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Ancient History - भारत पर हूणों का आक्रमण और उसका प्रभाव:

हूण कौन थे?

हूण मूलतः मध्य एशिया की एक जंगली और बर्बर जाति थे. जनसंख्या बढ़ जाने के कारण और कुछ अन्य कारणों से उनको मध्य एशिया छोड़कर भागना पड़ा. ये लोग दो  भागों में बंट गए. इनका एक दल वोल्गा नदी की ओर गया और दूसरा वक्षनद (आक्सस) की घाटी की ओर बढ़ा. जो दल वक्षनद की घाटी की ओर आया था, वह धीरे धीरे फारस में घुस गया. वहां से वे लोग अफगानिस्तान में आये और उन्होंने गांधार पर कब्ज़ा कर लिया. इसके बाद उन्होंने भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित शक और कुषाण राज्यों को नष्ट कर दिया. तत्पश्चात् इन लोगों ने भारत में प्रवेश किया. थोड़े ही समय में इन लोगों ने भारत के उत्तर-पश्चिम में अपना अधिकार कर लिया.

भारत पर आक्रमण:

भारत पर हूणों का पहला आक्रमण 458 ई. में हुआ. उस समय गुप्त सम्राट कुमार गुप्त गद्दी पर था. उसने युवराज स्कन्दगुप्त को हूणों का सामना करने का उत्तरदायित्व सौंपा. स्कन्दगुप्त ने हूणों को बुरी तरह पराजित कर दिया. इसी विजय की याद में उसने विष्णु स्तम्भ बनवाया. भारत से हारकर हूण बहुत निराश हुए. जब तक स्कन्दगुप्त जीवित रहा, हूण भारत में अपने पैर नहीं जमा सके. उन्होंने फिर ईरान की ओर ध्यान दिया. सारे ईरान को नष्ट करके उन्होंने अपनी शक्ति और भी मजबूत कर ली. इस प्रकार शक्ति एकत्रित करके हूणों ने 30 वर्ष बाद भारत पर फिर आक्रमण किया. हूणों के प्रमुख सरदार तोरमाण और उसका पुत्र मिहिरकुल थे. लेकिन स्कन्दगुप्त के बाद कोई शक्तिशाली शासक नहीं हुआ, जो हूणों का सामना कर सकता. अतः छठी शताब्दी के आरम्भ तक हूणों ने भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में एक बहुत बड़े भाग पर अधिकार कर लिया. धीरे-धीरे हूणों ने गुप्त साम्राज्य को लूटकर उसे छिन्न-भिन्न कर दिया.

हूणों के आक्रमणों का प्रभाव:

यद्यपि हूणों का अधिकार भारत में एक छोटे से भाग पर तथा थोड़े समय तक ही रहा, पर उसका प्रभाव भारत के राजनैतिक और सामजिक क्षेत्र में पड़े बिना नहीं रह सका. भारत पर हूणों का जो प्रभाव पड़ा, उसका वर्णन नीचे दिया गया है.

ऐतिहासिक प्रकरणों का विनाश

हूण असभ्य और बर्बर थे. उन्होंने अपने आक्रमण और शासन की अवधि में अनेक मठ, मंदिर और ईमारतें नष्ट कर दीन और अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थों का विनाश कर दिया. इस प्रकार ऐसी बहुत-सी सामग्री समाप्त हो गई, जिससे उस समय के इतिहास के बारे में बहुत मूल्यवान जानकारी प्राप्त की जा सकती थी.

राजनीतिक प्रभाव

हूणों के आक्रमण का सबसे बुरा प्रभाव गुप्त साम्राज्य पर पड़ा. अनेक आक्रमणों ने उसे नष्ट कर दिया. स्कंदगुप्त के समय में हूणों को पहली बार करारी हार खानी पड़ी. जब तक स्कन्दगुप्त जीवित रहा, हूणों की दाल नहीं गल पाई. पर उसकी मृत्यु के बाद कोई भी ऐसी शक्तिशाली गुप्त शासक नहीं हुआ जो उनका सामना कर सकता था. हूणों ने स्थिति का लाभ उठाया और विशाल गुप्त सम्राट नष्ट हो गया. इतना ही नहीं, गुप्त साम्राज्य के नष्ट होने से भारत की राजनैतिक एकता भी नष्ट हो गई और सारा साम्राज्य छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो गया.

सांस्कृतिक प्रभाव

हूणों की बर्बरता ने भारत के सांस्कृतिक जीवन को काफी ठेस पहुँचाई. विद्वानों और कलाकारों का वध करके, साहित्यिक, सांस्कृतिक पुस्तकें जलाकर मठों, विहारों और इमारतों को नष्ट करके उन्होंने भारत की संस्कृति को बहुत क्षति पहुँचाई.


बिंदुसार (298 ई.पू. – 273 ई.पू.) का जीवन:

चन्द्रगुप्त के बाद उसका पुत्र बिंदुसार (Bindusara) सम्राट बना. आर्य मंजुश्री मूलकल्प के अनुसार जिस समय चन्द्रगुप्त ने उसे राज्य दिया उस समय वह अल्प-व्यस्क था. यूनानी लेखकों ने उसे अमित्रोचेडस (Amitrochades) अथवा अमित्राचेटस (Amitrachates) या अलित्रोचेडस (Allitrochades) के नाम से पुकारा है. विद्वानों के अनुसार इन शब्दों का संस्कृत रूप अमित्रघात अथवा अमित्रखाद (शत्रुओं का विनाश करने वाला) है.

इतिहासकारों का मत 

तारानाथ ने लिखा है कि बिन्दुसार और चाणक्य ने लगभग 16 नगरों के राजाओं को नष्ट किया और पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों के बीच के सारे प्रदेश को अपने आधिपत्य में ले लिया. इससे प्रतीत होता है कि दक्षिण भारत की विजय बिन्दुसार ने की, किन्तु जैन अनुश्रुति के अनुसार यह कार्य चन्द्रगुप्त ने ही कर लिया था. अशोक के अभिलेखों से यह स्पष्ट है कि दक्षिण भारत मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित था, अशोक ने केवल कलिंग को जीता. इसलिए दक्षिण भारत की विजय चन्द्रगुप्त या बिंदुसार ने ही की होगी. बिन्दुसार कुछ आनंदप्रिय शासक प्रतीत होता है इसलिए यह अधिक संभव प्रतीत होता है कि यह कार्य चन्द्रगुप्त ने ही किया हो.

बिंदुसार का राज्यकाल 

बिंदुसार के राज्यकाल में प्रांतीय अधिकारियों के अत्याचार के कारण तक्षशिला के प्रांत में विद्रोह हुआ. बिंदुसार का बड़ा पुत्र सुषीम उस प्रांत का शासक था. जब वह इस विद्रोह को न दबा सका तो अशोक को इस काम के लिए भेजा गया. उसने पूर्णतया विद्रोह को दबाकर शांति स्थापित की.

विद्रोहों का दमन

दिव्यावदान (बौद्ध कथाओं का ग्रंथ) के अनुसार उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला में दो विद्रोह हुए. प्रथम विद्रोह को शांत करने के लिए बिंदुसार ने अपने पुत्र अशोक को भेजा. जब अशोक तक्षशिला पहुँचा तो वहाँ के लोगों ने आग्रह किया कि ” न तो हम कुमार के विरुद्ध हैं और न ही सम्राट बिंदुसार के. परन्तु दुष्ट अमात्य हमारा अपमान करते हैं.” ऐसा प्रतीत होता है कि सीमान्त प्रदेशों का शासन दमनपूर्ण था और वहाँ के लोग अपने प्रांतीय गवर्नरों से असंतुष्ट थे. इसी प्रांत में दूसरे विद्रोह को दबाने के लिए बिंदुसार ने कुमार सुसीम को भेजा था. एक अन्य विद्रोह का उल्लेख मिलता है जो स्वश (रवस्या) राज्य में हुआ. स्टीन महोदय के अनुसार यह स्वश राज्य कश्मीर के दक्षिण-पश्चिम फैला हुआ था. कुछ भारतीय इतिहासकारों के अनुसार यह नेपाल के नजदीक था.

विदेशी देशों से संबंध

बिंदुसार ने विदेशों से भी शांतिपूर्ण समबन्ध रखे. यूनान के राजा डेइमेकस नामक राजदूत को और मिस्र के राजा ने डायनीसियस (Dionisias) नामक राजदूत को बिंदुसार के दरबार में भेजा. कहा जाता है कि उसने सीरिया के राजा एंटिओकस (Antiochus) को लिखा था कि वह अपने देश से कुछ मधुर मदिरा, सूखे अंजीर और एक दार्शनिक भेज दे. उत्तर में सीरिया के शासक ने लिखा कि पहली दो वस्तुएँ तो वह बड़ी प्रसन्नता से भेज देगा, किन्तु सीरिया के नियमों को ध्यान में रखते हुए दार्शनिक भेजना संभव नहीं है. पत्र-व्यवहार से स्पष्ट है कि बिंदुसार को दर्शन-शास्त्र में रूचि थी और उसके समय में भारत और पश्चिमी देशों में सामाजिक, व्यापारिक और कूटनीतिक सम्बन्ध विद्यमान थे.

मृत्यु

पुराणों के अनुसार बिंदुसार ने 25 वर्ष तक राज्य किया. इस तथ्य के आधार पर कहा जाता है कि उसने 298 ई.पू. से 273 ई.पू. तक राज्य किया. किन्तु महावंश (पाली भाषा में लिखी पद्य रचना) के अनुसार उसने 27 वर्ष तक राज्य किया.


विजयनगर साम्राज्य की स्थापना – Vijayanagara Empire

मुहम्मद तुगलक के शासनकाल (1324-1351 ई.) के अंतिम समय में (उसकी गलत नीतियों के कारण) जब अधिकाँश स्थानों पर अव्यवस्था फैली और अनेक प्रदेशों के शासकों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया तो दक्षिण के हिन्दू भी इससे लाभ उठाने से नहीं चूके. उन्होंने विजयनगर साम्राज्य (Vijayanagar Empire) की स्थापना सन 1336 ई. में पाँच भाइयों (हरिहर, कंपा प्रथम, बुक्का प्रथम, मारप्पा और मदुप्पा) के परिवार के दो सदस्यों, हरिहर और बुक्का के नेतृत्व में की.

विजयनगर साम्राज्य

 

अनेक शिलालेखों के अनुसार हरिहर और बुक्का याद परिवार किए किसी चन्द्रवंशी संगम के पुत्र थे. ये दोनों भाई वारंगल राज्य (warangal rajya) के शासक प्रतापरूद्र द्वितीय की सेवा में थे. जब गयासुद्दीन तुगलक ने वारंगल को 1323 ई. में जीत लिया तो वे काम्पलि चले आये. मुहम्मद तुगलक के विरुद्ध उसके चहेरे भाई बहाउद्दीन गुर्शप ने 1325 ई. में कर्नाटक में सागर नामक स्थान पर विद्रोह कर दिया और सुलतान ने स्वयं जाकर उसके विद्रोह को दबाया. उसने (बहाउद्दीन गुर्शप) कर्नाटक में स्थित काम्पलि को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया. मुहम्मद तुगलक जिन छः अधिकारियों को काम्पलि से बंदी बनाकर दिल्ली ले गया था उनमें से ये दोनों भाई थे संभवतः उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया (या जबरदस्ती स्वीकार करा लिया गया) और वे सुलतान के कृपा पात्र बन गए. मुहम्मद तुगलक के विरुद्ध 1327-28 ई. में दक्षिण राज्यों में विद्रोह की एक शृंखला शुरू (बीदर, दौलताबाद, गुलबर्गा, मुदरा, तेलंगाना आर काम्पलि) हो गई. मुहम्मद तुगलक ने हरिहर और बुक्का को दक्षिण के काम्पलि प्रांत में भेजा ताकि वे विद्रोही हिंदुओं को कुचलकर वहाँ से सूबेदार मालिक मुहम्मद से शासन अपने हाथों में लेले. इन दोनों के दक्षिण जाने के बाद सचमुच वहाँ क्या हुआ, यह मुस्लिम इतिहासकारों और हिन्दू परम्परागत कथाओं के परस्पर विरोधी वर्णनों के कारण बिल्कुल स्पष्ट नहीं है. फिर भी एक बात पर दोनों स्रोत सहमत हैं कि इन दोनों भाइयों ने इस्लाम को शीघ्र ही तिलांजलि दे दी और स्वतंत्र विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की.

उन्होंने अपने पिता विजय के नाम को अमर करने के लिए काम्पलि (आधुनिक कर्नाटक राज्य में) के विद्यारण्य नामक संत के प्रभाव में आकर इस राज्य की नींव रखी थी और मुहम्मद तुगलक से स्वतंत्रता की घोषणा कर दी.

चार राजवंश 

इस राज्य में 1336 ई. से लेकर 1565 ई. तक चार राजवंशों – संगम वंश (1336-1485), सालुव वंश/ Saluva dynasty (1485-1505), तुलुव वंश/Tuluva dynasty (1491-1570) और अरविडु वंश/Aravidu dynasty (1542-1646) ने शासन किया. इनमें से प्रथम दो राजवंश (अर्थात् संगम और सालुंव) संयुक्त बहमनी साम्राज्य के समकालीन थे जबकि तृतीय राजवंश (अर्थात् तुलुब) बहमनी राज्य के विघटन के बाद बनी पाँच मुस्लिम रियासतों (बीदर, बरार, बीजापुर, अहमदनगर और गोलकुंडा) का समकालीन था.


पुरापाषाण, मध्यपाषाण और नवपाषाण काल के विषय में स्मरणीय तथ्य

भारतीय विद्वान् अनुमानतः कहते हैं कि लगभग 5 लाख वर्ष ई.पू. के आसपास यह देश मानव का निवास स्थान बना. चूँकि इस युग के लोग अपनी सभी आवश्यकताओं को केवल पाषाण (पत्थर) के उपकरणों की सहायता से ही पूरा करते थे इसलिए इस युग को पाषाण युग कहते हैं. अब तक जितने भी प्रमाण प्राप्त हुए हैं, उनके आधार पर 5 लाख ई.पू. से 2500 ई. तक के काल को भारतीय मानव की प्रगति का प्रागैतिहासिक युग माना जाता है. इस पाषाण काल को विद्वानों ने निम्न तीन भागों में (भारतीय मानव द्वारा प्रयोग किये गए पाषाण उपकरणों और जीवन पद्धति में समय-समय पर आये परिवर्तनों के आधार पर) विभाजित किया है –

पुरापाषाण (Paleolithic Age)

आरम्भ में माना जाता था कि पृथ्वी ईश्वर द्वारा बनाई गई है. परन्तु, वैज्ञानिकों ने इस धारणा को बदला. पहले मानव बन्दर की तरह झुककर हाथ और पैर दोनों से चलता था. बाद में वह सीधे खड़े होकर आज शाहरुख खान जैसे चलने लगा. दोनों हाथों के free हो जाने से वह इनसे अनेक काम करने लगा. बाद में तो मस्तिष्क से सोचने का काम करने लगा और आज विज्ञान हमारे सामने है.

  1. जिस समय आरंभिक मानव पत्थर का प्रयोग करता था, उस समय को पुरातत्त्वविदों ने पुरापाषाण काल नाम दिया है.
  2. यह शब्द प्राचीन और पाषाण (पत्थर) से बना है.
  3. यह वह कल था जब मनुष्य ने पत्थरों का प्रयोग सबसे अधिक किया.
  4. पुरातत्त्वविदों के अनुसार, पुरापाषाण काल की अवधि बीस लाख साल पूर्व से बारह हजार साल पहले तक है.
  5. इस युग को तीन भागों में बाँटा गया है – आरंभिक, मध्य और उत्तर पुरापाषाण युग.
  6. माना जाता है कि मनुष्य इस युग में सबसे अधिक दिनों तक रहा है.
  7. इस युग में मनुष्य खेती नहीं करता था बल्कि पत्थरों का प्रयोग कर शिकार करता था.
  8. इस युग में लोग गुफाओं में रहते थे.
  9. इस युग में सबसे महत्त्वपूर्ण काम जो मानव ने सीखा, वह था आग को जलाना. आग का उपयोग विभिन्न कार्यों के लिए होने लगा.
  10. दक्षिण भारत में कुरनूल की गुफाओं में इस युग की राख के अवशेष प्राप्त हुए हैं.
  11. पुरातत्त्वविदों ने पुणे-नासिक क्षेत्र, कर्नाटक के हुँस्गी-क्षेत्र, आंध्र प्रदेश के कुरनूल-क्षेत्र में इस युग के स्थलों की खोज की है. इन क्षेत्रों में कई नदियाँ हैं, जैसे – ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा भीमा, वर्धा आदि. इन स्थानों में चूनापत्थर से बने अनेक पुरापाषाण औजार (weapons) मिले हैं.
  12. नदियों के कारण इन स्थलों के जलवायु में नमी रहती है. यहाँ गैंडा और जंगली बैल के अनेक कंकाल मिले हैं. इससे अनुमान लगाया गया है कि इन क्षेत्रों में इस युग में आज की तुलना में अधिक वर्षा होती होगी. ऐसा अनुमान इस आधार पर लगाया है कि गैंडा और जंगली बैल नमीवाले स्थानों में रहना पसंद करते हैं.

  13. अनुमान लगाया जाता है कि इस युग का अंत होते-होते जलवायु में परिवर्तन होने लगा. धीरे-धीरे इन क्षेत्रों के तापमान में वृद्धि हुई.

  14. इस युग का मनुष्य चित्रकारी करता था जिसका प्रमाण उन गुफाओं से मिलता है जहाँ वह रहता था.

मध्यपाषाण युग (Mesolithic Age)

पुरापाषाण काल लगभग एक लाख वर्ष तक रहा. उसके बाद मध्यपाषाण या मेसोलिथिक युग (Mesolithic Age) आया. बदले हुए युग में कई परिवर्तन हुए. जीवनशैली में बदलाव आया. तापमान में भी वृद्धि हुई. साथ-साथ पशु और वनस्पति में भी बदलाव आये. इस युग को मध्यपाषण युग (Mesolithic Age) इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह युग पुरापाषाण युग और नवपाषाण युग के बीच का काल है. भारत में इस युग का आरम्भ 8000 ई.पू. से माना जाता है. यह काल लगभग 4000 ई.पू. के आस-पास उच्च पुरापाषाण युग का अंत हो गया और जलवायु उष्ण और शुष्क हो गया. परिणामस्वरूप बहुत सारे मौसमी जलस्रोत सूख गए होंगे और बहुत सारे जीव-जन्तु दक्षिण अथवा पूर्व की ओर प्रवास कर गए होंगे, जहाँ कम से कम मौसमी वर्षा के कारण लाभकारी और उपयुक्त घनी वनस्पति बनी रह सकती थी. जलवायु में परिवर्तनों के साथ-साथ वनस्पति व जीव-जन्तुओं में भी परिवर्तन हुए और मानव के लिए नए क्षेत्रों की ओर आगे बढ़ना संभव हुआ.

  1. तापमान में बदलाव आया. गर्मी बढ़ी. गर्मी बढ़ने के कारण जौ, गेहूँ, धान जैसी फसलें उगने लगीं.
  2. इस समय के लोग भी गुफाओं में रहते थे.
  3. पुरातत्त्वविदों को कई स्थलों से मेसोलिथिक युग के अवशेष मिले हैं.
  4. पश्चिम, मध्य भारत और मैसूर (कर्नाटक) में इस युग की कई गुफाएँ मिलीं हैं.
  5. मध्यपाषाण युग में लोग मुख्य रूप से पशुपालक थे. मनुष्यों ने इन पशुओं को चारा खिलाकर पालतू बनाया. इस प्रकार मध्यपाषाण काल में मनुष्य पशुपालक बना.
  6. इस युग में मनुष्य खेती के साथ-साथ मछली पकड़ना, शहद जमा करना, शिकार करना आदि कार्य करता था.

नवपाषाण काल (Neolithic Age)

मध्यपाषाण काल के बाद नवपाषाण युग में मनुष्य के जीवन में बहुत अधिक परिवर्तन आया. इस युग में वह भोजन का उत्पादक हो गया अर्थात् उसे कृषि पद्धति का अच्छा ज्ञान हो गया. यह पाषाणयुग की तीसरी और अंतिम कड़ी है. भारत में 4,000 ई.पू. से यह यह शुरू हुआ और संभवतः 2500 ई.पू. तक चलता रहा. इस युग में मनुष्य का मस्तिष्क अधिक विकसित हो चुका था. उसने अपने बौद्धिक विकास, अनुभव, परम्परा और स्मृति का लाभ उठाकर अपने पूर्व काल के औजारों व हथियारों को काफी सुधार लिया. दक्षिण भारत और पूर्व भारत में अनेक स्थलों पर इस संस्कृति के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं. दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के दक्षिण में ये साक्ष्य मिले हैं. इस युग में भारतीय मानव ने ग्रेनाइट की पहाड़ियों अथवा नदी तट के समीप बस्तियाँ स्थापित की थीं. पूर्वी भारत में गंगा, सोन, गंडक और घाघरा नदियों के डेल्टाओं में मानव रहता था

  1. उसे पता लग गया कि बीज से वनस्पति बनता है. वह बीज बोने लगा.
  2. बीज बोने के साथ-साथ उसने सिंचाई करना भी सीखा.
  3. वह अनाज के पकने पर उसकी कटाई कर उसका भंडारण करना सीख गया.
  4. नवपाषाण काल (Neolithic Age) में मनुष्य कृषक और पशुपालक दोनों था.
  5. कई स्थलों पर इस युग के अनाज के दानें मिलें हैं. इन दानों से पता लगता है कि उस समय कई फसलें उगाई जाती थीं.
  6. उत्तर -पश्चिम में मेहरगढ़ (पाकिस्तान में), गुफकराल और बुर्जहोम (कश्मीर में), कोल्डिहवा और महागढ़ा (उत्तर प्रदेश में), चिरांद (बिहार में), हल्लूर और पैय्य्मपल्ली (आंध्र प्रदेश में) गेहूँ, जौ, चावल, ज्वार-बाजरा, दलहन, काला चना और हरा चना जैसी फसलें उगाने के प्रमाण मिले हैं.
  7. इस युग में मनुष्य कृषिकार्य के कारण एक स्थान पर स्थाई रूप से रहना शुरू कर दिया. कहीं-कहीं झोपड़ियों और घरों के अवशेष मिले हैं.
  8. बुर्जहोम में गड्ढे को घर बनाकर रहने के साक्ष्य मिले हैं. ऐसे घर को गर्तवास का नाम दिया गया.
  9. मेहरगढ़ में कई घरों के अवशेष मिले हैं, जो चौकोर और आयतकार हैं.
  10. नवपाषाण युग में कृषक और पशुपालक एक साथ एक स्थान पर छोटी-छोटी बस्तियाँ बनाकर रहने लगे.
  11. परिवारों के समूह ने जनजाति को जन्म दिया. जन्मजाति के सदस्यों को आयु, बुद्धिमत्ता और शारीरिक बल के आधार पर कार्य दिया जाता था.
  12. ज्येष्ठ और बलशाली पुरुष को जनजाति का सरदार बनाया जाता था.
  13. नवपाषाण काल (Neolithic Age) में जनजातियों की अपनी संस्कृति और परम्पराएँ होती थीं. भाषा, संगीत, चित्रकारी (Language, music, painting etc.) आदि से इनकी संस्कृति का ज्ञान होता है.
  14. इस काल में लोग जल, सूर्य, आकाश, पृथ्वी, गाय और सर्प की पूजा (worship) विशेष रूप से करते थे.
  15. इस काल में बने मिट्टी के बरतन कई स्थलों से प्राप्त हुए हैं. इन बरतनों पर रंग लगाकर और चित्र बनाकर उन्हें आकर्षक बनाने का प्रयास करते थे.

 

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