामानों को उनकी जनसँख्या के आधार पर पृथक् प्रतिनिधित्व दिया गया. फिर 1932 के साम्प्रदायिक निर्णय के विषय में कांग्रेस ने अस्पृश्य जातियों के अलग हो जाने के भय से जिस दुर्बलता का परिचय दिया उससे मुसलामानों का मनोबल काफी बढ़ा. स्वतंत्र भारत में मुस्लिमों का क्या भविष्य होगा, उसके सम्बन्ध में कांग्रेस कोई स्पष्ट निर्णय नहीं ले सकी और दूसरी ओर जिन्ना का एक ही नारा था कि “<strong>हिन्दू और मुसलमान दो पृथक् राष्ट्र हैं“.</strong>
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<strong>तत्कालीन परिस्थितियाँ </strong>
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<p>
भारत की तत्कालीन परिस्थतियाँ भी भारत विभाजन (Partition of India) के लिए उत्तरदाई थीं. भारत छोड़ो आन्दोलन तथा विश्वयुद्ध से उत्पन्न स्थिति, अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग को शामिल करना तथा कांग्रेस और लीग के बीच मतभेद भारत के विभाजन का कारण बनी. अंग्रेजों ने जैसे ही भारत को स्वतंत्र करने की घोषणा की, दंगे प्रारंभ हो गए. भयानक खूनखराबे से बचने के लिए विभाजन को स्वीकार करना ही पड़ा.
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<p>
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत के विभाजन (Partition of India) के बाद अखंड भारत का सपना चूर-चूर हो गया. यह भी सत्य है कि अगर विभाजन की बात स्वीकार नहीं की जाती तो केंद्र सरकार और भी दुर्बल हो जाती और पूरा राष्ट्र बर्बाद हो जाता क्योंकि मुस्लिम लीग हमेशा सरकार के कारों में हस्तक्षेप करती और विकास का कार्य ठप पड़ जाता. देश की अखंडता उसी समय फायदेमंद हो सकती थी जब मुसलामानों को संतुष्ट करने के स्थान पर सबों के साथ समान व्यवहार किया जाता. भारत-विभाजन के कारण भारत को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. अब सीमा सुरक्षा का प्रश्न काफी जटिल हो गया, हमशा भारत और पकिस्तान के बीच युद्ध और तनाव चलता रहता. कश्मीर पर अधिकार का मुद्दा हमेशा भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का कारण बनता रहा और अब भी बना हुआ है |
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<span style="color:#0000CD;"><strong>Partition of India in Hindi ( भारत का विभाजन )</strong></span>
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कैबिनेट मिशन योजना के अंतर्गत भारत में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ सहयोग कर एक अंतरिम सरकार (interim government) का गठन किया, लेकिन मुस्लिम लीग इस अंतरिम सरकार में रहकर भी केवल व्यवधान डालने का कार्य करती रही. उससे सहयोग की अपेक्षा रखना भी शुद्ध मूर्खता थी क्योंकि वह तो पाकिस्तान के निर्माण के लिए कटिबद्ध हो चुकी थी. पूरे देश में साम्प्रदायिकता की आग फैली हुई थी और अशांति तथा अराजकता मची हुई थी. भारत की विषम साम्प्रदायिक समस्या का हल करने के लिए और कैबिनेट योजना की रक्षा के लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने लन्दन में एक सम्मलेन का आयोजन किया, लेकिन फिर भी कांग्रेस तथा लीग में समझौता नहीं हो पाया. भारत की परिस्थति ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण से बाहर हो रही थी तब उसने भारत को भारतीयों के हाल पर ही छोड़ना उचित समझा. ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने घोषणा की कि जून 1948 के पहले भारतीयों के हाथ में सत्ता सौंप दी जायेगी. इस बात पर भारत के तत्कालीन वायसराय इस घोषणा से सहमत नहीं थे अतः उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और लॉर्ड माउंटबेटन अंतरिम वायसराय बनकर भारत आये.
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<strong>माउंटबेटन योजना (Mountbatten Plan)</strong>
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वायसराय लार्ड माउंटबेटन भारत के नेताओं से बातचीत कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारत का विभाजन (Partition of India) हर हाल में होकर रहेगा. हालाँकि महात्मा गांधी ने माउंटबेटन से मिलकर इस विभाजन को रोकने का काफी प्रयत्न किया लेकिन वे असफल रहे. लॉर्ड माउंटबेटन लन्दन गए और वहां के अधिकारीयों से बातचीत कर यहाँ लौटे तथा 3 जून, 1947 को एक योजना प्रकाशित की जो “माउंटबेटन योजना” के नाम से जानी जाती है. इस योजना के अनुसार यह तय था कि ब्रिटिश सरकार भारत का प्रशासन ऐसी सरकार को सौंप देगी जो जनता की इच्छा से निर्मित हो, साथ ही यह भी तय हुआ कि जो प्रांत भारतीय संघ में सम्मिलित नहीं होना चाहते हैं उन्हें आत्म-निर्णय का अधिकार दिया जायेगा. यदि मुस्लिम-बहुल क्षेत्र के निवासी देश के विभाजन का समर्थन करते हैं तो भारत और पाकिस्तान की सीमा का निर्धारण करने के लिए एक कमीशन की नियुक्ति की जाएगी. माउंटबेटन योजना को सबसे पहले मुस्लिम लीग ने ही स्वीकार किया, बाद में कांग्रेस ने मत विभाजन के बाद इसे स्वीकार किया. मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा था कि “माउंटबेटन योजना के बाद भारत की एकता को बनाये रखने की आशा हर तरह से ख़त्म हो गई”. यह स्पष्ट है कि माउंटबेटन योजना देश के विभाजन के आधार पर ही लागू की गई थी और भारत दो भागों में बँट गया.
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4 जुलाई, 1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पेश किया गया जिसके अनुसार 15 अगस्त, 1947 को भारत दो अधिराज्यों में विभाजित हो गया. दोनों उपनिवेशों की संविधानसभा को ब्रिटिश सरकार ने सत्ता सौंप दी और जबतक संविधान का निर्माण नहीं हुआ तबतक 1935 के भारत सरकार अधिनियम के अनुसार उपनिवेशों का शासन चला तथा संविधान सभाएँ विधानमंडल के रूप में कार्य करती रहीं. पंजाब और बंगाल में सीमा निर्धारण का कार्य सीमा आयोग के हवाले कर दिया गया जिसकी अध्यक्षता रेडक्लिफ ने की. इस प्रकार माउंटबेटन योजना के द्वारा भारत का विभाजन (Partition of India) हुआ और स्वतंत्रता अधिनियम के द्वारा आजादी मिली. इस प्रकार अखंड भारत की धारणा एक स्वप्नमात्र बन के रह गई. भारत स्वतंत्र तो हुआ पर इसके लिए उसे एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी.
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<span style="font-size:16px;"><strong>भारत-विभाजन के कारण – Causes of Partition of India</strong></span>
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<strong>मुसलामानों की धार्मिक कट्टरता</strong>
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अंग्रेजों का सिद्धांत ही था फूट डालो और शासन करो. भारत-विभाजन के पीछे मुसलामानों की धार्मिक कट्टरता काफी दोषी है. उनमें शिक्षा का अभाव था और आधुनिक विचारधारा के प्रति वे उदासीन थे. वे धर्म को विशेष महत्त्व देते थे. मुसलामानों में यह भावना प्रचारित कर दी गई की भारत जैसे हिन्दू बहुसंख्यक राष्ट्र में मुसलामानों के स्वार्थ की रक्षा संभव नहीं है और उनका कल्याण एक पृथक् राष्ट्र के निर्माण से ही हो सकता है. यद्यपि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ मधुर सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया लेकिन मुहम्मद अली जिन्ना लीग की नीति में परिवर्तन के लिए तनिक भी तैयार नहीं हुए.
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साम्प्रदायिकता को अंग्रेजों का प्रोत्साहन <br />
ब्रिटिश शासकों ने भारत में साम्प्रदायिकता के प्रोत्साहन में कोई कसर नहीं छोड़ी. 1857 के विद्रोह के बाद अँगरेज़ मुसलामानों को संरक्षण देकर फूट डालने का कार्य किया क्योंकि वे अनुभाव करने लगे कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के बाद तो भारत पर उनका शासन करना मुश्किल हो जायेगा. उन्होंने अल्पसंख्यक के नाम पर मुसलामानों को आरक्षण दिया और राष्ट्रीय आंदोलं को कमजोर बनाया. 1909 में मुस्लिमों को अलग प्रतिनिधित्व देना ही भारत-विभाजन की पृष्ठभूमि बनी.
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<strong>कांग्रेस की तुष्टीकरण की राजनीति </strong>
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कांग्रेस ने प्रारम्भ से ही मुसलामानों को संतुष्ट करने की नीति अपनाकर उनका मन काफी बाधा दिया था जिसका परिणाम यह हुआ कि वे अलग राष्ट्र की मांग करने लगे. कांग्रेस की यह तुष्टीकरण की नीति उनकी भयंकर भूल थी. लखनऊ समझौते के अनुसार मुसलामानों को उनकी जनसँख्या के आधार पर पृथक् प्रतिनिधित्व दिया गया. फिर 1932 के साम्प्रदायिक निर्णय के विषय में कांग्रेस ने अस्पृश्य जातियों के अलग हो जाने के भय से जिस दुर्बलता का परिचय दिया उससे मुसलामानों का मनोबल काफी बढ़ा. स्वतंत्र भारत में मुस्लिमों का क्या भविष्य होगा, उसके सम्बन्ध में कांग्रेस कोई स्पष्ट निर्णय नहीं ले सकी और दूसरी ओर जिन्ना का एक ही नारा था कि “<strong>हिन्दू और मुसलमान दो पृथक् राष्ट्र हैं“.</strong>
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<strong>तत्कालीन परिस्थितियाँ </strong>
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भारत की तत्कालीन परिस्थतियाँ भी भारत विभाजन (Partition of India) के लिए उत्तरदाई थीं. भारत छोड़ो आन्दोलन तथा विश्वयुद्ध से उत्पन्न स्थिति, अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग को शामिल करना तथा कांग्रेस और लीग के बीच मतभेद भारत के विभाजन का कारण बनी. अंग्रेजों ने जैसे ही भारत को स्वतंत्र करने की घोषणा की, दंगे प्रारंभ हो गए. भयानक खूनखराबे से बचने के लिए विभाजन को स्वीकार करना ही पड़ा.
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इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत के विभाजन (Partition of India) के बाद अखंड भारत का सपना चूर-चूर हो गया. यह भी सत्य है कि अगर विभाजन की बात स्वीकार नहीं की जाती तो केंद्र सरकार और भी दुर्बल हो जाती और पूरा राष्ट्र बर्बाद हो जाता क्योंकि मुस्लिम लीग हमेशा सरकार के कारों में हस्तक्षेप करती और विकास का कार्य ठप पड़ जाता. देश की अखंडता उसी समय फायदेमंद हो सकती थी जब मुसलामानों को संतुष्ट करने के स्थान पर सबों के साथ समान व्यवहार किया जाता. भारत-विभाजन के कारण भारत को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. अब सीमा सुरक्षा का प्रश्न काफी जटिल हो गया, हमशा भारत और पकिस्तान के बीच युद्ध और तनाव चलता रहता. कश्मीर पर अधिकार का मुद्दा हमेशा भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का कारण बनता रहा और अब भी बना हुआ है |
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Theory of Drain of Wealth ( दादाभाई नौरोजी का धन-निष्कासन का सिद्धांत )2018-06-27T20:31:17+05:302018-06-27T20:31:17+05:30https://www.sandybook.in/latestsms/modern-history/852-theory-of-drain-of-wealthSandybook<h1>
<span style="color:#0000CD;">Theory of Drain of Wealth ( दादाभाई नौरोजी का धन-निष्कासन का सिद्धांत )</span>
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सबसे पहले दादा भाई नौरोजी ने धन के निष्कासन (Drain of Wealth) से सम्बंधित अपनी किताब “Poverty and Un-British Rule in India” में अपने विचारों को रखा. भारत का अथाह धन भारत से इंग्लैंड जा रहा था. धन का यह अपार निष्कासन (Drain of Wealth) भारत को अन्दर-ही-अन्दर कमजोर बनाते जा रहा था. आज हम इस आर्टिकल में दादाभाई नौरोजी के इसी सिद्धांत (theory) की चर्चा करने वाले हैं. इस आर्टिकल में हम दादाभाई नौरोजी के धन-निष्कासन के सिद्धांत को लेकर इतिहासकारों के बीच चल रहे दो परस्पर-विरोधी मतों की भी चर्चा करेंगे और Drain of Wealth Theory के दुष्परिणाम (adverse consequences) भी जानेंगे.
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<span style="font-size:16px;"><strong>Drain of Wealth Theory </strong></span>
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ब्रिटिश शासक भारतीयों को बलपूर्वक बहुत-सी वस्तुएँ यूरोप (ब्रिटेन छोड़कर) को निर्यात के लिए बाध्य करते थे. इस निर्यात से बहुत मात्रा में आमदनी होती थी क्योंकि अधिक से अधिक माल निर्यात होता था. पर इस अतिरिक्त आय (surplus income) से ही अंग्रेज़ व्यापारी ढेर सारा माल खरीदकर उसे इंग्लैंड और दूसरी जगहों में भेज देते थे. इस प्रकार अंग्रेज़ दोनों तरफ से संपत्ति प्राप्त कर रहे थे. इन व्यापारों से भारत को कोई भी धन प्राप्त नहीं होता था. साथ ही साथ भारत से इंग्लैंड जाने वाले अंग्रेज़ भी अपने साथ बहुत सारे धन ले जाते थे. कंपनी के कर्मचारी वेतन, भत्ते, पेंशन आदि के रूप में पर्याप्त धन इकठ्ठा कर इंग्लैंड ले जाते थे. यह धन न केवल सामान के रूप में था, बल्कि धातु (सोना, चाँदी) के रूप में भी पर्याप्त धन इंग्लैंड भेजा गया. इस धन के निष्कासन (Drain of Wealth) को इंग्लैंड एक “अप्रत्यक्ष उपहार” समझकर हर वर्ष भारत से पूरे अधिकार के साथ ग्रहण करता था. भारत से कितना धन इंग्लैंड ले जाया गया, उसका कोई हिसाब नहीं है क्योंकि सरकारी आँकड़ो (ब्रिटिश आँकड़ो) के अनुसार बहुत कम धन-राशि भारत से ले जाया गया. फिर भी इस धन के निष्कासन (Drain of Wealth) के चलते भारत की अर्थव्यवस्था पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ा. धन निष्कासन (Drain of Wealth) के प्रमुख स्रोत की पहचान निम्नलिखित रूप से की गई थी :
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ईस्ट इंडिया कम्पनी के कर्मचारियों का वेतन, भत्ते और पेंशन
</li>
<li>
बोर्ड ऑफ़ कण्ट्रोल एवं बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स का वेतन व भत्ते
</li>
<li>
1858 के बाद कंपनी की सारी देनदारियाँ
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<li>
उपहार से मिला हुआ धन
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<li>
निजी व्यापार से प्राप्त लाभ
</li>
<li>
साम्राज्यवाद के विस्तार हेतु भारतीय सेना का उपयोग किया जाता था, जिससे रक्षा बजट का बोझ भारत पर ही पड़ता था (20वीं सदी की शुरुआत में यह रक्षा बजट 52% तक चला गया था)
</li>
<li>
रेल जैसे उद्योग में में धन लगाने वाले पूंजीपतियों को निश्चित लाभ का दिया जाना आदि
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<span style="font-size:16px;"><strong>इतिहासकारों में दो मत</strong></span>
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इस धन-निष्कासन (Drain of Wealth) का भारत पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा. दादाभाई नौरोजी ने इसे “अंग्रेजों द्वारा भारत का रक्त चूसने” की संज्ञा दी. कई राष्ट्रवादी इतिहासकारों और व्यक्तियों ने भी अंग्रेजों की इस नीति की कठोर आलोचना की है. इतिहासकारों का एक वर्ग (साम्राज्यवादी विचारधारा से प्रभावित) इस बात से इनकार करता है कि अंग्रेजों ने भारत का आर्थिक दोहन किया. वे यहाँ तक सोचते हैं कि इंग्लैंड को जो भी धन प्राप्त हुआ वह भारत की सेवा करने के बदले प्राप्त हुआ. उनका विचार था कि भारत में उत्तम प्रशासनिक व्यवस्था, कानून और न्याय की स्थापना के बदले ही इंग्लैंड भारत से धन प्राप्त करता था. किन्तु इस तर्क में दम नहीं है. यह सब जानते हैं कि अंग्रेजों ने भारत का आर्थिक शोषण किया. वे भारत आये ही क्यों थे? क्या उन्होंने दूसरे देशों की सेवा करने का बीड़ा उठाया था? सरकारी आर्थिक नीतियों का बहाना बना कर धन का निष्कासन (Drain of Wealth) कर भारत को गरीब बना दिया गया. यह बात इससे स्पष्ट हो जाती है कि 19वीं-20वीं शताब्दी में भारत में कई अकाल पड़े जिनमें लाखों व्यक्तियों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा. राजस्व का बहुत ही कम भाग अकाल के पीड़ितों पर व्यय किया जाता था. भूखे गांवों में खाना नहीं पहुँचाया जाता था. अंग्रेजों के इस कुकृत्य से साफ़-साफ़ पता चलता है कि वे भारत की सेवा नहीं वरन् भारत का दोहन करने आये थे.
</p>
<p>
<span style="font-size:16px;"><strong>धन-निष्कासन के दुष्परिणाम – Adverse Consequences of Drain of Wealth</strong></span>
</p>
<ol>
<li>
धन के निष्कासन (Drain of Wealth) के परिणामस्वरूप भारत में “पूँजी संचय (capital accumulation)” नहीं हो सका.
</li>
<li>
लोगों का जीवन-स्तर लगातार गिरता चला गया. गरीबी बढ़ती गई.
</li>
<li>
धन के निष्कासन के चलते जनता पर करों का बोझ बहुत अधिक बढ़ गया.
</li>
<li>
इसके साथ साथ कुटीर उद्योगों का नाश हुआ.
</li>
<li>
भूमि पर दबाव बढ़ता गया और भूमिहीन कृषि मजदूरों की संख्या बढ़ती चलती गई.
</li>
</ol>
<h1>
<span style="color:#0000CD;">Theory of Drain of Wealth ( दादाभाई नौरोजी का धन-निष्कासन का सिद्धांत )</span>
</h1>
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सबसे पहले दादा भाई नौरोजी ने धन के निष्कासन (Drain of Wealth) से सम्बंधित अपनी किताब “Poverty and Un-British Rule in India” में अपने विचारों को रखा. भारत का अथाह धन भारत से इंग्लैंड जा रहा था. धन का यह अपार निष्कासन (Drain of Wealth) भारत को अन्दर-ही-अन्दर कमजोर बनाते जा रहा था. आज हम इस आर्टिकल में दादाभाई नौरोजी के इसी सिद्धांत (theory) की चर्चा करने वाले हैं. इस आर्टिकल में हम दादाभाई नौरोजी के धन-निष्कासन के सिद्धांत को लेकर इतिहासकारों के बीच चल रहे दो परस्पर-विरोधी मतों की भी चर्चा करेंगे और Drain of Wealth Theory के दुष्परिणाम (adverse consequences) भी जानेंगे.
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<span style="font-size:16px;"><strong>Drain of Wealth Theory </strong></span>
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ब्रिटिश शासक भारतीयों को बलपूर्वक बहुत-सी वस्तुएँ यूरोप (ब्रिटेन छोड़कर) को निर्यात के लिए बाध्य करते थे. इस निर्यात से बहुत मात्रा में आमदनी होती थी क्योंकि अधिक से अधिक माल निर्यात होता था. पर इस अतिरिक्त आय (surplus income) से ही अंग्रेज़ व्यापारी ढेर सारा माल खरीदकर उसे इंग्लैंड और दूसरी जगहों में भेज देते थे. इस प्रकार अंग्रेज़ दोनों तरफ से संपत्ति प्राप्त कर रहे थे. इन व्यापारों से भारत को कोई भी धन प्राप्त नहीं होता था. साथ ही साथ भारत से इंग्लैंड जाने वाले अंग्रेज़ भी अपने साथ बहुत सारे धन ले जाते थे. कंपनी के कर्मचारी वेतन, भत्ते, पेंशन आदि के रूप में पर्याप्त धन इकठ्ठा कर इंग्लैंड ले जाते थे. यह धन न केवल सामान के रूप में था, बल्कि धातु (सोना, चाँदी) के रूप में भी पर्याप्त धन इंग्लैंड भेजा गया. इस धन के निष्कासन (Drain of Wealth) को इंग्लैंड एक “अप्रत्यक्ष उपहार” समझकर हर वर्ष भारत से पूरे अधिकार के साथ ग्रहण करता था. भारत से कितना धन इंग्लैंड ले जाया गया, उसका कोई हिसाब नहीं है क्योंकि सरकारी आँकड़ो (ब्रिटिश आँकड़ो) के अनुसार बहुत कम धन-राशि भारत से ले जाया गया. फिर भी इस धन के निष्कासन (Drain of Wealth) के चलते भारत की अर्थव्यवस्था पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ा. धन निष्कासन (Drain of Wealth) के प्रमुख स्रोत की पहचान निम्नलिखित रूप से की गई थी :
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<li>
ईस्ट इंडिया कम्पनी के कर्मचारियों का वेतन, भत्ते और पेंशन
</li>
<li>
बोर्ड ऑफ़ कण्ट्रोल एवं बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स का वेतन व भत्ते
</li>
<li>
1858 के बाद कंपनी की सारी देनदारियाँ
</li>
<li>
उपहार से मिला हुआ धन
</li>
<li>
निजी व्यापार से प्राप्त लाभ
</li>
<li>
साम्राज्यवाद के विस्तार हेतु भारतीय सेना का उपयोग किया जाता था, जिससे रक्षा बजट का बोझ भारत पर ही पड़ता था (20वीं सदी की शुरुआत में यह रक्षा बजट 52% तक चला गया था)
</li>
<li>
रेल जैसे उद्योग में में धन लगाने वाले पूंजीपतियों को निश्चित लाभ का दिया जाना आदि
</li>
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<span style="font-size:16px;"><strong>इतिहासकारों में दो मत</strong></span>
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इस धन-निष्कासन (Drain of Wealth) का भारत पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा. दादाभाई नौरोजी ने इसे “अंग्रेजों द्वारा भारत का रक्त चूसने” की संज्ञा दी. कई राष्ट्रवादी इतिहासकारों और व्यक्तियों ने भी अंग्रेजों की इस नीति की कठोर आलोचना की है. इतिहासकारों का एक वर्ग (साम्राज्यवादी विचारधारा से प्रभावित) इस बात से इनकार करता है कि अंग्रेजों ने भारत का आर्थिक दोहन किया. वे यहाँ तक सोचते हैं कि इंग्लैंड को जो भी धन प्राप्त हुआ वह भारत की सेवा करने के बदले प्राप्त हुआ. उनका विचार था कि भारत में उत्तम प्रशासनिक व्यवस्था, कानून और न्याय की स्थापना के बदले ही इंग्लैंड भारत से धन प्राप्त करता था. किन्तु इस तर्क में दम नहीं है. यह सब जानते हैं कि अंग्रेजों ने भारत का आर्थिक शोषण किया. वे भारत आये ही क्यों थे? क्या उन्होंने दूसरे देशों की सेवा करने का बीड़ा उठाया था? सरकारी आर्थिक नीतियों का बहाना बना कर धन का निष्कासन (Drain of Wealth) कर भारत को गरीब बना दिया गया. यह बात इससे स्पष्ट हो जाती है कि 19वीं-20वीं शताब्दी में भारत में कई अकाल पड़े जिनमें लाखों व्यक्तियों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा. राजस्व का बहुत ही कम भाग अकाल के पीड़ितों पर व्यय किया जाता था. भूखे गांवों में खाना नहीं पहुँचाया जाता था. अंग्रेजों के इस कुकृत्य से साफ़-साफ़ पता चलता है कि वे भारत की सेवा नहीं वरन् भारत का दोहन करने आये थे.
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<span style="font-size:16px;"><strong>धन-निष्कासन के दुष्परिणाम – Adverse Consequences of Drain of Wealth</strong></span>
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धन के निष्कासन (Drain of Wealth) के परिणामस्वरूप भारत में “पूँजी संचय (capital accumulation)” नहीं हो सका.
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लोगों का जीवन-स्तर लगातार गिरता चला गया. गरीबी बढ़ती गई.
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धन के निष्कासन के चलते जनता पर करों का बोझ बहुत अधिक बढ़ गया.
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इसके साथ साथ कुटीर उद्योगों का नाश हुआ.
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भूमि पर दबाव बढ़ता गया और भूमिहीन कृषि मजदूरों की संख्या बढ़ती चलती गई.
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स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी और आर्य समाज2018-06-27T10:49:10+05:302018-06-27T10:49:10+05:30https://www.sandybook.in/latestsms/modern-history/844-2018-06-27-05-19-10Sandybook<p>
उन्नीसवीं शताब्दी यूँ तो समाज सुधारकों और धर्म सुधारकों का युग है और इस युग में कई ऐसे महापुरुष हुए जिन्होनें समाज में व्याप्त अन्धकार को दूर कर नयी किरण दिखाने की चेष्टा की. इनमें आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती (Swami Dayananda Saraswati) का नाम सर्वप्रमुख है. स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से भारतीय संस्कृति को एक श्रेष्ठ संस्कृति के रूप में पुनर्स्थापित किया. ये हिन्दू समाज के रक्षक थे. आर्य समाज आन्दोलन भारत के बढ़ते पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था. उन्होंने “वेदों की और लौटने – Back to Veda” का नारा बुलंद किया था. आज हम दयानंद सरस्वती के जीवन और उनके द्वारा संस्थापित आर्य समाज (Arya Samaj) के विषय में पढ़ें
</p>
<p>
<span style="font-size:16px;"><strong>दयानंद सरस्वती का जन्म</strong></span>
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<p>
स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 1824 ई. में काठियावाड़, गुजरात में हुआ था. उनके बचपन का नाम मूलशंकर था. बालक मूलशंकर को अपने बाल्यकाल से ही सामजिक कुरीतियों और धार्मिक आडम्बरों से चिढ़ थी. स्वामी दयानंद को भारत के प्राचीन धर्म और संस्कृति में अटूट आस्था थी. उनका कहना था कि वेद भगवान् द्वारा प्रेरित हैं और समस्त ज्ञान के स्रोत हैं. उनके अनुसार वैदिक धर्म के प्रचार से ही व्यक्ति, समाज और देश की उन्नति संभव है. अतः दयानंद सरस्वती ने अपने देशवासियों को पुनः वेदों की ओर लौटने का सन्देश दिया. आर्य समाज की स्थापना के द्वारा उन्होंने हिन्दू समाज में नवचेतना का संचार किया |
</p>
<p>
<span style="font-size:16px;"><strong>कुरीतियों पर प्रहार</strong></span>
</p>
<p>
देश में प्रचलित सभी धार्मिक और सामजिक कुरीतियों के खिलाफ स्वामी दयानंद सरस्वती ने बड़ा कदम उठाया. उन्होंने जाति भेद, मूर्ति पूजा, सती-प्रथा, बहु विवाह, बाल विवाह, बलि-प्रथा आदि प्रथाओं का घोर विरोध किया. दयानंद सरस्वती ने पवित्र जीवन तथा प्राचीन हिन्दू आदर्श के पालन पर बल दिया. उन्होंने विधवा विवाह और नारी शिक्षा की भी वकालत की. सबसे ज्यादा उन्हें जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता से चिढ़ थी और इसे समाप्त करने के लिए उन्होंने कई कठोर कदम उठाए. आर्य समाज की स्थापना कर उन्होंने अपने सारे विचारों को मूर्त रूप प्रदान करने की चेष्टा की. 1877 ई. में लाहौर में आर्य समाज के शाखा की स्थापना की गई थी (a branch was established).
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<p>
<span style="font-size:16px;"><strong>आर्य समाज (Arya Samaj) के सिद्धांत </strong></span>
</p>
<ol>
<li>
ईश्वर एक है, वह सत्य और विद्या का मूल स्रोत है |
</li>
<li>
ईश्वर सर्वशक्तिमान, निराकार, न्यायकारी, दयालु, अजर, अमर और सर्वव्यापी है, अतः उसकी उपासना की जानी चाहिए |
</li>
<li>
सच्चा ज्ञान वेदों में निहित है और आर्यों का परम धर्म वेदों का पठन-पाठन है |
</li>
<li>
प्रत्येक व्यक्ति को सदा सत्य ग्रहण करने तथा असत्य का त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए |
</li>
<li>
समस्त समाज का प्रमुख उद्देश्य मनुष्य जाति की शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक उन्नति होनी चाहिए. तभी समस्त विश्व का कल्याण संभव है |
</li>
<li>
अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए तथा पारस्परिक सम्बन्ध का आधार प्रेम, न्याय और धर्म होना चाहिए |
</li>
<li>
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उन्नति और भलाई में ही संतुष्ट नहीं रहना चाहिए बल्कि सब की भलाई में अपनी भलाई समझनी चाहिए |
</li>
<li>
प्रत्येक आदमी को व्यक्तिगत मामलों में आचरण की स्वतंत्रता रहनी चाहिए. लेकिन सर्वहितकारी नियम पालन सर्वोपरि होना चाहिए |
</li>
</ol>
<p>
स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना कर भारत के सामजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन को नई दिशा प्रदान की. वे दलितों के उत्थान, स्त्रियों के उद्धार के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व कार्य किये. उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य को प्रोत्साहन दिया. हिंदी भाषा में ग्रंथों की रचना कर इन्होंने राष्ट्रीय गौरव बढ़ाया. इनके पूर्व भारतीय समाज में स्त्री शिक्षा की कोई भी व्यवस्था नहीं थी. इन्होंने स्त्रियों को शिक्षित बनाने पर बल दिया और वेद-पाठ करने की आज्ञा दी. संस्कृत भाषा के महत्त्व को पुनः स्थापित किया गया. इन्होनें ब्रह्मचर्य और चरित्र-निर्माण की दृष्टि से प्राचीन गुरुकुल प्रणाली के द्वारा छात्रों को शिक्षित करने की प्रथा शुरू की.
</p>
<p>
इस प्रकार स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से न केवल हिन्दू धर्म को नया रूप देने की चेष्टा की बल्कि समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को दूर कर उसे शिक्षित तथा सभी बनाने का प्रयास भी किया.
</p>
<p>
<span style="font-size:16px;"><strong>दयानंद सरस्वती की मृत्यु</strong></span>
</p>
<p>
दयानंद सरस्वती (Swami Dayanand Saraswati’s demise) की मृत्यु के बाद आर्य समाज दो भागों में बँट गया. एक दल का नेतृत्व लाला हरदयाल करते थे जो पश्चिमी शिक्षा पद्धति के समर्थक थे, दूसरे दल का नेतृत्व महात्मा मुंशी राम करते थे जो प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के समर्थक थे. आर्य समाज के प्रयास से अनेक अनाथालयों, गोशालाओं और विधवा आश्रमों का निर्माण किया गया. इस प्रकार हम देखते हैं कि दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज आन्दोलन के माध्यम से हिन्दू समाज में नवचेतना और आत्मसम्मान का संचार किया. इस आन्दोलन के द्वारा धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में जो परिवर्तन हुआ उससे एक नयी राजनीतिक चेतना का जन्म हुआ और हमने अपनी संस्कृति की रक्षा हेतु अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की.
</p>
<p>
<a href="https://www.sandybook.in/latestsms/index.php?option=com_content&view=article&id=846&catid=11">महर्षि दयानंद सरस्वती की जीवनी </a> | <a href="https://www.sandybook.in/latestsms/index.php?option=com_content&view=article&id=845&catid=11">Swami Dayanand Saraswati</a>
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उन्नीसवीं शताब्दी यूँ तो समाज सुधारकों और धर्म सुधारकों का युग है और इस युग में कई ऐसे महापुरुष हुए जिन्होनें समाज में व्याप्त अन्धकार को दूर कर नयी किरण दिखाने की चेष्टा की. इनमें आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती (Swami Dayananda Saraswati) का नाम सर्वप्रमुख है. स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से भारतीय संस्कृति को एक श्रेष्ठ संस्कृति के रूप में पुनर्स्थापित किया. ये हिन्दू समाज के रक्षक थे. आर्य समाज आन्दोलन भारत के बढ़ते पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था. उन्होंने “वेदों की और लौटने – Back to Veda” का नारा बुलंद किया था. आज हम दयानंद सरस्वती के जीवन और उनके द्वारा संस्थापित आर्य समाज (Arya Samaj) के विषय में पढ़ें
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<span style="font-size:16px;"><strong>दयानंद सरस्वती का जन्म</strong></span>
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स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 1824 ई. में काठियावाड़, गुजरात में हुआ था. उनके बचपन का नाम मूलशंकर था. बालक मूलशंकर को अपने बाल्यकाल से ही सामजिक कुरीतियों और धार्मिक आडम्बरों से चिढ़ थी. स्वामी दयानंद को भारत के प्राचीन धर्म और संस्कृति में अटूट आस्था थी. उनका कहना था कि वेद भगवान् द्वारा प्रेरित हैं और समस्त ज्ञान के स्रोत हैं. उनके अनुसार वैदिक धर्म के प्रचार से ही व्यक्ति, समाज और देश की उन्नति संभव है. अतः दयानंद सरस्वती ने अपने देशवासियों को पुनः वेदों की ओर लौटने का सन्देश दिया. आर्य समाज की स्थापना के द्वारा उन्होंने हिन्दू समाज में नवचेतना का संचार किया |
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<span style="font-size:16px;"><strong>कुरीतियों पर प्रहार</strong></span>
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देश में प्रचलित सभी धार्मिक और सामजिक कुरीतियों के खिलाफ स्वामी दयानंद सरस्वती ने बड़ा कदम उठाया. उन्होंने जाति भेद, मूर्ति पूजा, सती-प्रथा, बहु विवाह, बाल विवाह, बलि-प्रथा आदि प्रथाओं का घोर विरोध किया. दयानंद सरस्वती ने पवित्र जीवन तथा प्राचीन हिन्दू आदर्श के पालन पर बल दिया. उन्होंने विधवा विवाह और नारी शिक्षा की भी वकालत की. सबसे ज्यादा उन्हें जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता से चिढ़ थी और इसे समाप्त करने के लिए उन्होंने कई कठोर कदम उठाए. आर्य समाज की स्थापना कर उन्होंने अपने सारे विचारों को मूर्त रूप प्रदान करने की चेष्टा की. 1877 ई. में लाहौर में आर्य समाज के शाखा की स्थापना की गई थी (a branch was established).
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<span style="font-size:16px;"><strong>आर्य समाज (Arya Samaj) के सिद्धांत </strong></span>
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ईश्वर एक है, वह सत्य और विद्या का मूल स्रोत है |
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ईश्वर सर्वशक्तिमान, निराकार, न्यायकारी, दयालु, अजर, अमर और सर्वव्यापी है, अतः उसकी उपासना की जानी चाहिए |
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सच्चा ज्ञान वेदों में निहित है और आर्यों का परम धर्म वेदों का पठन-पाठन है |
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प्रत्येक व्यक्ति को सदा सत्य ग्रहण करने तथा असत्य का त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए |
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समस्त समाज का प्रमुख उद्देश्य मनुष्य जाति की शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक उन्नति होनी चाहिए. तभी समस्त विश्व का कल्याण संभव है |
</li>
<li>
अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए तथा पारस्परिक सम्बन्ध का आधार प्रेम, न्याय और धर्म होना चाहिए |
</li>
<li>
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उन्नति और भलाई में ही संतुष्ट नहीं रहना चाहिए बल्कि सब की भलाई में अपनी भलाई समझनी चाहिए |
</li>
<li>
प्रत्येक आदमी को व्यक्तिगत मामलों में आचरण की स्वतंत्रता रहनी चाहिए. लेकिन सर्वहितकारी नियम पालन सर्वोपरि होना चाहिए |
</li>
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स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना कर भारत के सामजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन को नई दिशा प्रदान की. वे दलितों के उत्थान, स्त्रियों के उद्धार के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व कार्य किये. उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य को प्रोत्साहन दिया. हिंदी भाषा में ग्रंथों की रचना कर इन्होंने राष्ट्रीय गौरव बढ़ाया. इनके पूर्व भारतीय समाज में स्त्री शिक्षा की कोई भी व्यवस्था नहीं थी. इन्होंने स्त्रियों को शिक्षित बनाने पर बल दिया और वेद-पाठ करने की आज्ञा दी. संस्कृत भाषा के महत्त्व को पुनः स्थापित किया गया. इन्होनें ब्रह्मचर्य और चरित्र-निर्माण की दृष्टि से प्राचीन गुरुकुल प्रणाली के द्वारा छात्रों को शिक्षित करने की प्रथा शुरू की.
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इस प्रकार स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से न केवल हिन्दू धर्म को नया रूप देने की चेष्टा की बल्कि समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को दूर कर उसे शिक्षित तथा सभी बनाने का प्रयास भी किया.
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<span style="font-size:16px;"><strong>दयानंद सरस्वती की मृत्यु</strong></span>
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दयानंद सरस्वती (Swami Dayanand Saraswati’s demise) की मृत्यु के बाद आर्य समाज दो भागों में बँट गया. एक दल का नेतृत्व लाला हरदयाल करते थे जो पश्चिमी शिक्षा पद्धति के समर्थक थे, दूसरे दल का नेतृत्व महात्मा मुंशी राम करते थे जो प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के समर्थक थे. आर्य समाज के प्रयास से अनेक अनाथालयों, गोशालाओं और विधवा आश्रमों का निर्माण किया गया. इस प्रकार हम देखते हैं कि दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज आन्दोलन के माध्यम से हिन्दू समाज में नवचेतना और आत्मसम्मान का संचार किया. इस आन्दोलन के द्वारा धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में जो परिवर्तन हुआ उससे एक नयी राजनीतिक चेतना का जन्म हुआ और हमने अपनी संस्कृति की रक्षा हेतु अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की.
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<a href="https://www.sandybook.in/latestsms/index.php?option=com_content&view=article&id=846&catid=11">महर्षि दयानंद सरस्वती की जीवनी </a> | <a href="https://www.sandybook.in/latestsms/index.php?option=com_content&view=article&id=845&catid=11">Swami Dayanand Saraswati</a>
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